Chintaghar
Author:
Yashwant VyasPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
‘चिन्ताघर’ कथा–साहित्य में ताज़गी-भरा सशक्त और सन्तुलित प्रयोग है। कथा–लेखन<br />में और व्यंग्य–लेखन में हमारे यहाँ जो कुछेक ऊबाऊ रूढ़ियाँ बन रही हैं, लेखक उनसे सर्वथा दूर है।<br />यशवंत व्यास शब्दों का सधा हुआ मितव्ययी प्रयोग करते हैं और ऐसा अकारण नहीं होता है कि वे<br />प्रत्यक्षत: कोई अनावश्यक प्रतीत होनेवाला वाक्य लिखें या अपने कथन को दोहराएँ। ऐसे स्थलों पर<br />प्राय: शैली की माँग का दबाव ही ज़िम्मेदार होता है। इस प्रकार का अनुशासित लेखन दुर्लभ–सा है,<br />ख़ास तौर से ऐसी शैली में जहाँ भाषाई चमत्कार और आधुनिक जीवन के विविध सन्दर्भ–संकेतों का<br />खुलकर उपयोग किया गया हो। कुछ अलग–अलग स्थितियों, घटनाओं और फंतासियों को लेकर ही<br />उपन्यास का ताना–बाना तैयार किया गया है, पर उनका अन्तर्गुम्फन ऐसा है जो सहज रूप से<br />उपन्यास को एकसूत्रता में बाँध लेता है।
ISBN: 9788126708734
Pages: 143
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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‘मकान’ यशस्वी कथाकार श्रीलाल शुक्ल की बहुप्रशंसित कृति है। वस्तुत: संगीत की पृष्ठभूमि में कलाकार के जीवन की आकांक्षाओं, ज़िम्मेदारियों, विसंगतियों और तनावों को केन्द्र बनाकर लिखा गया हिन्दी में अपनी तरह का यह पहला उपन्यास है।
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- Author Name:
Bhisham Sahni
- Book Type:

- Description: भीष्म साहनी का यह उपन्यास ऐसे कालखंड की कहानी कहता है जब लगने लगा था कि हम इतिहास के किसी निर्णायक मोड़ पर खड़े हैं, जब करवटें लेती ज़िन्दगी एक दिशा विशेष की ओर बढ़ती जान पड़ने लगी थी। आपसी रिश्ते, सामाजिक सरोकार, घटना-प्रवाह के उतार-चढ़ाव उपन्यास के विस्तृत फ़लक पर उसी कालखंड के जीवन का चित्र प्रस्तुत करते हैं। केन्द्र में जयदेव-कुंतो-सुषमा-गिरीश के आपसी सन्बन्ध हैं—अपनी उत्कट भावनाओं और आशाओं-अपेक्षाओं को लिए हुए। लेकिन कुंतो-जयदेव और सुषमा-गिरीश के अन्तर सम्बन्धों के आस-पास जीवन के अनेक अन्य प्रसंग और पात्र उभरकर आते हैं। इनमें हैं प्रोफ़ेस्साब जो एक सन्तुलित जीवन को आदर्श मानते हैं और इसी ‘सुनहरी मध्यम मार्ग’ के अनुरूप जीवन को ढालने की सीख देते हैं; हीरालाल है जो मनादी करके अपनी जीविका कमाता है, पर उत्कट भावनाओं से उद्वेलित होकर मात्र मनादी करने पर ही संतुष्ट नहीं रह पाता; हीरालाल की विधवा माँ और युवा घरवाली हैं; सात वर्ष के बाद विदेश से लौटा धनराज और उसकी पत्नी हैं; सहदेव है। ऐसे अनेक पात्र उपन्यास के फ़लक पर अपनी भूमिका निभाते हुए, अपने भाग्य की कहानी कहते हुए प्रकट और लुप्त होते हैं। और रिश्तों और घटनाओं का यह ताना-बाना उन देशव्यापी लहरों और आन्दोलनों की पृष्ठभूमि के सामने होता है, जब लगता था कि हमारा देश इतिहास के किसी मोड़ पर खड़ा है।
Dudiya : Tere Jalte Hue Mulk Mein
- Author Name:
Vishwash Patil
- Book Type:

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Description:
शाश्वत सत्य यह था कि आदिवासी जंगल की सन्तान हैं। मगर वस्तुस्थिति यह थी कि उनमें से किसी के पास भी जंगल की जमीन का कोई पट्टा नहीं लिखा था। न ही उनमें इतनी समझ थी कि उस जमीन को अपने नाम लिखाकर रखें। अपने पूर्वजों की तरह वह उस जमीन पर खेती करते थे। जंगल से जीवन यापन करते थे। लेकिन साठ के दशक में अचानक वन अधिकारी नए नियम-कायदों की लाठी से लैस होकर वहाँ घुस गए। आदिवासियों को चूल्हे में जलाने के लिए, जंगलों की सूखी लकड़ियाँ बीनने तक से रोका जाने लगा। उनके भेड़-बकरियों को जंगल में चराने पर रोक लगा दी गई। आदिवासी स्तब्ध रह गए कि यह क्या! जहाँ वे अपना हक समझते थे, पीढ़ी-दर-पीढ़ी जिन जंगलों में रहते थे, वहाँ किसका राज आ गया।
