Saundaryashastra Ke Tatva
Author:
Kumar VimalPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Unavailable
कविता के सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन की आवश्यकता इसलिए है कि वह न सिर्फ़ मनुष्य के सर्जनात्मक अन्तर्मन की एक रचनात्मक प्रक्रिया है, बल्कि उसकी संरचना में अन्य कलाओं के तत्त्व और गुण भी समाहित होते हैं। भारतीय काव्य-चेतना की परम्परा के अनुसार भी काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में कविता के कलात्मक अंश और काव्येतर तत्त्वों के समागम की अवहेलना नहीं की गई है। इसलिए ललित कलाओं की व्यापक पृष्ठभूमि में काव्य का तात्त्विक अध्ययन ज़रूरी है। इसी को कविता का सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन कहते हैं। लेकिन अनेक विद्वानों द्वारा समय-समय पर इस आवश्यकता को रेखांकित किए जाने के बावजूद हिन्दी आलोचना-साहित्य में अभी तक हम इस दिशा में छिटपुट निबन्धों, लेखों से आगे नहीं बढ़ सके हैं। जो काम सामान्यतः सामने आया है, वह अपेक्षित सौन्दर्यशास्त्रीय दृष्टिकोण और तात्त्विक विश्लेषण के अभाव के चलते सन्तोषजनक नहीं है।</p>
<p>यह पुस्तक हिन्दी साहित्य की उस कमी को पूरा करने का एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है। इसमें सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन की अभी तक उपलब्ध परम्परा की पूर्वपीठिका में काव्य के प्रमुख तत्त्वों, यथा—सौन्दर्य, कल्पना, बिम्ब और प्रतीक का विशद और हृदयग्राही विवेचन किया गया है। अपने विषय में ‘प्रस्थान-ग्रन्थ’ बन सकने की क्षमतावाली इस पुस्तक में सौन्दर्यशास्त्र को व्यावहारिक आलोचना के धरातल पर उतारा गया है जिसका प्रमाण द्वितीय खंड में प्रस्तुत छायावादी कविता का सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन है।</p>
<p>इसकी दूसरी विशेषता है सौन्दर्यशास्त्र की स्वीकृत और अंगीकृत मान्यताओं के आधार पर काव्यशास्त्र की एक नई दिशा की ओर संकेत। कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ कई दृष्टियों से ज्ञान की परिधि का विस्तार करता है और हिन्दी साहित्य में सौन्दर्यशास्त्रीय या कलाशास्त्रीय मान्यताओं के सहारे निष्पन्न एक ऐसे अद्यतन काव्यशास्त्र का रूप उपस्थित करता है, जिसमें परम्परागत प्रणालियों के अनुशीलन से आगे बढ़कर नवीन चिन्तन और आधुनिक वैज्ञानिक उद्भावनाओं का भी उपयोग किया गया है।
ISBN: 9788119159710
Pages: 306
Avg Reading Time: 10 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
Recommended For You
Kavita Ka Shahar : Ek Kavi Ki Notebook
- Author Name:
Rajesh Joshi
- Book Type:

- Description: कविता का नगर चाहे बहुत भिन्न हो, उसमें कल्पना का तत्त्व बहुत अधिक या कम हो, लेकिन बाहर स्थित नगर से उसकी शक्ल थोड़ी-बहुत तो मिलती है। पर हर बार मेरी शक्ल को वास्तविक नगर की शक्ल से मिला-जुलाकर देखने की क़वायद फ़िज़ूल है। कई बार कवियों को भी यह भ्रम हो जाता है कि वे अपनी कविता में वास्तविक शहर के यथार्थ को समेट रहे हैं। उन्हें लगता है कि वो कविता में शब्दों से वो ही शहर बना सकते हैं जो वास्तविक शहर है। लेकिन दोनों के निर्माण में लगनेवाली सामग्री ही भिन्न है। जब भी वास्तविक शहर शब्दों में रूपान्तरित होता है, उसका चेहरा-मोहरा वही नहीं रहता जो उसका वास्तविक चेहरा है। यह शहर का पुनर्रचित चेहरा है। यह कविता का नगर है। लेकिन मुझे बसाना या बनाना भी कोई आसान काम नहीं है। मेरे भवनों, सड़कों, गलियों, नदियों और सरोवरों को बनाने के लिए एक कवि को भी जाने कितने शब्द, कितने वाक्य, बिम्ब, प्रतीक, छन्द, लय, मिथक-कथाओं और कल्पनाओं की ज़रूरत होती है। कवि का श्रम किसी वास्तुशिल्पी या नगरशिल्पी से किसी बात में कम नहीं होता। मेरा इतिहास उतना ही पुराना है जितना मनुष्य द्वारा किए गए नगरीकरण का। इसे मेरा दम्भ न समझा जाए तो कई बार तो मुझे लगता है कि मनुष्य द्वारा बसाए गए शहर से भी पहले मैं अस्तित्व में आया होऊँगा। एक शहर में जैसे हमेशा ही कुछ न कुछ जुड़ता रहता है, कुछ टूटता रहता है, इसी तरह मुझमें भी कुछ न कुछ बदलता रहता है। प्राचीन कविता का नगर और आज की कविता का नगर एक-सा तो नहीं है। आधुनिक शहरों की तरह मुझमें भी भीड़ है, शोर है और तेज़ गतियाँ हैं, परिचित और अपरिचित चेहरे हैं। आख़िरकार मैं भी एक नगर हूँ और भीड़ और शोर से मैं भी कैसे बच सकता हूँ। तो आइए, मैं आपको वास्तविक नगर की भीड़ और शोर से निकालकर कविता के नगर की भीड़ और शोर के बीच लिए चलता हूँ।
Sanskriti Ke Chaar Adhyay
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

