Nirala Ka Gadya Sahitya Aur Swadhinta Ki Chetna
Author:
Nandita SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 280
₹
350
Available
प्रस्तुत कृति ‘निराला का गद्य साहित्य और स्वाधीनता की चेतना' उनके मुक्त सर्जक व्यक्तित्व के विश्लेषण का एक मौलिक प्रयास है। मौलिक इस अर्थ में कि अभी तक आलोचक निराला के मुक्तिकामी काव्य व्यक्तित्व का ही विश्लेषण करते हुए उनकी हिन्दी सर्जन विचार के श्रेष्ठतम रचनाकारों की निर्मिति के प्रति ही सजग रहे हैं। निराला का सर्जक व्यक्तित्व एवं उनकी गद्य रचना की विधाएँ अभी तक अधूरी तथा अविश्लेषित पड़ी थीं। इस कृति का मूल मन्तव्य यही रहा है कि निराला के गद्य की विविध विधाओं, यथा—उपन्यास, कथा-साहित्य, निबन्ध आदि से सम्बद्ध कृतियों में उनकी अपनी मौलिकताएँ क्या रही हैं उसे रेखांकित किया जाए? निराला का सर्जक व्यक्तित्व प्रकृत्या तथा संस्कारत: मुक्तिकामी रहा है। उनके गद्य साहित्य में संस्कारत: पूरी तरह से व्याप्त उनकी मुक्तिकामिता का विश्लेषण कैसे किया जाए, इस कृति के लेखन का मुख्य प्रयोजन <br />है।</p>
<p>निष्कर्ष रूप से हम कह सकते हैं कि यह शोध-कृति मुक्तिकामी निराला के व्यक्तित्व की पूरी तरह से पहचान कराते हुए उनके गद्य सर्जक व्यक्तित्व के विविध आयामों के विश्लेषणों की पहचान से सम्बद्ध है।
ISBN: 9788180317101
Pages: 172
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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गुजराती आदि भारतीय भाषाएँ एक विस्तृत सेमिओटिक नेटवर्क अर्थात् संकेतन-अनुबन्ध-व्यवस्था का अन्य-समतुल्य हिस्सा हैं। मूल बात ये है कि विशेष को मिटाए बिना सामान्य अथवा साधारण की रचना करने की, और तुल्य-मूल्य संकेतकों से बुनी हुई एक संकेतन-व्यवस्था रचने की जो भारतीय क्षमता है, उसका जतन होता रहे। राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय राज्यसत्ता, उपभोक्तावाद को बढ़ावा देनेवाली, सम्मोहक वाग्मिता के छल पर टिकी हुई धनसत्ता एवं आत्ममुग्ध, असहिष्णु विविध विचारसरणियाँ/आइडियोलॉजीज़ की तंत्रात्मक सत्ता, आदि परिबलों से शासित होने से भारतीय क्षमता को बचाते हुए, उस का संवर्धन होता रहे। गुजराती में से मेरे लेखों के हिन्दी अनुवाद करने का काम सरल तो था नहीं। गुजराती साहित्य की अपनी निरीक्षण परम्परा तथा सृजनात्मक लेखन की धारा बड़ी लम्बी है और उसी में से मेरी साहित्य तत्त्व-मीमांसा एवं कृतिनिष्ठ तथा तुलनात्मक आलोचना की परिभाषा निपजी है। उसी में मेरी सोच प्रतिष्ठित (एम्बेडेड) है। भारतीय साहित्य के गुजराती विवर्तों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जाने बिना मेरे लेखन का सही अनुवाद करना सम्भव नहीं है, मैं जानता हूँ। इसीलिए इन लेखों का हिन्दी अनुवाद टिकाऊ स्नेह और बड़े कौशल्य से जिन्होंने किया है, उन अनुवादक सहृदयों का मैं गहरा ऋणी हूँ। ये पुस्तक पढ़नेवाले हिन्दीभाषी सहृदय पाठकों का सविनय धन्यवाद, जिनकी दृष्टि का जल मिलने से ही तो यह पन्ने पल्लवित होंगे।
—सितांशु यशश्चन्द्र (प्रस्तावना से)