–इसी पुस्तक से
Kisan
- Author Name:
Honore De Balzac
- Book Type:

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Description:
‘किसान’ (अंग्रेज़ी में ‘दि पीजशेंट्री’ और ‘संस ऑफ़ दि सॉयल’ नाम से प्रकाशित) ‘ह्यूमन कॉमेडी’ शृंखला के अन्तिम चरण की रचना है। इसकी गणना बाल्ज़ाक की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और परिपक्व कृतियों में की जाती है।
बाल्ज़ाक ने ‘ह्यूमन कॉमेडी’ की पूरी परियोजना के अन्तर्गत, अपने चार उपन्यासों में फ़्रांसीसी ग्रामीण जीवन के अन्तरंग और बहिरंग को चित्रित करते हुए, सामन्ती भूमि-सम्बन्धों के पूँजीवादी रूपान्तरण तथा आधुनिक पूँजीवाद के विकास में कृषि की भूमिका को, पूँजीवाद के अन्तर्गत गाँव और शहर के बीच लगातार बढ़ती खाई को, छोटे मालिक किसानों पर सूदख़ोर महाजनों की जकड़बन्दी को, शहरी और ग्रामीण महाजनी के फ़र्क़ को, कृषि में माल-उत्पादन के बढ़ते वर्चस्व और किसानी जीवन पर मुद्रा के आच्छादनकारी प्रभाव को तथा किसान आबादी के विभेदीकरण (डिफ़रेंसिएशन) और कंगालीकरण को जिस अन्तर्भेदी गहराई और चहुँमुखी व्यापकता के साथ प्रस्तुत किया है, वह आर्थिक इतिहास या समाज-विज्ञान की किसी पुस्तक में भी देखने को नहीं मिलता।
बाल्ज़ाक शहरी मध्यवर्गीय रोमानी नज़रिए से न तो कहीं ‘अहा, ग्राम्य-जीवन भी क्या है’ की आहें भरते नज़र आते हैं, न ही उन ‘काव्यात्मक सम्बन्धों’ और पुरानी संस्थाओं-सम्बन्धों-चीज़ों के लिए बिसूरते दीखते हैं जिन्हें पूँजी या तो लील जाती है, या पुनः संस्कारित करके अपना लेती है या फिर अजायबघरों में सुरक्षित कर देती है। इसके विपरीत वह ठहरे हुए ग्रामीण जीवन की कूपमंडूकतापूर्ण तुष्टि के प्रति वितृष्णा प्रकट करते हैं और उस मध्यवर्गीय शहरी नज़रिए की खिल्ली उड़ाते हैं जिसे ग्राम्य जीवन एक ख़ूबसूरत लेंडस्केप नज़र आता है।
एक ठंडी वस्तुपरकता के साथ बाल्ज़ाक गाँवों में व्याप्त पिछड़ेपन, अज्ञानता, विपन्नता, कूपमंडूकता, निर्ममता और उस अमानवीकरण की चर्चा करते हैं जो मन्थर गति वाले अलग-थलग पड़े ‘स्वायत्तप्राय’ ग्रामीण परिवेश के अपरिहार्य गुण हैं और गाँवों में पूँजी का प्रवेश इन्हें और निर्मम-निरंकुश बनाने का काम ही करता है। पश्चिमी दुनिया में कृषि में पूँजीवाद का प्रवेश सबसे क्रान्तिकारी ढंग से फ़्रांस और अमेरिका में हुआ। वहाँ के बूर्ज्वा जनवादी क्रान्ति के उत्तरकालीन परिदृश्य को चित्रित करते हुए बाल्ज़ाक ने दिखलाया है कि ग्रामीण जीवन वहाँ भी लगभग ठहरा हुआ सा है, भविष्य को लेकर कहीं कोई उत्साह नहीं है, बाहरी दुनिया से नाम-मात्र का सम्पर्क है, नए विचारों का प्रभाव नगण्य है। खेतिहर मज़दूर, छोटा मालिक किसान, रिटायर्ड फ़ौजी—सभी आत्मविश्वास से रिक्त, रामभरोसे जी रहे हैं। खेतों में भरपूर हाड़ गलाने के बावजूद कुछ भी हासिल नहीं होता। ग़रीबी, भूमिहीनता, ऋणग्रस्तता, कुपोषण, बीमारी, ग़रीबी के चलते ऊँची जन्म दर और ऊँची मृत्यु दर—विशेषकर शिशु मृत्यु दर तथा अन्धविश्वास और भाग्यवाद का चतुर्दिक बोलबाला है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था और किसानों की स्थिति के हर पहलू को तफ़सील से देखते हुए बाल्ज़ाक किसान में समस्या के सारतत्त्व को