Kamayani : Ek Punarvichar
Author:
Gajanan Madhav MuktibodhPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 476
₹
595
Available
‘कामायनी : एक पुनर्विचार’, समकालीन साहित्य के मूल्यांकन के सन्दर्भ में, नए मूल्यों का ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। उसके द्वारा मुक्तिबोध ने पुरानी लीक से एकदम हटकर प्रसाद जी की ‘कामायनी’ को एक विराट फ़ैंटेसी के रूप में व्याख्यायित किया है, और वह भी इस वैज्ञानिकता के साथ कि उस प्रसिद्ध महाकाव्य के इर्द-गिर्द पूर्ववर्ती सौन्दर्यवादी-रसवादी आलोचकों द्वारा बड़े यत्न से कड़ी की गई लम्बी और ऊँची प्राचीर अचानक भरभराकर ढह जाती है।</p>
<p>मुक्तिबोध द्वारा प्रस्तुत यह पुनर्मूल्यांकन बिलकुल नए सिरे से ‘कामायनी’ की अन्तरंग छानबीन का एक सहसा चौंका देनेवाला परिणाम है। इसमें मनु, श्रद्धा और इडा जैसे पौराणिक पात्र अपनी परम्परागत ऐतिहासिक सत्ता खोकर विशुद्ध मानव-चरित्र के रूप में उभरते हैं और मुक्तिबोध उन्हें इसी रूप में आँकते और वास्तविकता को पकड़ने का प्रयास करते हैं। उन्होंने वस्तु-सत्य की परख के लिए अपनी समाजशास्त्रीय ‘आँख’ का उपयोग किया है और ऐसा करते हुए वह ‘कामायनी’ के मिथकीय सन्दर्भ को समकालीन प्रासंगिकता से जोड़ देने का अपना ऐतिहासिक दायित्व निभा पाने में समर्थ हुए हैं।</p>
<p>‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ व्यावहारिक समीक्षा के क्ष्रेत्र में एक सर्वथा नवीन विवेचन-विश्लेषण-पद्धति का प्रतिमान है। यह न केवल ‘कामायनी’ के प्रति सही समझ बढ़ाने की दिशा में नई दृष्टि और नवीन वैचारिकता जगाता है, बल्कि इसे आधार-ग्रन्थ मानकर मुक्तिबोध की कविता को और उनकी रचना-प्रक्रिया को भी अच्छे ढंग से समझा जा सकता है।
ISBN: 9788171789795
Pages: 168
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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चन्द्रकान्त देवताले की सर्जनात्मकता बहुआयामी और विविधवर्णी है। उसे पढ़ते हुए, उस पर किसी एकरैखिक सार की तरह सोचना, सम्भव ही नहीं हो पाता। ख़ासकर तब, जब पाठक उसे अपने आस्वाद और अनुभव की उत्कट निजता में पढ़ रहा हो। वह सुझाने, रिझाने या समझाने-बुझाने वाली कविता से भिन्न, अन्तरात्मिक और ऐन्द्रिक अनुभूति की एक ऐसी कविता है, जो अपनी लयात्मक विविधता से, सामान्य शब्दों, रोज़मर्रा की घटनाओं, स्थिरबुद्धि, सीमित विचारों और आधुनिक तथा प्राचीन काव्य-संस्कारों का कायाकल्प करती सी लगती है। उसे पढ़ने के दौरान, मैं यह लगातार महसूस करता रहा हूँ, कि ठंडी वस्तुपरकता के साथ, उस पर विचार करना मेरे लिए कभी सम्भव नहीं हो पाता है। इस अर्थ में, इन निबन्धों को आत्मपरक निबन्ध ही कहा जा सकता है। ये निबन्ध, एक ऐसे कवि के रचना-संसार से जुड़े हैं, जो असम्भव आत्मविस्तार के निरन्तर प्रयत्नों का कवि है। इसलिए इन निबन्धों में भी, आस्वादक आत्म की दुनिया से कहीं, बहुत बड़ी और गतिमान दुनिया गतिशील है।
चन्द्रकान्त देवताले स्वभाव-कवि है। कविता उसके अस्तित्व का अविभाज्य हिस्सा है। उसकी कविता के संस्कार और उसके जीवन के संस्कार भी, हिन्दी की देशज कविता और लोकजीवन के संस्कार हैं। यही नहीं, उसकी कविता में प्राय: सर्वत्र सक्रिय प्रकृति भी, उसकी सर्जनात्मकता के देशज संस्कारों को ही जीवित करती है। उसकी कविता के रचाव में आदिमता और देशज आधुनिकता की अनुगूँजें ही नहीं, बल्कि मानवीय और पारिवारिक रिश्तों की एक गझिन दुनिया है।