-
Description:
...यह सम्भव है कि संसार में जो बड़ी-बड़ी ताक़तें काम कर रही हैं, उन्हें हम पूरी तरह न समझ सकें, लेकिन, इतना तो हमें समझना ही चाहिए कि भारत क्या है और कैसे इस राष्ट्र ने अपने सामाजिक व्यक्तित्व का विकास किया गया है। उसके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू कौन-से हैं और उसकी सुदृढ़ एकता कहाँ छिपी हुई है। भारत के समस्त मन और विचारों पर उसी का एकाधिकार है। भारत आज जो कुछ है, उसकी रचना में भारतीय जनता के प्रत्येक भाग का योगदान है। यदि हम इस बुनियादी बात को नहीं समझ पाते तो फिर हम भारत को भी समझने में असमर्थ रहेंगे। और यदि भारत को हम नहीं समझ सके तो हमारे भाव, विचार और काम, सब-के-सब अधूरे रह जाएँगे और हम देश की ऐसी कोई सेवा नहीं कर सकेंगे, जो ठोस और प्रभावपूर्ण हों।
मेरा विचार है कि दिनकर की पुस्तक इन बातों को समझने में, एक हद तक, सहायक होगी। इसलिए, मैं इसकी सराहना करता हूँ और आशा करता हूँ कि इसे पढ़कर अनेक लोग लाभान्वित होंगे।
Gandhi Aur Kala Tatha Anya Nibandh
- Author Name:
Raman Sinha
- Book Type:

- Description: भारतीय कलाओं, उनकी परम्पराओं और भाव-पक्ष पर सुनियोजित ढंग से विचार करने वाली ‘गांधी और कला तथा अन्य निबन्ध’ पुस्तक डॉ. रमण सिन्हा के समय-समय पर लिखे गए निबन्धों और व्याख्यानों का संकलन है। ‘गांधी और कला’ शीर्षक सुदीर्घ निबन्ध इसकी विशेष उपलब्धि है जिसमें कलाओं को लेकर गांधी की दृष्टि और विभिन्न कलाओं में गांधी व उनके विचारों के अंकन को अलग-अलग कोणों से देखा गया है। कलाओं की आन्तरिक परस्परता को भारतीय कला-दृष्टि की विशिष्टता बताते हुए यह पुस्तक उन कला-रूढ़ियों को भी रेखांकित करती चलती है जो वक़्त-वक़्त पर विदेशी लोगों के आगमन के साथ भारत की कला-धारा में समाहित होती रहीं, और उसे नया रूप देती रहीं। मध्यकालीन भारतीय कला और संस्कृति पर विचार करते हुए लेखक कहते हैं कि भारतीय चित्रकला के इतिहास में मुग़ल शैली का उद्भव एक युगान्तरकारी घटना सिद्ध हुई, जिसमें दो संस्कृतियों ने एक-दूसरे के साथ आदान-प्रदान का सम्बन्ध कायम किया तथा देशी का विदेशी के साथ व परम्परा का नवाचार के साथ संवाद बना। ‘तुलसीदास का प्रतिमा-निरूपण’, ‘कविता और राग’ तथा ‘हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत : लौकिक या पारलौकिक?’ आदि निबन्धों के अलावा अभिनय के माध्यम से अपने आत्म का अन्वेषण करनेवाले फ़िल्मकार ऋतुपर्ण घोष पर केद्रित एक आलेख भी इसमें शामिल है जो इस कला-विवेचन को हमारे आज के कला-बोध से जोड़ता है।
Shabd Aur Smriti
- Author Name:
Nirmal Verma
- Book Type:

-
Description:
‘शब्द और स्मृति’ के निबन्ध निर्मल वर्मा को विशेष प्रिय थे। वे इन्हें ‘पर्सनल ब्रूडिंग’ के निबन्ध कहते थे जिनमें उन्होंने अपने आप तक लौटने की प्रक्रिया को आँकने की कोशिश की है।
आधुनिकता जिसने विक्टोरियन युग की रूढ़ियों को इतनी सफलतापूर्वक तोड़ा, धीरे-धीरे ख़ुद एक रूढ़ि बनती दीखने लगी। उसकी कोख से अपने अलग तरह के अन्धविश्वासों की उत्पत्ति हुई। इन निबन्धों में निर्मल जी उन्हीं अन्धविश्वासों, रूढ़िगत फ़ैशनों और फ़ार्मूलों पर शंका प्रकट करते हैं।
इन निबन्धों में वे भारतीय आत्म की उस दुहरी प्रकृति को भी उघाड़ने की कोशिश करते हैं, जो परम्परा और आधुनिकता के द्वैत का परिणाम है। यह प्रक्रिया एक तरह से उनकी अपनी आत्मा की पड़ताल भी हो जाती है। आज इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में हम इस पुनरावलोकन की ज़रूरत को और ज़्यादा महसूस करते हैं।
लम्बे यूरोप-प्रवास के दौरान अर्जित उनकी एक भिन्न दृष्टि भी यहाँ दिखाई देती है जो भारतीय चेतना के अंगीभूत अवयवों को कुछ दूर से देखती है, और उनके साथ जुड़े अपने संस्कारों को भी। पश्चिम की तार्किकता और भारत की तर्कातीत समग्रता का मुखामुखम इन निबन्धों को और रोचक बनाता है।
Bharat Ki Bhasha Samasya
- Author Name:
Ramvilas Sharma
- Book Type:

-
Description:
style="text-align: left;">भारत की भाषा-समस्या एक ज्वलन्त राष्ट्रीय समस्या है। सुप्रसिद्धप्रगतिशील आलोचक और विचारक डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार यह ‘विशुद्ध भाषा-विज्ञान कीसमस्या’ नहीं बल्कि ‘बहुजातीय राष्ट्र के गठन और विकास की ऐतिहासिक-राजनीतिक समस्या’ है।
स्वाधीनता के तीन दशक बाद भी अगर यह समस्या ज्यों-की-त्यों बनी है तो सम्भवतः इसलिए कि उनकी तरह औरों ने भी इस समस्या को इसके वास्तविक और व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने का प्रयास नहीं किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में रामविलास जी ने भाषा-समस्या के विभिन्न पक्षों की विस्तार से चर्चा की है तथा इस बात पर बल दिया है कि सबसे पहले अंग्रेज़ी के प्रभुत्व को समाप्त करना आवश्यक है, क्योंकि वह भारत की सभी भाषाओं पर साम्राज्यवादियों द्वारा लादी हुई भाषा है। भारत की भाषा-समस्या के हल के लिए वह ‘अनिवार्य राष्ट्र-भाषा’ नहीं, बल्कि सम्पर्क भाषा की बात करते हैं जो हिन्दी ही हो सकती है। हिन्दी के जातीय स्वरूप की चर्चा के सन्दर्भ में वह यह स्पष्ट करते हैं कि हिन्दी और उर्दू में ‘बुनियादी एकता’ तथा हिन्दी की जनपदीय बोलियाँ परस्पर-सम्बद्ध हैं। भाषा-समस्या पर भारतीय जनता का सामाजिक और सांस्कृतिक भविष्य निर्भर करता है, इसलिए वह इसे आवश्यक मानते हैं कि ‘हम अपने बहुजातीय राष्ट्र की विशेषताएँ पहचानें, इस राष्ट्र में हिन्दी-भाषी जाति की भूमिका पहचानें।’
इस पुस्तक में दिए गए उनके अकाट्य तर्क समस्या को समझने की सही दृष्टि ही नहीं देते, समस्या-समाधान की दिशा में मन को आन्दोलित भी करते हैं।
Hindi Gitikavya Parampara Aur Miran
- Author Name:
Manju Tiwari
- Book Type:

-
Description:
मीरां को लेकर अनेक शोध हो चुके हैं लेकिन उनके गीति-काव्य के निकष पर अध्ययन-अनुशीलन की आवश्यकता अभी भी बनी हुई थी। इसके अलावा, मीरां के कृतित्व को लेकर अनेक मतभेद और विवाद भी चलते रहे हैं। उनके चारों ओर अलौकिकता का आवरण भी फैला हुआ है जिसकी वजह से मीरां के मूल्यांकन में एक बड़ी बाधा रहती आई है। मीरां के अनुशीलन में एक भारी समस्या मीरां पदावली के मूल पाठ की भी है। उन पर केन्द्रित आलोचना-ग्रन्थों के स्रोत प्राय: मीरां के लोक प्रचलित पद रहे हैं जिनके आधार पर किए जानेवाले विवेचन काफ़ी भ्रमपूर्ण बनते रहे हैं। इस अध्ययन में मीरां के पदों के मूल पाठ को आधार बनाया गया है। साथ ही इस बात पर भी ज़ोर दिया गया है कि मीरां के गीतों के सहज संगीत को भी आकलन का निकष बनाया जाए।
मीरां के गीतों की सांगीतिकता और राग-रागिनियों में गीतों के सफल नियोजन की बात सभी श्रेष्ठ संगीतकारों ने स्वीकार की है। उनके यहाँ शिल्प एवं शब्दगत अलंकरण के कोई आग्रह नहीं हैं। निश्छल और मधुर भावाभिव्यक्ति के कारण मीरां के गीतों का अपना एक विशिष्ट स्थान है। यह उनके गीतों का ही वैशिष्ट्य है कि सैकड़ों वर्षों के बाद आज भी वे लोक-कंठ में रचे-बसे हुए हैं। यह पुस्तक मीरां के जीवन और विशेष रूप से उनके कृतित्व को एक नई दृष्टि से देखने की प्रेरणा देती है।
Hindi Sahitya Aur Samvedana Ka Vikas
- Author Name:
Ramswaroop Chaturvedi
- Book Type:

-
Description:
हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने की क्या-क्या समस्याएँ हैं, इसे लेकर एकाधिक पुस्तकें लिखी जा सकती हैं, किसी रूप में लिखी भी गई हैं। कुछ लेखक-समूहों, मुख्यत: शोधकर्ताओं द्वारा इतिहास की सामग्री के संकलन प्रस्तुत हुए हैं, जो अपने आपमें उपयोगी हैं। पर नहीं लिखा गया तो इतिहास, रामचन्द्र शुक्ल और छायावाद के बाद। ऐसे चुनौती-भरे वातावरण में साहित्य और संवेदना के विकास को साथ-साथ व्याख्यायित करते चलना कितना कठिन है, यह सहज अनुमान किया जा सकता है।
किसी भी साहित्य के इतिहास की अच्छाई को जाँचने की दो कसौटियाँ हो सकती हैं। एक तो यह कि वह कहाँ तक, साहित्य की ही तरह, विविध पाठक-वर्गों की अपेक्षाओं की एक साथ पूर्ति करता है। और दूसरे यह कि वह साहित्य को उप-साहित्य से अलग करके चलता है या नहीं, विशेष रूप से एक ऐसे युग में जबकि संचार-माध्यम साहित्य के विविध सीमान्तों से टकरा रहे हैं। दूसरे शब्दों में कि वह इतिहास असल में कितनी दूर तक साहित्य का इतिहास है, इन कसौटियों पर परखकर प्रस्तुत अध्ययन की जाँच स्पष्ट ही आप स्वयं करेंगे। अपनी ओर से हम इतना अवश्य कहना चाहेंगे कि समूची साहित्य-प्रक्रिया की जैसी संवेदनशील समझ विकसित करने का यत्न यहाँ हुआ है वैसी ही विश्वसनीय तथ्य-सामग्री भी जुटाई गई है, जो अपने आपमें एक विरल संयोग है।
अब प्रस्तुत है ‘विकास’ का नया संवर्द्धित संस्करण। गत एक दशक में हुए विविध संस्करण जहाँ इस इतिहास की पाठक समाज में व्यापक स्वीकृति का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं, वहीं यह इस प्रयत्न का परिचायक है कि पुस्तक के कलेवर को बिना अनावश्यक रूप से स्फीत किए इस दशक की नई रचना-उपलब्धियों को कैसे समाविष्ट किया जा सकता है। यों ‘विकास’ अपने नामकरण को स्वत: प्रमाणित कर सके, यह इस नए संवर्द्धित संस्करण की, नई मुद्रण-शैली के साथ, प्रमुख विशेषता होनी चाहिए।
Rasraaj Virodh
- Author Name:
Rameshraaj
- Book Type:

- Description: आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ‘काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था’ नामक निबन्ध में कहते हैं - ‘‘लोक में फैली दुःख की छाया को हटाने में ब्रह्म की आनंद-कला जो शक्तिमय रूप धारण करती है, उसकी भीषणता में भी अद्भुत मनोहरता, कटुता में भी अपूर्व मधुरता, प्रचण्डता में भी गहरी आद्रता साथ लगी रहती है---यदि किसी ओर उन्मुख ज्वलंत रोष है तो दूसरी ओर करुण दृष्टि फैली दिखायी पड़ती है। यदि किसी ओर ध्वंस और हाहाकार है तो और सब ओर उसका सहगामी रक्षा और कल्याण है।’’ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबंध ‘काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था’ के उपरोक्त कथन के आधार पर यह तथ्य, सत्य हो जाते हैं कि काव्य को रसनीय मात्र वे भाव ही नहीं बनाते हैं, जो मधुर और कोमल होते हैं। ध्वंस और अत्याचार के वातावरण में प्रतिकार का जो स्वर मुखर होता है, उसकी गति करुणा से उत्पन्न होकर रक्षा और कल्याण की ओर जाती है, जिसके भीतर प्राणी की हर क्रिया, प्रतिक्रिया या अनुक्रिया अधर्म के प्रति असहमति की ऊर्जा बनकर आक्रोश का रूप धारण करती है। आहत मन के भीतर जब ‘आक्रोश’ स्थायित्व ग्रहण करता है तो इस स्थायी भाव का अनुभावन ‘विरोध’ के रूप में सामने आता है। ‘विरोध’ को एक नये रस के रूप में प्रस्तुत करना माना एक नये अनुभव से गुजरना है। लेकिन यह कार्य अटपटा या अतार्किक इसलिए नहीं है क्योंकि ‘‘केवल परम्परागत स्थायी भाव ही रसत्व को प्राप्त हो सकते हों, ऐसी बात नहीं है, तथाकथित संचारी भी रसत्व को प्राप्त हो सकते हैं। रुद्रट, उद्भट, आनंदवर्धन आदि अनेक आचार्यों ने इस बात को स्वीकार किया था। आचार्य भोज ने एक और कदम आगे बढ़ाया और कहा कि उनचास भावों के अतिरिक्त भी जो कुछ रसनीय है या बनने की सामर्थ्य रखता है, उसे रस कहा जा सकता है। इसी आधार पर उन्होंने रसों की संख्या का विस्तार भी किया।’’ [रस-सिद्धांत , डा.ऋषि कुमार चतुर्वेदी, पृष्ठ 119-120] अस्तु! नये काव्यरस ‘विरोध’ का रस-रूप वर्तमान यथार्थोंन्मुखी काव्य में अनेक रूप व प्रकारों में दृष्टिगोचर होता है।
Deshaj adhunikta
- Author Name:
Anupam Anand
- Book Type:

-
Description:
यहापि आधुनिक मूल्यों के प्रति हिन्दी साहित्य में पाई जानेवाली तीव्र चेतना पाश्चात्य प्रभावों से अधिक जुड़ी प्रतीत होती है, परन्तु क्या इन मूल्यों की जड़े अपने पारम्परिक साहित्य में नहीं थीं? क्या आदिकाल से प्रगतिवाद के पूर्व तक का सम्पूर्ण साहित्य आधुनिकता के चेतना से मुक्त था? क्या भक्तिकाल में निर्गुण-सगुण, आत्मा-परमात्मा, जड़-चेतन से परे सामाजिक चेतना का अभाव था? इन सभी प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के लिए हमें अत्यन्त गहराई से अपनी देशज बोलियों में रचे गए साहित्य का सूक्ष्म अवलोकन करना होगा। संवेदनात्मक स्तर पर इस साहित्य के अवलोकन के उपरान्त यहाँ प्रत्येक कवि व लेखक की रचना में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में आधुनिकता अवश्य पाई जाएगी ।
क्या तुलसी के राम साम्राज्यवाद विस्तार के लिए संघर्षरत रहते हैं? नहीं, तुलसी के राम बुराई पर अच्छाई को स्थापित करने के लिए संघर्षशील रहते हैं। इस रूप में यह संघर्ष आधुनिकता का सन्दर्भ है।
Sahitya Aur Bhartiya Ekta
- Author Name:
Shivshankari
- Book Type:

- Description: साहित्य और भारतीय एकता’ (निट् इंडिया थ्रू लिटरेचर) एक वृहत् आयोजन है। यह पुस्तक इस आयोजन का प्रथम खंड है, जिसे तमिल और अंग्रेज़ी के बाद अब हिन्दी में अनूदित किया गया है। ‘साहित्य और भारतीय एकता’ के माध्यम से लेखिका शिवशंकरी भारतीय संस्कृति तथा साहित्य के आधार पर देशवासियों को आपस में जोड़ना चाहती हैं। इस महान उद्यम की सफलता के लिए उन्होंने देश के अनेक प्रान्तों का भ्रमण किया, अनेक कलात्मक और सांस्कृतिक रूपों का अध्ययन किया, सम्बद्ध भारतीय भाषाओं के समृद्ध साहित्य का गहन अनुसंधान भी किया; साथ ही प्रत्येक भाषा से सम्बद्ध अनेक प्रमुख लेखक-लेखिकाओं के साथ साक्षात्कार भी किए, हर भाषा की उत्कृष्ट प्रतिनिधि साहित्यिक रचनाओं का चयन किया और इनका अति उत्तम भाषान्तर भी करवाया। लेखिका के यात्रा-संस्मरणों, साक्षात्कारों और प्रत्येक भाषा से सम्बद्ध साहित्यिक विचारों के इस समायोजन से प्रकट होती है एक अखंड एकता, साथ ही हमारे लेखकों और कवियों के द्वारा अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किए जानेवाले वह विचार भी इसमें शामिल हैं जो हमारे देश के सामने स्थित उग्र समस्याओं को रेखांकित करते हैं, जैसे—ग़रीबी, अज्ञान, वर्ग, वर्ण एवं स्त्री-पुरुष का भेदभाव, आधुनिकता की चुनौतियाँ, धार्मिक पुनरुत्थान, कट्टरवाद, अन्धविश्वास तथा असहिष्णुता, नैतिकता के प्रति अनादर, हिंसा एवं गांधी जी के मूल्यों का क्षरण। लेखिका का विश्वास है कि इस आयोजन के द्वारा लेखक अपनी रचनाओं के साथ बृहत् पाठक-समुदाय तक पहुँचकर इन समस्याओं के उन्मूलन में अपना योगदान कर पाएँगे। इस खंड में शिवशंकरी ने दक्षिण भारत पर ध्यान केन्द्रित करते हुए केरल, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु राज्यों एवं उनके साहित्य का अवलोकन किया है। इस खंड में समाहित 27 साक्षात्कार, लेखकों की साहित्यिक कृतियों के 25 उत्कृष्ट उद्धरण और उनमें व्यक्त विचार दक्षिण भारत में सृजनरत मनीषा का एक विश्वसनीय ब्योरा हिन्दी पाठकों के सम्मुख उपलब्ध कराएँगे।
Madhyakaleen Sant Kavi
- Author Name:
Naveen Nandwana
- Book Type:

-
Description:
मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन का स्वरूप अखिल भारतीय था। देश के अलग-अलग प्रान्तों और क्षेत्रों में सगुण भक्ति के साथ-साथ निर्गुणी संतों ने अपनी वाणियों के माध्यम से ईश्वर का गुणगान किया। वहीं दूसरी ओर तत्कालीन समाज और धर्म में विद्यमान रूढ़ियों, कुरीतियों और बुराइयों पर करारी चोट की। इन संतों ने एक ओर मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा का व्यापक प्रयास किया तो वहीं दूसरी ओर ऊँच-नीच, जाति-पाँति, छुआछूत और आडम्बरों के खिलाफ सशक्त आवाज उठाई।
उत्तर भारत में एक ओर जहाँ कबीर, रैदास, दादूदयाल और सुन्दरदास आदि संतों ने ईश्वर भक्ति का भाव जगाकर तत्कालीन समाज को दिशा दी, देश के विभिन्न प्रान्तों में अन्य संतों ने भी अपना अहम योगदान दिया। महाराष्ट्र के वारकरी और महानुभाव सम्प्रदाय के संतों ने भी भक्ति और सुधार की अलख जगाई, असम में शंकरदेव ने ज्ञान और भक्ति की अलख जगाई। राजस्थान में दादूदयाल और दादूपन्थ के संतों ने महनीय कार्य किया। राजस्थान की महिला संतों—दयाबाई और सहजो बाई ने भी ईश्वर भक्ति का गुणगान किया।
संत साहित्य मानव धर्म का साहित्य है। यह संसार के सभी मनुष्यों को ईश्वर की सृष्टि मानता है। अतः जाति आधारित भेदभावों का यहाँ कोई स्थान नहीं है। ...संत साहित्य सरलता एवं सहजता का साहित्य है। सभी संतों ने धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में व्याप्त रूढ़ियों एवं आडम्बरों का विरोध किया।
‘मध्यकालीन संत कवि’ पुस्तक में संत मत पर विचार होने के साथ-साथ मध्यकालीन संतों का स्मरण है। पुस्तक में संकलित आलेख संतों के जीवन पर प्रकाश डालने के साथ-साथ उनकी रचनाओं के वैशिष्ट्य का भी वर्णन करते हैं। विविध संतों पर केन्द्रित आलेख मध्यकालीन निर्गुण भक्ति साधना की परम्परा को समझाने में अपनी महती भूमिका रखते हैं।
Ramrajya Ki Katha
- Author Name:
Yashpal
- Book Type:

-
Description:
इस देश की जनता ने ब्रिटिश साम्राज्यशाही के शोषण और दासता से मुक्ति के लिए बहुत लम्बे समय तक संघर्ष किया है। भारत की जनता के इस संघर्ष का नेतृत्व भारतीय मुख्यतः राष्ट्रीय कांग्रेस के हाथ में था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व प्रकट तौर पर गांधी जी के हाथ में था, इसलिए कांग्रेस की नीति गांधीवाद के सत्य-अहिंसा के सिद्धान्तों के अनुकूल रही है। भारतीय जनता के संघर्ष का उद्देश्य कांग्रेसी राज बना देने के लिए गांधी जी ने उसे 'रामराज्य' का नाम दे दिया था। कांग्रेस के राज्य को रामराज्य का नाम देने का प्रयोजन था—भगवान राम को सत्य, न्याय और अहिंसा द्वारा अपने सभी दफ़्तरों, अदालतों और जेलों में ‘अहिंसा के अवतार’ गांधी जी के चित्र लटकाकर इन चित्रों के ही नीचे निराकुश और निस्संकोच रूप में धाँधली और दमन करना।
सम्भवतः कांग्रेसी सरकार गांधीवाद को सत्य प्रमाणित करने के लिए संसार को यह दिखाना चाहती रही कि रामराज्य की व्यक्तिगत स्वामित्व की और स्वामी वर्ग द्वारा दास वर्ग पर दया कर उसका पालन करने की नीति समाजवाद की अपेक्षा अधिक सत्य है।
Sahitya Ka Aatm-Satya
- Author Name:
Nirmal Verma
- Book Type:

-
Description:
हिन्दी के अग्रणी रचनाकार के साथ-साथ देश के श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों में गिने जानेवाले निर्मल वर्मा ने जहाँ हिन्दी को एक नई कथाभाषा दी वहीं एक नवीन चिन्तन भाषा के विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। उनका साहित्य और चिन्तन न केवल उत्तर-औपनिवेशिक समाज में मौजूद कुछ बहुत मौलिक प्रश्नों और चिन्ताओं को रेखांकित करता है, बल्कि एक लेखक की गहरी बौद्धिक और आध्यात्मिक विकलता को भी व्यक्त करता है। उनका चिन्तनपरक निबन्ध-साहित्य भारतीय परम्परा और पश्चिम की चुनौतियों के द्वन्द्व की नई समझ भी हमें देता है।
इतिहास और स्मृति उनके प्रिय प्रत्यय हैं। उनके चिन्तन में इतिहास के ठोस और विशिष्ट अनुभव हैं। उनका इतिहास-बोध बहुत को भुलाकर रचा-बसा बोध नहीं है बल्कि वह भूलने के षड्यंत्र को लगातार प्रतिरोध देता है जिसका मूलाधार स्मृति है। वहाँ परम्परा स्मृति का अंग भी है और इसे सहेजने-समझने का साधन भी।
भाषा के सवाल को निर्मल वर्मा साहित्य तक ही सीमित नहीं मानते। उनका मानना है कि एक पूरी संस्कृति के मर्म और अर्थों को सम्प्रेषित करने की सम्भावना उसके भीतर अन्तर्निहित है। वे सवाल उठाते हैं कि यदि हम वैचारिक रूप से स्वयं अपनी भाषा में सोचने, सृजन करने की सामर्थ्य नहीं जुटा पाते तो हमारी राजनैतिक स्वतंत्रता का क्या मूल्य रह जाएगा?
इस पुस्तक में उनके निबन्ध, कुछ प्रश्नोत्तर और विभिन्न पुरस्कारों को स्वीकार करते समय दिए गए वक्तव्य भी शामिल हैं।
Sahityamukhi
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

-
Description:
साहित्य में निबन्धों की अपनी एक विशिष्ट क़िस्म की प्रमुखता रही है। यही कारण है कि गद्य की इस तार्किक और बौद्धिक विवेचना वाली विधा में हिन्दी के कालजयी साहित्यकार रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के निबन्ध अपने उद्देश्य में आज भी ऐतिहासिक महत्त्व रखते हैं।
‘साहित्यमुखी’ साहित्य की विभिन्न विधाओं और समस्याओं को समर्पित चिन्तनपूर्ण निबन्धों का संग्रहणीय श्रेष्ठ संकलन है जिसमें शामिल कई निबन्ध दिनकर के ओजस्वी वक्ता होने के प्रमाण और मिसाल हैं।
इन पठनीय और मननीय निबन्धों में प्रस्तुत हैं–‘आधुनिकता और भारत-धर्म’, ‘कविता में परिवेश और मूल्य’, ‘आधुनिकता का वरण’, ‘साहित्य में आधुनिकता’, ‘युद्ध और कविता’ जिन पर दिनकर के चिन्तन-जन्य विचार हैं तो वहीं गांधी, निराला, केशवसुत, टाल्स्टाय, शेक्सपियर और इलियट के प्रति आदरांजलि के साथ विचारोत्तेजक निबन्ध ‘शीर्षकमुक्त चिन्तन’ भी संकलित है।
‘साहित्यमुखी’ दिनकर की एक विशिष्ट विचारप्रधान कृति है।
Hindi Web Sahitya
- Author Name:
Sunilkumar Lawate
- Book Type:

-
Description:
हिन्दी भाषा और साहित्य की विभिन्न वेबसाइट्स पर प्रकाशित साहित्य का यह पहला व्यवस्थित अनुसन्धान है। इसके अलावा इसमें कम्प्यूटर के उद्भव, वेबसाइटों के निर्माण और पोर्टल्स की बनावट आदि की बुनियादी जानकारी भी दी गई है। सीधे इंटरनेट पर प्रकाशित हिन्दी साहित्य का व्यापक परिचय देनेवाली यह पुस्तक ज्ञानभाषा के रूप में हिन्दी की क्षमता को भी रेखांकित करती है और इंटरनेट जैसे सर्वव्यापी मंच पर हिन्दी के नए उभरते भाषा-वैज्ञानिक स्वरूप को भी स्पष्ट करती है।
यह पुस्तक उन साहित्यकारों, समीक्षकों, अध्यापकों और रचनाकारों के लिए भी ‘आई ओपनर’ का काम करेगी जो अभी तक इंटरनेट से बचते आए हैं और उसकी क्षमता तथा उपयोगिता को नज़रअन्दाज़ करते रहे हैं। हिन्दी के प्रति उपयोजित प्रतिबद्धता (Applied Commitment) की भूमिका के प्रति आगाह कर यह पुस्तक हमें संगणकीय प्रयोग के लिए प्रोत्साहन भी देती है।
हिन्दी को विश्वभाषा के रूप में चिन्हित करती यह पुस्तक इसलिए भी अनूठी है कि इसमें एक भी मुद्रित सन्दर्भ नहीं है, जो है, सब ऑनलाइन बिब्लियोग्राफ़ी है।
Kavi Ka Akelapan
- Author Name:
Mangalesh Dabral
- Book Type:

-
Description:
कवियों के गद्य में कोई न कोई विशेषता तो होती होगी जो हम उसे अक्सर आम गद्य से अलग करके देखने की कोशिश करते हैं। वह विशेषता क्या हो सकती है? क्या कवि का बादल लिखना हम पर छाया कर जाता है? क्या कवि के बारिश लिखने से हम भीगने लगते हैं? कवि का प्रेम या ख़ून के बारे में कुछ लिखना हमें बेचैन करने लगता है? मंगलेश डबराल का गद्य पढ़ते हुए कितनी ही बार हम संवेदना के कई ऐसे बारीक़ उतार-चढ़ावों से गुज़र सकते हैं। मगर यह कहना कि उनका गद्य दरअसल उनकी कविता का ही एक आयाम है, इस गद्य की विशेषता को पूरा अनावृत नहीं करता। इससे गुज़रते हुए सबसे पहले तो यही लगता है कि यह गद्य क़तई महत्त्वाकांक्षी नहीं है। यह सिर्फ़ भाषा के स्तर पर आपको मोहित नहीं करता, बल्कि कविताओं और एक कवि के दूसरे कई सरोकारों की समाजशास्त्रीय और राजनीतिक विवेचना की गहराई इसे असली उठान देती है। उसमें अनुभव की गहराई, विचार की प्रतिबद्धता और शिल्प की सुन्दरता एक साथ बुनी हुई है।
‘कवि का अकेलापन’ दो हिस्सों में बँटा हुआ है। पहले हिस्से में मंगलेश अपने कुछ प्रिय कवियों की रचनाओं, उनकी पंक्तियों को खोलते हुए उनके अर्थ-स्तरों और उस भावभूमि तक पहुँचने की कोशिश करते हैं, जहाँ से वे पंक्तियाँ अवतरित हुई होंगी और ऐसा करते हुए वह अलग-अलग स्थितियों, विषयों और विचारों के सन्दर्भ में उस कवि के और साथ ही स्वयं अपनी सोच और कल्पना को उघाड़ते हैं। यह हमें एक साथ दो-दो कवियों के भीतरी लोक में समाहित काव्यात्मक स्पन्दन और विमर्श के संसार की अद्भुत छवियाँ दिखाता है। दूसरे हिस्से में कवि की बेतरतीब डायरी है। यह डायरी एक बेचैन व्यक्ति, एक आम नागरिक, एक पुत्र, एक दोस्त, एक संगीत-प्रेमी और इन सबसे थोड़ा ज़्यादा एक कवि के रूप में मंगलेश डबराल को हमारे सामने खोलने का काम करती है और अन्ततः हम यह सोचकर विस्मित हुए बिना नहीं रह पाते कि एक कवि अपने अकेलेपन में किस तरह अपने चारों ओर फैले दृश्यों, बदलावों, अदृश्य दबावों, विस्मृतियों, तकलीफ़ों की नज़र न आनेवाली वजहों और न जाने कितने ही दूसरे अमूर्तों की शिनाख़्त कर उन्हें मूर्त कर सकता है। अगर इसी किताब में प्रयुक्त शीर्षकों की मदद से कहा जाए तो यह ‘असमय के बावजूद’, ‘प्रसिद्धि के उद्योग’ और ‘बर्बरता के विरुद्ध’ एक कवि का ‘लौटते हुए पूर्णतर’ होते जाना है।
Aacharya Ramchandra Shukla Aur Hindi Aalochana
- Author Name:
Ramvilas Sharma
- Book Type:

-
Description:
डॉ. रामविलास शर्मा हिन्दी के उन गिने-चुने आलोचकों में हैं जिन्होंने साहित्य का मूल्यांकन एक सुनिश्चित जनवादी दृष्टिकोण के आधार पर किया है। बहुत स्पष्ट, सुलझे हुए विचारों के सहारे अपने विश्लेषण में वे कहीं भी भटकते नहीं हैं और आदि से अन्त तक तटस्थता को अपने हाथ से नहीं जाने देते। इसीलिए चाहे उनके सबसे प्रिय कवि निराला हों या आदर्श आलोचक रामचन्द्र शुक्ल, जहाँ भी उन्हें कोई दोष दिखाई दिया है, उसकी दो-टूक आलोचना करने से वे नहीं चूके हैं।
प्रस्तुत कृति रामविलास जी द्वारा की गई आलोचना की आलोचना है, और इसलिए कुछ लोगों के विचार से यह केवल एक छात्रोपयोगी चीज़ है; लेकिन स्वयं रामविलास जी के शब्दों में, ‘‘शुक्लजी ने न तो भारत के रूढ़िवाद को स्वीकार किया, न पच्छिम के व्यक्तिवाद को। उन्होंने बाह्य-जगत् और मानव-जीवन की वास्तविकता के आधार पर नए साहित्य-सिद्धांतों की स्थापना की और उनके आधार पर सामन्ती साहित्य का विरोध किया और देशभक्ति और जनतंत्र की साहित्यिक परम्परा का समर्थन किया। उनका यह कार्य हर देश-प्रेमी और जनवादी लेखक तथा पाठक के लिए दिलचस्प होना चाहिए। शुक्ल जी पर पुस्तक लिखने का यही कारण है।’’
एक लम्बे अन्तराल के बाद इस महत्त्वपूर्ण आलोचना-कृति का यह संशोधित-परिवर्धित संस्करण शुक्लजी के अध्ययन के लिए एक नई दृष्टि देता है, जिससे स्पष्ट हो सकेगा कि ‘शुक्लजी अपने युग के हिन्दी-अहिन्दी विचारकों से कितना आगे थे और उनकी विचारधारा कितनी वैज्ञानिक है।’
Dharm Nirpekshta Banam Rashtriya Sanskriti
- Author Name:
Kuber Nath Rai
- Book Type:

-
Description:
धर्मनिरपेक्षता बनाम राष्ट्रीय संस्कृति के अधिकतर निबन्ध समय, समाज साहित्य अर्थात् समग्र जीवन के वास्तविक सौन्दर्य के अन्वेषण में संलग्न हैं।
श्री राय भारतीय दर्शन, संस्कृति, साहित्य के प्रति भरपूर सम्मान भाव रखते हैं। देशबोध और मैथिली शरण गुप्त शीर्षक निबन्ध में वे देशबोध अर्थात् भारतबोध की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं। यह बोध दम, त्याग और अप्रमाद पर आधारित है और कतई संकीर्ण नहीं है।
राजनीतिक मुद्दे हों, इतिहास के सवाल हों या साहित्य-विवेचन; इन सभी गम्भीर विषयों में श्री राय के बहु-पठित और गम्भीर विश्लेषक होने का प्रमाण मिलता है। भारत-बोध या देशप्रेम के आसपास विचरण करती उनकी चिन्तना अनेक पूर्वग्रहों का सतर्क उन्मूलन करती है। यह सत्य है कि धर्मनिरपेक्षता बनाम राष्ट्रीय संस्कृति के कई निबन्धों में वैचारिक गरिष्ठता अधिक है फिर भी मौलिक स्थापनाओं के चलते वे पठनीय बने रहते हैं। आज के संक्रमणशील यथार्थ और वैचारिक द्वन्द्व को समझने और वांछित सन्देश सम्प्रेषित करने में वे प्रासंगिक हैं। श्री राय के ये निबन्ध विस्मृति के आखेट बने रह जाते हैं। इन निबन्धों से असहमति की गुंजाइश कम नहीं है लेकिन श्री राय की अध्ययनशीलता, तर्कपूर्ण विश्लेषण, मौलिक वैचारिकता की उपेक्षा सम्भव नहीं है। श्री राय ने लोक साहित्य और संस्कृत वाङ्मय का बहुत सहारा न लेते हुए अपने ललित निबन्धों का जो विशेष मुहावरा गढ़ा था, वह इन रचनाओं में भी अपनी ऊर्जा और दीप्ति के साथ वर्तमान है।
डॉ. वेदप्रकाश 'अमिताभ'
Premchand Ke Shreshth Nibandh
- Author Name:
Premchand
- Book Type:

-
Description:
इस पुस्तक में संकलित निबन्धों और लेखों से प्रेमचन्द के दृष्टिकोण को समझने में, उनकी रचनाओं को विवेचित करने में न केवल मदद मिलेगी, बल्कि प्रेमचन्द के समय को भी परिभाषित करने में सुविधा होगी।
आज़ादी या स्वाधीनता का क्या अर्थ प्रेमचन्द समझते थे और राजनैतिक हलकों में उन्हें क्या दीख रहा था, इसमें काफ़ी फ़र्क़ है। लेखों को पढ़कर उस फ़र्क़ को पहचाना जा सकता है। उनकी रचनाओं से उनकी तुलना की जा सकती है।
नवजागरणकालीन अन्य रचनाकारों की तरह से वे समग्र चेतना के रचनाकार थे। उनकी भाषा का तेवर और वाक्य-विन्यास अंग्रेज़ी वाक्य-विन्यास का हिन्दी रूपान्तर नहीं है, बल्कि कौम के मानसिक विकास का कायान्तरण है। भाषा रुकी हुई या बाधा डालनेवाली अपारदर्शी नहीं, पारदर्शी है। वे अपरिचित को भी पारिवारिक और परिचित की तरह प्रस्तुत करते हैं। वस्तुपरक, विषय-प्रधान लेखों में भी गहरी आत्मीयता है, अलगाव नहीं है। इसलिए वे हमारे पूर्वज ही नहीं, समकालीन हैं।
Bharat Ke Pracheen Bhasha Pariwar Aur Hindi : Vols. 1-3
- Author Name:
Ramvilas Paswan
- Book Type:

-
Description:
भारतीय भाषाओं का आपस में बहुत गहरा रिश्ता है। आर्य, द्रविड़, कोल और नाग—भारत के इन चारों मुख्य भाषा-परिवारों में कई ऐसी भाषाएँ हैं जिन पर बहुत कम बातचीत हुई है, जबकि आधुनिक भारतीय भाषाओं के आपसी सम्बन्धों को जानने के लिए यह कार्य अत्यावश्यक है। दूसरे शब्दों में—आर्य, द्रविड़, कोल और नाग भाषा-परिवारों के अन्तर्गत कम परिचित जितनी भाषाएँ हैं, उनका वैज्ञानिक अध्ययन आम प्रचलित भाषाओं के सम्बन्धों की सही पहचान कराने में सक्षम होगा। साथ ही भारतीय भाषा-परिवारों का विश्व के ग़ैर-भारतीय भाषा-परिवारों से क्या सम्बन्ध है, इसकी भी गहरी पहचान सम्भव होगी। भारतीय भाषाओं के वैज्ञानिक अध्ययन के इसी महत्त्व को रेखांकित करते हुए सुविख्यात समालोचक डॉ. रामविलास जी ने यह कालजयी शोध-कृति प्रस्तुत की थी।
तीन खंडों में प्रकाशित इस ग्रन्थ का यह प्रथम खंड है, जिसमें उन्होंने हिन्दीभाषी क्षेत्र की बोलियों का गहन अध्ययन किया, और हिन्दी तथा सम्बद्ध बोलियों के विकास को प्राचीन आर्य कबीलाई भाषाओं के साथ रखा-परखा है। भाषाविज्ञान पर एक अप्रतिम और युगान्तरकारी ग्रन्थ।
Customer Reviews
0 out of 5
Book
Be the first to write a review...