Anna Karenina : Vols. 1-2
Author:
Leo TolstoyPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 640
₹
800
Available
‘आन्ना कारेनिना’ महाकाव्यात्मक त्रासदी को नए दिक्-काल सन्दर्भों में पुनर्परिभाषित करने का दबाव बनानेवाला यह महान उपन्यास अपराध या पाप के नैतिक प्रश्न को गहरे ऐतिहासिक-सामाजिक सन्दर्भों में प्रस्तुत करते हुए, समाज और स्वयं अपने जीवन के प्रति प्रत्येक व्यक्ति के उत्तरदायित्व को चिन्तन के केन्द्र में उपस्थित करता है। इसके साथ ही, यह तत्कालीन रूसी जीवन के सभी बुनियादी और केन्द्रीय अन्तर्विरोधों को भी चित्रित करता है। सामाजिक जीवन की समस्याओं तथा कला और दर्शन के प्रश्नों के साथ ही तोल्स्तोय ने इस उपन्यास में परिवार और नैतिक जीवन की समस्याओं पर केन्द्रित करते हुए स्त्री-प्रश्न को भी गहरी दार्शनिक चिन्ता के साथ प्रस्तुत किया है। उल्लेखनीय है कि इस उपन्यास के प्रकाशन के बाद, तोल्स्तोय गम्भीर विचारधारात्मक संकट के दौर से गुज़रे, जिसकी परिणति के तौर पर, बल के द्वारा बुराई के अप्रतिरोध का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए भी, वे मौजूदा व्यवस्था की सभी बुनियादों को ख़ारिज करने तथा सामाजिक ढाँचे की निर्मम-बेलाग आलोचना करने की स्थिति तक जा पहुँचे। ‘आन्ना कारेनिना’ का दायरा हालाँकि ‘युद्ध और शान्ति’ की अपेक्षा संकुचित है, लेकिन इस उपन्यास के चरित्र अधिक जटिल हैं। वे अधिक संवेदनशील प्रतीत होते हैं और उनके आन्तरिक तनाव और चिन्ताएँ उपन्यास में समग्र जीवन की अनिश्चितता और अस्थायित्व के परिवेश को परावर्तित करती हैं। ‘आन्ना कारेनिना’ एक हद तक आत्मकथात्मक उपन्यास भी है। इसे लिखते हुए तोल्स्तोय अपने समय और अपने ख़ुद के जीवन के बारे में स्वयं ही स्पष्ट होने की प्रक्रिया से गुज़र रहे थे। उपन्यास में जिन समस्याओं को उठाने और हल करने की कोशिश की गई थी, उनके प्रति तोल्स्तोय के सरोकार ने 1870 के दशक के अन्त में उन्हें एक नए विचारधारात्मक संकट के भँवर में धकेल दिया और पितृसत्तात्मक किसानी नज़रिए के प्रति उनकी पक्षधरता भी संकटग्रस्त हो गई।
ISBN: 9789360867218
Pages: 416
Avg Reading Time: 14 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: "यह सृष्टि द्वंद्वमय है। जीवन के प्रत्येक क्रिया-कलाप के साथ सम-विषम भाव जुडे़ हुए हैं। लेखनी या वाणी तो सीमित साधनमात्र है। पद्यमय रचना पाठकों को अच्छी लगती है, अतः तुकांत पदों में रचना होने लगी। हर्ष, आनंद, खुशी, उल्लास, आमोद-प्रमोद, प्रसन्नता के ही पर्याय हैं। आनंद की अनुभूति केवल ठहाके लगाने या मुसकराने से ही नहीं होती। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में खुशी की खोज की जा सकती है। प्रस्तुत पुस्तक में हम व्यावहारिक जगत् के कुछ विषयों का संक्षेप में उल्लेख कर रहे हैं, जो आनंद-प्राप्ति में साधनरूप हैं—हास्य के स्रोत, हँसी का महत्त्व, काल और स्थान, मानव-स्वभाव, श्रम का महत्त्व, सांसारिक संबंध, प्राचीन साधन, सुख की खोज, आशा का बंधन, मन की पहचान, सज्जन-दुर्जन, जड़-चेतन में हास्य, वाणी का महत्त्व, परसेवा, परिश्रम तथा भाग्य, सुख-साधन, जगत्-धर्म, प्रकृति के वरदान, कृत्रिमता, कंप्यूटर-युग आदि। व्यक्ति के उत्थान-पतन से जुड़े ये विचार पठनीय तो हैं ही, संग्रहणीय भी हैं। हर आयु-वर्ग के पाठकों के लिए यह पुस्तक रोचक, ज्ञानवर्धक और आनंददायक है।"
Gunah Begunah
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Maitreyi Pushpa
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भारतीय समाज में ताक़त का सबसे नज़दीकी, सबसे देशी और सबसे नृशंस चेहरा—पुलिस। कोई हिन्दुस्तानी जब क़ानून कहता है तब भी और जब सरकार कहता है तब भी, उसकी आँखों के सामने कुछ ख़ाकी-सा ही रहता है। इसके बावजूद थाने की दीवारों के पीछे क्या होता है, हममें से ज़्यादातर नहीं जानते। यह उपन्यास हमें इसी दीवार के उस तरफ़ ले जाता है और उस रहस्यमय दुनिया के कुछ दहशतनाक दृश्य दिखाता है और सो भी एक महिला पुलिसकर्मी की नज़रों से।
इला जो अपने स्त्री वजूद को अर्थ देने और समाज के लिए कुछ कर गुज़रने का हौसला लेकर ख़ाकी वर्दी पहनती है, वहाँ जाकर देखती है कि वह चालाक, कुटिल लेकिन डरपोक मर्दों की दुनिया से निकलकर कुछ ऐसे मर्दों की दुनिया में आ गई है जो और भी ज़्यादा क्रूर, हिंसालोलुप और स्त्रीभक्षक हैं। ऐसे मर्द जिनके पास वर्दी और बेल्ट की ताक़त भी है, अपनी अधपढ़ मर्दाना कुंठाओं को अंजाम देने की निरंकुश निर्लज्जता भी और सरकारी तंत्र की अबूझता से भयभीत समाज की नज़रों से दूर, थाने की अँधेरी कोठरियों में मिलनेवाले रोज़-रोज़ के मौक़े भी। अपनी बेलाग और बेचैन कहन में यह उपन्यास हमें बताता है कि मनुष्यता के ख़िलाफ़ सबसे बीभत्स दृश्य कहीं दूर युद्धों के मोर्चों और परमाणु हमलों में नहीं, यहीं हमारे घरों से कुछ ही दूर, सड़क के उस पार हमारे थानों में अंजाम दिए जाते हैं। और यहाँ उन दृश्यों की साक्षी है बीसवीं सदी में पैदा हुई वह भारतीय स्त्री जिसने अपने समाज के दयनीय पिछड़ेपन के बावजूद मनुष्यता के उच्चतर सपने देखने की सोची है।
मर्दाना सत्ता की एक भीषण संरचना यानी भारतीय पुलिस के सामने उस स्त्री के सपनों को रखकर यह उपन्यास एक तरह से उसकी ताक़त को भी आजमाता है और कितनी भी पीड़ाजन्य सही, एक उजली सुबह की तरफ़ इशारा करता है।
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