चन्द्रकान्त देवताले पर लिखे गये इन निबन्धों में मैंने इस बात की कोशिश की है कि अपने आस्वाद के अनुभवों को इस तरह लिख सकूँ, कि उनकी रचना के मुक्त विन्यास को, पाठक अपनी तरह से पढ़ने का खुला अवकाश पा सकें।
—प्रस्तावना से
''आलोचना सच्चा-गहरा साहचर्य भी होती है। हिन्दी कवि चन्द्रकान्त देवताले और कवि-आलोचक प्रभात त्रिपाठी सिर्फ़ कविता में सहचर नहीं थे, मुक्तिबोध को लेकर सहचर-पाठक नहीं थे, वे कई बरस भौतिक रूप से साथ रहे थे। यह पुस्तक उस साहचर्य का किंचित् विलम्बित प्रतिफल है। हमें विश्वास है कि चन्द्रकान्त देवताले की कविता को समझने में इसकी निर्णायक भूमिका होने जा रही है। रज़ा पुस्तक माला में इसे प्रस्तुत करते हुए हमें प्रसन्नता है।’’
—अशोक वाजपेयी
Aalochana Ke Pratyay Itihas Aur Vimarsh
- Author Name:
Kanhaiya Singh
- Book Type:

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Description:
आलोचक किसी कृति के सौन्दर्य-विमर्श में उसके मर्म से लेकर उसके रूप-विन्यास, शब्द संयोजन, अलंकृति आदि तत्त्वों की तलाश में एक नई सृष्टि का सर्जना करता है। संस्कृत में एक उक्ति है :
पंडित या आलोचक ही काव्य के रस को जानता है और 'रस' में ही सौन्दर्य और लावण्य है। काव्य-रस या काव्य-सौन्दर्य का भोक्ता तो कोई भी सहृदय पाठक होता है पर उसका विशिष्ट भोक्ता और उस भोज्य को पचाकर उसके सौन्दर्य की वस्तु-व्यंजना से लेकर उसकी बारीक अन्तरंग परतों को उद्घाटित करने का काम आलोचक करता है। आलोचना में प्रचलित समाज-विमर्श, मनोविमर्श, दलित-विमर्श, नारी-विमर्श आदि सभी विमर्शों का केन्द्रीय तत्त्व सौन्दर्य-विमर्श ही है।
भारतीय कला-दृष्टि, रस-दृष्टि रही है। यह दृष्टि भाववादी दृष्टि ही नहीं, महाभाववादी दृष्टि है। यह महाभाव ही हमारी आलोचना के आर्ष चिन्तन से लेकर अद्यतन वैचारिकी का केन्द्र बिन्दु है। हमने प्रत्यक्ष गोचर से लेकर उसमें अन्तर्निहित सूक्ष्म चेतन सौन्दर्य का विशेष चिन्तन किया। उपनिषद में ‘सत्यधर्म’ के प्रसंग में कहा गया है कि बाह्य जगत सुन्दर तो है, पर उस सुन्दर स्वर्णपात्र की आभा के आवरण के भीतर सत्यधर्म का प्रभावमय सूर्य छिपा है।
Hindi : Aakansha aur Yatharth
- Author Name:
Shrinarayan Sameer
- Book Type:

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Description:
हमारी सभ्यता चाहे जितनी विकसित हो जाए, इलेक्ट्रॉनिक संवाद (SMS) का स्वरूप चाहे जितना लघुतम बन जाए, परम्परा, परिवर्तन और प्रगति के लक्षणों, विचारों तथा संकल्पनाओं को व्यक्त करने का माध्यम भाषा ही रहेगी। इसलिए भाषा से जुड़े प्रश्न, यक्ष-प्रश्न की तरह हर देश और काल में ध्यान आकृष्ट करते हैं और करते रहेंगे। भाषाओं के विपुल और बहुरंगे संसार में हिन्दी की सहजता, सर्वग्राहिता और सामूहिकता वाली भावना उसे विलक्षण बनाती है और इन्हीं की बदौलत यह दूसरे भाषा-भाषियों को भी प्रीतिकर लगती है। हिन्दी के व्यापक प्रसार का यही मूल कारण है।