पकड़ते हैं और बताते हैं कि सवाल भूस्वामित्व की सामन्ती व्यवस्था का नहीं है, बल्कि अपने आप में भू-स्वामित्व की पूरी व्यवस्था का ही है। सामन्ती भूस्वामी की जगह पूँजीवादी फ़ौजी जनरल या ऑपेरा गायिका के आ जाने से आम किसान की स्थिति में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। किसान की ख़ून-पसीने की कमाई के मुख्य अपहर्ता प्रायः सामने नहीं होते। वे बदलते रहते हैं, पर किसानों का रोज़मर्रे के जीवन में जिन बिचौलियों से साबका पड़ता है, उनकी स्थिति अपरिवर्तित रहती है।
किसान उपन्यास में बाल्ज़ाक रिगू-गोबर्तें गठजोड़ के रूप में व्यापारी-भूस्वामी-सूदख़ोर गठजोड़ की किसानों पर चतुर्दिक जकड़बन्दी की तस्वीर उपस्थित करते हैं और दिखलाते हैं कि किस तरह प्रशासन, न्याय, ऋण और व्यापार के पूरे तंत्र पर इस गिरोह का ऑक्टोपसी नियंत्रण क़ायम है। स्वयं बाल्ज़ाक के ही शब्दों में : ‘‘छोटे किसान की त्रासदी यह है कि सामन्ती शोषण से मुक्त होकर वह पूँजीवादी शोषण के जाल में फँस गया है।”
—सम्पादकीय आलेख से।
Sidhyon Par Cheetah
- Author Name:
Tejinder
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Description:
उत्तराखंड के देहरादून से चेन्नई जा पहुँचा भारत सरकार का एक क्लास वन सिख ऑफ़िसर रंधावा। समुद्र के और वहाँ के दरिद्रनारायण बाशिन्दों के क़रीब पहुँच जाने पर उसे अनुभव होने लगा है कि ‘ग़रीब आदमी की हथेलियों में लिखी हुई रेखाएँ, पेंसिल से खींची हुई होती हैं और उन्हें मिटानेवाले सारे रबर पैसेवालों के हाथों में होते हैं।’ “अंकल, आप नहीं समझते, इस डायरी के शब्दों में कितनी एनर्जी और कितना पैशन है।”
“लेकिन ये सड़ी और तर्कहीन नफ़रत से भरे हुए हैं...”
“पर अंकल, जागीरसिंह ठीक कहता था, मैं भी अपने रास्ते में जो आएगा, उसे छोड़ूँगा नहीं, आई विल किल हिम।”
“तुम्हारे रास्ते का मतलब?”
“समुद्र की पीठ पर अपना घर बनाने का रास्ता।” समुद्र की पीठ पर अपना घर बनाने का रास्ता महज़ शिवा के दिमाग़ में नहीं, अनेक विद्वानों के मस्तिष्कों से उपजा है। प्रोफ़ेसर लक्ष्मीनारायण श्रीनिवास राघवन ने एक दिन शिवा को कान्नेमारा लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठकर समझाया था—‘अंग्रेज़ कलकत्ते से ज़्यादा मद्रास को प्यार करते थे, इसीलिए उन्होंने यहाँ कान्नेमारा लाइब्रेरी बनवाई। यहाँ पर जो किताबें हैं और उनमें द्रविड़ियन ज्ञान की जो फ़ायर है, वह सोने की तरह है, जिसके सामने काशी के वेद फीके हैं। नो आर्यन फ़िलासफ़र कैन ईवन स्टैंड नीयरबाय।’
“आप यह समुद्र के उस पार के द्वीप में जो लड़ाई चल रही है, उसके बारे में क्या सोचती हैं?” रंधावा ने नीला नारायणन से पूछा था।
“दे डोन्ट नो देम सेल्व्स, उन्हें क्या चाहिए। वे अपने घर के लिए लड़ रहे हैं इसीलिए हमारे घर बन रहे हैं।” टी.वी. पर ब्रेकिंग न्यूज़ के तहत बताया जा रहा था कि बारिश से हुई बर्बादी के बाद रात के टोकन बटोरने की कोशिश में एक तमिल क़स्बे में अपने ही लोगों की भीड़ से कुचलकर बयालीस लोग मर गए थे।
जागीरसिंह और शिवा दोनों दिग्भ्रमित नौजवानों ने अन्ततः अपने विचारों को सच मानते हुए, उनकी रक्षा में मौत का चोग़ा ओढ़ लिया था। उपन्यास में धड़ल्ले से किए गए तमिल वाक्यों के उपयोग से यह विश्वास नहीं हो सकता कि लेखक एक हिन्दीभाषी क्षेत्र का निवासी है।
सिर्फ़ हिन्दी ही नहीं, एक ज्वलन्त, अछूते विषय पर अब तक किसी भी भारतीय भाषा में लिखी गई एक अनोखी, कालजयी रचना।
—विद्यासागर नौटियाल
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