''हमारी परम्परा में गद्य को कवियों का निकष माना गया है। रज़ा पुस्तक माला के अन्तर्गत हम इधर सक्रिय भारतीय कवियों के गद्य के अनुवाद की एक सीरीज़ प्रस्तुत कर रहे हैं। इस सीरीज़ में बाङ्ला के मूर्धन्य कवि शंख घोष के गद्य का संचयन दो खण्डों में प्रकाशित हो चुका है। अब गुजराती कवि सितांशु यशश्चन्द्र के गद्य का हिन्दी अनुवाद दो जि़ल्दों में पेश है। पाठक पाएँगे कि सितांशु के कवि-चिन्तन का वितान गद्य में कितना व्यापक है—उसमें परम्परा, आधुनिकता, साहित्य के कई पक्षों से लेकर कुछ स्थानीयताओं पर कुशाग्रता और ताज़ेपन से सोचा गया है। हमें भरोसा है कि यह गद्य हिन्दी की अपनी आलोचना में कुछ नया जोड़ेगा।" —अशोक वाजपेयी
Chintan Ke Aayam
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

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Description:
‘चिन्तन के आयाम’ में युगदृष्टा रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के चिन्तनपूर्ण, लोकोपयोगी बाईस निबन्धों को संगृहीत किया गया है। ये निबन्ध जहाँ एक तरफ़ दिनकर के चिन्तक–स्वरूप का साक्षात्कार करवाते हैं, वहीं पाठक के ज्ञान–क्षितिज का विस्तार भी करते हैं।
दिनकर के ये निबन्ध—‘आदर्श मानव राम’, ‘लौकिकता और हिन्दू–धर्म’, ‘भगवान बुद्ध’, ‘बौद्धधर्म की विश्व–व्यापकता’, ‘शान्ति की समस्या’, ‘धर्म और विज्ञान’, ‘मिली–जुली संस्कृति’, ‘गांधी से मार्क्स की परिष्कृति’, ‘स्वतंत्रता के बाद’, ‘लोकतंत्र : कुछ विचार’, ‘नेता नहीं, नागरिक चाहिए’, ‘शीर्षकमुक्त चिन्तन’, ‘इल्म की इन्तिहा है बेताबी’, ‘शिक्षा के पाँच लक्षण’, ‘शिक्षा : तब और अब’, ‘आधुनिकता का वरण’, ‘आधुनिकीकरण’, ‘काम–चिन्तन की कणिकाएँ’, ‘पुरानी और नई नैतिकता’, ‘प्रेम एक है या दो?’, ‘विवाह की मुसीबतें’, ‘मूल्य–ह्रास के पच्चीस वर्ष’—मानवता, हमारी संस्कृति, विवाह, प्रेम, काम, नैतिकता, शिक्षा, आधुनिकता, गांधी, मार्क्स और शिक्षा जैसे विषयों पर उनके गम्भीर–चिन्तन को उद्घाटित करते हैं, वहीं लोकतंत्र, धर्म और विज्ञान तथा मूल्य–ह्रास जैसे ज्वलन्त प्रश्नों द्वारा हमारा मार्गदर्शन भी करते हैं।
नए रूप में प्रस्तुत इस पुस्तक में निबन्धों को क्रमवार सँजोया गया है, जिससे इनकी लयबद्धता एकरूप समान ढंग से चलती जाती है। गम्भीर चिन्तन के नए आयामों के साथ–साथ पुस्तक में सम्मिलित ये निबन्ध दिनकर के व्यक्तित्व को भी समझने में सहायक सिद्ध होते हैं।
Hindi Upanyas Ka Itihas
- Author Name:
Gopal Ray
- Book Type:

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Description:
बीसवीं शताब्दी के अन्त के साथ हिन्दी उपन्यास की उम्र लगभग 130 वर्ष की हो चुकी है। बड़े ही बेमालूम ढंग से 1970 ई. में पं. गौरीदत्त की ‘देवरानी-जेठानी की कहानी’ के रूप में इसका जन्म हुआ, जिसकी तरफ़ लगभग सौ वर्षों तक किसी का ध्यान भी नहीं गया। लेखक ने पुष्ट तर्कों के आधार पर ‘देवरानी-जेठानी की कहानी’ को हिन्दी के प्रथम उपन्यास के रूप में स्वीकार किया है और 1970 ई. से 2000 ई. तक की अवधि में हिन्दी उपन्यास के ऐतिहासिक विकास को समझने का प्रयास किया है।
हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकों के प्रामाणिक विवरण का अभिलेख सुरक्षित रखने की समृद्ध और विश्वसनीय परम्परा प्रायः नहीं है। इस कारण हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन में अनेक प्रकार की मुश्किलें आती हैं। इस पुस्तक में पहली बार लगभग 1300 उपन्यासों का उल्लेख उनके प्रामाणिक प्रकाशन-काल के साथ किया गया है। यह दावा तो नहीं किया जा सकता कि इस किताब में कोई महत्त्वपूर्ण उपन्यासकार या उपन्यास छूट नहीं गया है, पर इस बात की कोशिश ज़रूर की गई है। साहित्य के इतिहास में सभी लिखित-प्रकाशित रचनाओं का उल्लेख न सम्भव है न आवश्यक, इसलिए सचेत रूप में भी अनेक उपन्यासों का ज़िक्र इस पुस्तक में नहीं किया गया है।
साहित्य के इतिहास में पुस्तकों की प्रकाशन-तिथियों की प्रामाणिकता के साथ-साथ यह भी ज़रूरी होता है कि सम्बद्ध विधा के विकास की धाराओं की सही पहचान की जाए। विधा के रूप में हिन्दी उपन्यास का विकास अभी जारी है। विकास ‘ऐतिहासिक काल’ में ही होता है और इतिहास में प्रामाणिक तथ्यों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। कोशिश यह की गई है कि यह पुस्तक हिन्दी उपन्यास का मात्र ‘इतिहास’ न बनकर ‘विकासात्मक इतिहास’ बने।
Kavita Ka Prati Sansar
- Author Name:
Nirmala Jain
- Book Type:

- Description: रचना, आलोचना का अनिवार्य संदर्भ भी होती हैं और उसके लिए चुनौती भी । दोनो के बीच सम्बन्ध स्थित्यात्मक न होकर गत्यात्मक होता है । पूर्ववर्ती और सहवर्ती साहित्य प्रतिमानों के निर्धारण के लिए आलोचना को आमंत्रित करता है और अनुवर्ती साहित्य अक्सर पूर्वनिर्मित प्रतिमानों की अपर्याप्तता का बोध जगाता है । हर महत्वपूर्ण रचना मूल्यांकन के प्रतिमानों की उपलब्ध व्यवस्था के बीच से अपने लिए प्रासंगिक प्रतिमानों की तलाश ही नहीं कर लेती, बल्कि नए प्रतिमानों के लिए आधार भी प्रस्ता- वित करती है । प्रतिमानों के सस र में शाश्वत कुछ नहीं होता । इस वास्तविकता का अहसास आलो- चना को परमुखापेक्षी होने से बचाता है । 'कविता का प्रति संसार' रचनात्मक साहित्य वो संदर्भ की अनिवार्यता के अहसास से प्रेरित ऐसे ही आलोचनात्मक लेखों का सग्रह है । 'समय-समय' पर लिखे गए इन लेखों में निर्मला जैन ने गहरे सरो- कार के साथ प्रखर शैली में प्रतिमानों का प्रश्न भी उठाया हए और रचनाओं का विश्लेषण भी किया हैं । इन लेखों में वे मुद्दे उठाए गए हैं जो प्रतिमानों कं संदर्भ में अक्सर सामने आते हैं । साथ ही आधु- निक हिंदी कविता की विशिष्ट उपलब्धियों को सर्वथा मौलिक दृष्टि से देखा-परखा गया है । इस संकलन का प्रमुख आकर्षण विषय का विस्तार और प्रतिमानों की विविधता है । यह पुस्तक रचना और आलोचना की सही पहचान कराती है ।
Kriti Vikriti Sanskriti
- Author Name:
Satyaprakash Mishra
- Book Type:

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Description:
सत्यप्रकाश मिश्र हिन्दी आलोचना में साहित्यिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक सन्दर्भों एवं उनसे निःसृत समाजवादी मान-मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में किसी भी कृत और प्रवृत्ति का मूल्यांकन करनेवाले एक सेक्यूलर आलोचक थे। समकालीन हिन्दी आलोचना भाषा को उन्होंने जो आवाज़ दी, वह अपने आप में अकेली और अनोखी है। इस आवाज़ में जहाँ तीक्षा असहमति का स्वर है वहाँ भी सप्रमाण तर्कशक्ति के साथ विषय और सन्दर्भों का विवेकपूर्ण प्रकटन है जिसको पढ़कर लगता है कि हिन्दी आलोचना के लिए इस तरह के आलोचना कर्म की ज़रूरत आज और भी अधिक है, क्योंकि समकालीन हिन्दी आलोचना परिचय-धर्मिता का शिकार हो रही है।
प्रो. मिश्र यह मानते हैं कि आलोचक का कार्य केवल उद्धारक या प्रमोटर का नहीं होना चाहिए। रचनाकार, उसके परिवेश और कृति को समग्रता में समझने के कार्य को वह आलोचना का प्रमुख कार्य मानते हैं। इस पुस्तक में नवें दशक की हिन्दी कविता पर लिखा उनका लम्बा लेख इसका उदाहरण है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी और नन्ददुलारे वाजपेयी के पश्चात् व्यापक सामाजिक चेतना वाले आलोचकों—रामविलास शर्मा, विजयदेव नारायण साही, नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डेय की आलोचना-दृष्टि, पद्धति और प्रविधि तथा मूल्यांकन क्षमता की परख करते हुए इस पुस्तक में सत्यप्रकाश मिश्र ने हिन्दी आलोचना के विकास-क्रम को निर्दिष्ट किया है। वे अपने प्रिय आलोचक साही की ही तरह यह मानते थे कि आलोचना के मुहावरे को ग़लत बनाम सही, झूठ या अपर्याप्त सच बनाम सच का रूप ग्रहण करना ही चाहिए। ‘कृति विकृति संस्कृति’, इसी आलोचनात्मक मुहावरे का रूपाकार है।
Nai Kahani Ki Bhumika
- Author Name:
Kamleshwar
- Book Type:

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Description:
'एक शानदार अतीत कुत्ते की मौत मर रहा है, उसी में से फूटता हुआ एक विलक्षण वर्तमान रू-ब-रू खड़ा है—अनाम, अरक्षित, आदिम अवस्था में। और आदिम अवस्था में खड़ा यह मनुष्य अपनी भाषा चाहता है, आस्था चाहता है, कविता और कला चाहता है, मूल्य और संस्कार चाहता है; अपनी मानसिक और भौतिक दुनिया चाहता है...।'
यह है नयी कहानी की भूमिका—इस कहानी को शास्त्र और शास्त्रियों द्वारा परिभाषित करने की जब-जब कोशिश हुई है, कहानी और कहानीकार ने विद्रोह किया है। इस कहानी को केवल जीवन के सन्दर्भों से ही समझा जा सकता है, युग के सम्पूर्ण बोध के साथ ही पाया जा सकता है।
नयी कहानी के प्रमुख प्रवक्ता तथा समान्तर कहानी आन्दोलन के प्रवर्तक कमलेश्वर ने छठे दशक के कालखंड में जीवन के उलझे रेशों और उससे उभरनेवाली कहानी की जटिलताओं को गहरी और साफ़ निगाहों से विश्लेषित किया है। साहित्य का यह विश्लेषण बिना स्वस्थ सामाजिक दृष्टि के सम्भव नहीं है।
कमलेश्वर की यह पुस्तक इसलिए ऐतिहासिक महत्त्व की है कि यह समय और साहित्य को पारस्परिक समग्रता में समझने की दृष्टि देती है। 'नयी कहानी की भूमिका' अपने समय के साहित्य की अत्यन्त विशिष्ट दस्तावेज़ है; पाठकों, लेखकों और अध्येताओं के लिए अपरिहार्य पुस्तक है।
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