भूमंडलीकरण और सूचनाक्रान्ति के मौजूदा दौर में भी यह सच ग़ौर करने लायक़ है कि हिन्दी का जो भाषा-रूप पहले मात्र बोलचाल तक सीमित था और स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों में राजनीतिक आलोड़न से जुड़कर लोक का कंठहार बना, वह अब प्रशासनिक, वाणिज्यिक, तकनीकी, मीडिया आदि प्रयोजनमूलक स्वरूप में भी निखर आया है। इस पुस्तक के निबन्ध हिन्दी की इसी बहुविध और व्यापक शक्ति तथा सामर्थ्य को लेकर जिरह करते हैं। इस जिरह में हक़ीक़त और फ़साने, अस्ल और ख़्वाब तथा बहुत कुछ कहे-बुने गए हैं। और यही है हिन्दी की आकांक्षा और हिन्दी का यथार्थ जो भूमंडलीकरण और सूचनाक्रान्ति के लाख दबावों के बावजूद जस-का-तस है, बल्कि पुनर्नवा है और निरन्तर प्रसार पा रहा है।
हिन्दी भाषा के इस अस्ल और ख़्वाब को लेकर डॉ. श्रीनारायण समीर ने इस किताब में विमर्श का जो ठाठ खड़ा किया है, वह क़ाबिले-तारीफ़ है, क़ायल करता है और हिन्दी के प्रशस्त भविष्य की प्रस्तावना रचता है।
Hindi Ka Manak Vyakaran
- Author Name:
Surendra Narayan Yadav
- Book Type:

- Description: ठीक ही तो कहा है दोस्तोयेव्स्की ने—“कोई विषय कभी इतना पुराना नहीं होता कि अब उस पर कुछ नया कह पाना सम्भव ही नहीं हो।” नाना व्याकरण-सम्मत होना इस पुस्तक की मुख्य विशेषता नहीं है। इसमें जो ‘क्वचित् अन्योपि’ है, वही इसके नयेपन और महत्त्वपूर्ण होने का आधार है। कारण-कार्य सिद्धान्त पर रचे इस व्याकरण में ‘अन्वयमुख’ और ‘व्यतिरेक मुख’ कथन का सुप्रयोग करते हुए व्याकरणिक अवधारणाओं का गम्भीर और समग्र विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास परिलक्षित है। हिन्दी, चूँकि एक अलग भाषिक संरचना है, इसलिए उसे संस्कृत और अंग्रेजी के डंडे से नहीं चलाया जा सकता। हिन्दी का अपना यथार्थ उसके लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इस कारण संस्कृत अथवा अंग्रेजी का सिद्धान्त और व्यवहार उसके निर्धारणों का आधार कतई नहीं हो सकता। लेखक की नजर में हिन्दी एक बहुत ही वैज्ञानिक भाषा है। इसमें अपवादों का अत्यन्त सीमित अवसर है। जो हैं भी वे कतई अकारण नहीं हैं। अतः कारणों की तथ्यपरक गम्भीर पड़ताल इस पुस्तक में है। ‘पाण्डित्यः परिच्छेदम्’, ‘विशेषदर्शित्व’, रूपभेद से अर्थभेद और अर्थभेद के लिए रूपभेद आदि इसकी वैज्ञानिकता के ही आयाम हैं। इनका सम्यक्-सुप्रयोग न किये जाने से ही हिन्दी के रूप गड्ड-मड्ड-से हो गये हैं। फलतः हिन्दी में मानकीकरण की गम्भीर समस्या पैदा हो गयी है। हिन्दी की समस्त व्याकरणिक समस्याओं पर यह पुस्तक इन्द्र, बृहस्पति, यास्क, पाणिनि, पतंजलि और भर्तृहरि से लेकर कामताप्रसाद गुरु, पंडित किशोरीदास वाजपेयी और बदरीनाथ कपूर तक की ज्ञान-परम्परा को दृष्टिपथ में रखकर विशद समग्रता के साथ विचार करती है। इसके द्वारा निर्धारित किये गये मानक ‘परिच्छेद’ और ‘विशेषदर्शित्व’ के अभिनव उदाहरणों को प्रस्तुत करते हैं। अस्तु, यह पुस्तक पठनीय तो है ही, आचरणीय भी है।
Shreshth Lalit Nibandh : Vol. 1
- Author Name:
Krishna Bihari Mishra
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यह धारणा श्लाघा का अतिरेक नहीं है कि हिन्दी की ललित निबन्ध-विधा समर्थ-समृद्ध विधा है। हिन्दी निबन्ध का चयन इस विवेक से किया गया है कि प्रत्येक विचारसरणि और प्रत्येक पीढ़ी के रचनाकारों की शिल्प-संवेदना का समुचित प्रतिनिधित्व हो सके। समग्रता का दावा मैं नहीं करता, नम्रतापूर्वक इतना ही निवेदन करना चाहता हूँ कि रम्य रचना के रसज्ञों को यह संकलन हिन्दी की व्यक्तिव्यंजक निबन्ध-परम्परा का एक संक्षिप्त किन्तु प्रामाणिक परिचय दे सकेगा।
—कृष्ण बिहारी मिश्र
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