Vinayak Damodar Savarkar
Author:
Raghuvendra TanwarPublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
Awating description for this book
ISBN: 9789351868903
Pages: 104
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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बीसवीं शताब्दी में खड़ी बोली का काव्य इतना समृद्ध हो गया है कि उसे संसार के किसी भी सभ्य देश के काव्य की तुलना में रखा जा सकता है। इस युग में विभिन्न साहित्यिक वादों और आन्दोलनों का प्रचार हुआ, इस युग ने हमें प्रथम श्रेणी के अनेक महाकाव्य और खंड-काव्य दिए और इसी युग में एक ओर गीति-काव्य और दूसरी ओर मुक्त छंद का ऐसा प्रसार हुआ, जिसकी समता अतीत के सम्पूर्ण इतिहास में नहीं मिलती। अत: समय की माँग है कि आधुनिक काव्य के भावगत एवं कलागत सौन्दर्य का लेखा-जोखा अब लिया जाए।
औद्योगीकरण एवं उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव केवल निम्न वर्ग पर ही नहीं, बल्कि उसकी गिरफ़्त में सम्पूर्ण मानवीय समाज है। धर्म की अमानवीय व्याख्या स्वार्थपरकता, अर्थलोलुपता, विज्ञान के द्वारा विकसित विनाश के विभिन्न साधन आदि के कारण सम्पूर्ण मनुष्यता के लिए ही संकट पैदा हुआ। मनुष्य का बचना बहुत प्राथमिक है। अभी भी मनुष्य जीवन और मृत्यु के अनेक प्रश्नों से टकरा रहा है। परिवर्तन की गति इतनी तेज है कि यह आशंका होने लगती है कि मनुष्य की पहचान करानेवाले लक्षण ही न लुप्त हो जाएँ। अशोक वाजपेयी ऐसे रचनाकार हैं जो मनुष्यता के व्यापक प्रश्नों से टकराते हैं और नई परिस्थितियों में मानवीय सभ्यता को रचना के माध्यम से स्थापित करते हैं।
नयी कविता से जुड़े अनेक कवियों ने अपनी निजी अनुभूति और शिल्प के द्वारा रचनात्मक ऊँचाई हासिल की, उनकी रचनाधर्मिता को काव्यधारा के दायरे में पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता है, बल्कि उनका अलग-अलग विवेचन अपेक्षित है।
इस ग्रन्थ में भारतेन्दु से लेकर अरुण कमल तक ऐसे चौवालीस प्रतिनिधि कवियों के काव्य का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है जिनका साहित्य के इतिहास में विशेष महत्व है और जिन्होंने अपनी साधना से अपने व्यक्तित्व की छाप इस युग पर किसी न किसी रूप में छोड़ी है।
Sahitya Aur Samaj
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

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‘साहित्य और समाज’ समर्थ साहित्यकार, ओजस्वी वक्ता और प्रखर चिन्तक रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के साहित्य की विभिन्न विधाओं और समस्याओं को समर्पित चिन्तनपूर्ण अठारह निबन्धों का संकलन है।
यह पुस्तक यहाँ एक तरफ़—‘परम्परा और भारतीय साहित्य’, ‘साहित्य पर विज्ञान का प्रभाव’, ‘साहित्य में आधुनिकता’, ‘समाजवाद के अन्दर साहित्य’, ‘साहित्य का नूतन ध्येय’, ‘कलाकार की सफलता’, ‘भविष्य के लिए लिखने की बात’, ‘लेखकों का कार्य-शिविर’, ‘हिन्दी साहित्य पर गांधी जी का प्रभाव’, ‘पाकिस्तान के पीछे साहित्य की प्रेरणा’, ‘श्री अरविन्द की साहित्यिक मान्यताएँ’, ‘जार्ज रसल का साहित्य-चिन्तन’ आदि निबन्धों द्वारा समाज और साहित्य पर प्रकाश डालती है तो दूसरी तरफ़ ‘अर्धनारीश्वर’, ‘कला’, ‘धर्म और विज्ञान’, ‘आउट-साइडर’, ‘रवीन्द्रनाथ की राष्ट्रीयता और अन्तरराष्ट्रीयता’, ‘क्या रवीन्द्रनाथ अभारतीय हैं?’, ‘महात्मा टॉलस्टॉय’ जैसे विषयों पर दिनकर जी के गम्भीर चिन्तन को भी हमारे सम्मुख लाती है।
पठनीय और मननीय निबन्धों से सुसज्जित यह पुस्तक राष्ट्रकवि दिनकर के चिन्तक स्वरूप को उद्घाटित करनेवाली एक श्रेष्ठ बौद्धिक कृति है।
Sahitya Aur Samiksha
- Author Name:
Rajnath
- Book Type:

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Description:
‘साहित्य और समीक्षा’ में किसी एक लेखक या आलोचक के कृतित्व पर विचार नहीं किया गया है। लेखक ने इस पुस्तक में साहित्य और समालोचना से जुड़ी कुछ ऐसे बिन्दुओं और समस्याओं पर विचार किया है जो किसी भी भाषा के साहित्य को समझने के लिए जरूरी हैं। राजनाथ अंग्रेजी साहित्य और पाश्चात्य साहित्य-आलोचना के मर्मज्ञ विद्वान हैं। पाश्चात्य साहित्य-समीक्षा के सन्दर्भ में लिखे गए उनके ये लेख साहित्य के अध्ययन, अध्यापन और विश्लेषण के विभिन्न आयामों पर विचार करते हैं।
पुस्तक में संकलित समीक्षात्मक निबंधों में साहित्य के विश्लेषण और मूल्यांकन पर सर्वाधिक बल दिया गया है। साहित्य, सिद्धान्त और आलोचना के क्षेत्र में काम करने वाले अध्येताओं के अलावा शोधार्थियों, अध्यापकों और छात्रों के लिए भी यह एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक साबित होगी।
Hindi : Aakansha aur Yatharth
- Author Name:
Shrinarayan Sameer
- Book Type:

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Description:
हमारी सभ्यता चाहे जितनी विकसित हो जाए, इलेक्ट्रॉनिक संवाद (SMS) का स्वरूप चाहे जितना लघुतम बन जाए, परम्परा, परिवर्तन और प्रगति के लक्षणों, विचारों तथा संकल्पनाओं को व्यक्त करने का माध्यम भाषा ही रहेगी। इसलिए भाषा से जुड़े प्रश्न, यक्ष-प्रश्न की तरह हर देश और काल में ध्यान आकृष्ट करते हैं और करते रहेंगे। भाषाओं के विपुल और बहुरंगे संसार में हिन्दी की सहजता, सर्वग्राहिता और सामूहिकता वाली भावना उसे विलक्षण बनाती है और इन्हीं की बदौलत यह दूसरे भाषा-भाषियों को भी प्रीतिकर लगती है। हिन्दी के व्यापक प्रसार का यही मूल कारण है।
भूमंडलीकरण और सूचनाक्रान्ति के मौजूदा दौर में भी यह सच ग़ौर करने लायक़ है कि हिन्दी का जो भाषा-रूप पहले मात्र बोलचाल तक सीमित था और स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों में राजनीतिक आलोड़न से जुड़कर लोक का कंठहार बना, वह अब प्रशासनिक, वाणिज्यिक, तकनीकी, मीडिया आदि प्रयोजनमूलक स्वरूप में भी निखर आया है। इस पुस्तक के निबन्ध हिन्दी की इसी बहुविध और व्यापक शक्ति तथा सामर्थ्य को लेकर जिरह करते हैं। इस जिरह में हक़ीक़त और फ़साने, अस्ल और ख़्वाब तथा बहुत कुछ कहे-बुने गए हैं। और यही है हिन्दी की आकांक्षा और हिन्दी का यथार्थ जो भूमंडलीकरण और सूचनाक्रान्ति के लाख दबावों के बावजूद जस-का-तस है, बल्कि पुनर्नवा है और निरन्तर प्रसार पा रहा है।
हिन्दी भाषा के इस अस्ल और ख़्वाब को लेकर डॉ. श्रीनारायण समीर ने इस किताब में विमर्श का जो ठाठ खड़ा किया है, वह क़ाबिले-तारीफ़ है, क़ायल करता है और हिन्दी के प्रशस्त भविष्य की प्रस्तावना रचता है।
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