Sarjana Path Ke Sahyatri
Author:
Nirmal VermaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 239.2
₹
299
Available
निर्मल वर्मा ने जिस तरह कथाभाषा पर अपनी एक विशिष्ट छाप छोड़ी, उसी तरह रचना-चिन्तन और हिन्दी व अन्य भाषाओं के रचनाकारों पर केन्द्रित अपने लेखन में भी विश्लेषण और विवेचन का एक अलग मुहावरा गढ़ा। उन्होंने समय-समय पर अपने प्रिय लेखकों-कलाकारों पर लिखा। इन लेखों में उन्होंने ‘आलोचना की लगी-बँधी खूँटी से अपने को छुड़ाकर’ आत्मीय प्रतिक्रियाओं के प्रवाह में स्वयं को बहने दिया है। इसी आत्मीयता के चलते ये निबन्ध रचनात्मकता का एक अत्यन्त सकारात्मक और प्रेरक वातावरण रचते हैं।</p>
<p>भाषा के नैतिक और आध्यात्मिक आयामों को विकसित करती उनकी ये पारदर्शी गद्य रचनाएँ मूर्धन्य व्यक्तियों के आलोक और अँधेरे को जिस सजीवता के साथ प्रकट करती हैं वह दुर्लभ साधना और अनिवार्य जिज्ञासा से ही अर्जित की जा सकती है।</p>
<p>इस पुस्तक में देश के महत्त्वपूर्ण रचनाकारों—प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, हजारीप्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, रेणु, मुक्तिबोध, भीष्म साहनी, धर्मवीर भारती, मलयज और चित्रकारों-कलाकारों—हुसेन, रामकुमार, स्वामीनाथन पर तो आलेख हैं ही, बोर्ख़ेज़, नायपॉल, नाबोकोव, राब्ब ग्रिये और लैक्सनेस पर भी बेहद संजीदगी और तरल संवेदना से लैस रचनाएँ संकलित हैं।
ISBN: 9789360867003
Pages: 190
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: तर नेहरू-युग में जैसे-जैसे भारतीय लोकतंत्र जनहितों से निरपेक्ष होता गया है, वैसे-वैसे साहित्य मुखर रूप से लोकतंत्र के भीतर काम कर रही जन-विरोधी शक्तियों के कठोर आलोचक के रूप में सामने आया है। इसी क्रम में मुक्तिबोध की रचनाएँ और विचार हिन्दी में केन्द्रीय होते गए हैं। पारम्परिक रसवादी और रोमैंटिक आग्रहों के सामानान्तर आधुनिक साहित्य ने विचार और बौद्धिकता को केन्द्रीय महत्त्व दिया है। इस संघर्ष में मुक्तिबोध के रचनात्मक और वैचारिक प्रयासों की महती भूमिका है। प्रो. सेवाराम त्रिपाठी की पुस्तक ‘मुक्तिबोध : सर्जक और विचारक', मुक्तिबोध का विवेचन-मूल्यांकन समग्रता से करती है। मुक्तिबोध की रचनात्मकता कविता, कहानी, उपन्यास, निबन्ध, आलोचना और पत्रकारिता तक फैली हुई है। इस पुस्तक का महत्त्व यह है कि वह मुक्तिबोध का अध्ययन करने के लिए सभी विधाओं को समेटती है। स्वाभाविक ही है कि ऐसे में लेखक ने मुक्तिबोध के सभी पक्षों पर विस्तृत विचार किया है। सेवाराम त्रिपाठी ने प्रस्तुत पुस्तक में मुक्तिबोध की सर्जना में विचारधारा की भूमिका की पड़ताल की है। मुक्तिबोध हिन्दी रचनाशीलता में एक मुकम्मल और सुसंगत मार्क्सवादी थे। इसका गहरा प्रभाव विशेष रूप से कविता और आलोचना जैसी विधाओं पर पड़ा है। यह प्रभाव सामान्य न होकर जटिल है। लेखक ने पुस्तक में मुक्तिबोध में उपस्थित रचना और विचारधारा की अन्तःक्रिया पर गहन और सूक्ष्म विवेचन किया है। प्रस्तुत संस्करण पुस्तक का दूसरा संस्करण है। इसमें ‘मुक्तिबोध : पुनश्च' शीर्षक से चार नए आलेख जोड़ दिए गए हैं। इन आलेखों में मूल अध्यायों में छूट गई कुछ महत्त्वपूर्ण बातें स्थान पा सकी हैं। पुस्तक न सिर्फ़ गम्भीर अध्येताओं की ज़रूरतों को पूरा करती है, बल्कि सामान्य विद्यार्थियों के लिए भी उपादेय ह
Achhi Hindi
- Author Name:
Ramchandra Verma
- Book Type:

- Description: आज-कल देश में हिन्दी का जितना अधिक मान है और उसके प्रति जन-साधारण का जितना अधिक अनुराग है, उसे देखते हुए हम कह सकते हैं कि हमारी भाषा सचमुच राष्ट्र-भाषा के पद पर आसीन होती जा रही है। लोग गला फाड़कर चिल्लाते हैं कि राज-काज में, रेडियो में, देशी रियासतों में सब जगह हिन्दी का प्रचार करना चाहिए, पर वे कभी आँख उठाकर यह नहीं देखते कि हम स्वयं कैसी हिन्दी लिखते हैं। मैं ऐसे लोगों को बतलाना चाहता हूँ कि, हमारी भाषा में उच्छृंखलता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। किसी को हमारी भाषा का कलेवर विकृत करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। देह के अनेक ऐसे प्रान्तों में हिन्दी का ज़ोरों से प्रचार हो रहा है, जहाँ की मात्र-भाषा हिन्दी नहीं है। अतः हिन्दी का स्वरूप निश्चित और स्थिर करने का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व उत्तर भारत के हिन्दी लेखकों पर ही है। उन्हें यह सोचना चाहिए कि हमारी लिखी हुई भद्दी, अशुद्ध और बे-मुहावरे भाषा का अन्य प्रान्तवालों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, और भाषा के क्षेत्र में हमारा यह पतन उन लोगों को कहाँ ले जाकर पटकेगा। इसी बात का ध्यान रखते हुए पूज्य अम्बिका प्रसाद जी वाजपेयी ने कुछ दिन पहले हिन्दी के एक प्रसिद्ध लेखक और प्रचारक से कहा था, "आप अन्य प्रान्तों के निवासियों को हिन्दी पढ़ा रहे हैं और उन्हें अपना व्याकरण भी दे रहे हैं, पर जल्दी ही वह समय आएगा, जबकि वही लोग आपके ही व्यकारण से आपकी भूल दिखाएँगे!" यह मानो भाषा की अशुद्धियों वाले व्यापक तत्त्व की और गूढ़ संकेत था। जब हमारी समझ में यह तत्त्व अच्छी तरह आ जाएगा, तब हम भाषा लिखने में बहुत सचेत होने लगेंगे। और मैं समझता हूँ कि हमारी भाषा की वास्तविक उन्नति का आरम्भ भी उसी दिन से होगा। भाषा वह साधन है, जिससे हम अपने मन के भाव दूसरों पर प्रकट करते हैं। वस्तुतः यह मन के भाव प्रकट करने का ढंग या प्रकार मात्र है। अपने परम प्रचलित और सीमित अर्थ में भाषा के अन्तर्गत वे सार्थक शब्द भी आते हैं, जो हम बोलते हैं और उन शब्दों के वे क्रम भी आते हैं, जो हम लगाते हैं। हमारे मन में समय-समय पर विचार, भाव, इच्छाएँ, अनुभूतियाँ आदि उत्पन्न होती हैं, वही हम अपनी भाषा के द्वारा, चाहे बोलकर, चाहे लिखकर, चाहे किसी संकेत से दूसरों पर प्रकट करते हैं, कभी-कभी हम अपने मुख की कुछ विशेष प्रकार की आकृति बनाकर या भावभंगी आदि से भी अपने विचार और भाव एक सीमा तक प्रकट करते हैं, पर भाव प्रकट करने के ये सब प्रकार हमारे विचार प्रकट करने में उतने अधिक सहायक नहीं होते, जितनी बोली जानेवाली भाषा होती है। यह ठीक है कि कुछ चरम अवस्थाओं में मन का कोई विशेष भाव किसी अवसर पर मूक रहकर या फिर कुछ विशिष्ट मुद्राओं से प्रकट किया जाता है और इसीलिए 'मूक अभिनय' भी 'अभिनय' का एक उत्कृष्ट प्रकार माना जाता है। पर साधारणतः मन के भाव प्रकट करने का सबसे अच्छा, सुगम और सब लोगों के लिए सुलभ उपाय भाषा ही है।
Ramchandra Shukla
- Author Name:
Malayaj
- Book Type:

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Description:
विस्मरण के इस हाहाकारी उत्सवी दौर में भुला दिए गए विलक्षण कवि-आलोचक मलयज और उनकी पुस्तक ‘रामचन्द्र शुक्ल’ की पुनर्प्रस्तुति का साहित्यिक और अकादमिक महत्त्व निर्विवाद है। मलयज की आलोचना पद्धति के कायल वे सब लोग हैं, जिन्होंने उनका लिखा कुछ भी पढ़ा है। भौतिक रूप से मिले छोटे से जीवन में मलयज ने सृजन के कई मानक स्थापित किए। यह पुस्तक भी अपने संक्षिप्त कलेवर में ही एक प्रतिमान की तरह है। मलयज ने एक अपूर्व आलोचक-चिन्तक के रूप में रामचन्द्र शुक्ल का जिस प्रकार मूल्यांकन किया है, उसका सानी कोई दूसरा नहीं है। यह अकारण नहीं है कि इस पुस्तक को सम्पादित करने वाले सुप्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने अपनी भूमिका का शीर्षक ही दिया था—मलयज की संघर्ष मीमांसा। मलयज रामचन्द्र शुक्ल की ‘रस-मीमांसा’ के बड़े प्रशंसक थे। उनकी अन्तर्दृष्टि मलयज की अन्तर्दृष्टि में उसी प्रकार घुली है जिस प्रकार दाल में नमक घुल जाता है। लेकिन यहाँ यह याद रखना ज़रूरी है कि दाल में नमक का बहुत महत्त्व है लेकिन वह पूरी दाल नहीं है। वह उसका एक घटक भर है। कहने की आवश्यकता नहीं कि रामचन्द्र शुक्ल के दाय को स्वीकार करते हुए मलयज ने नया बहुत कुछ जोड़ा और हिन्दी आलोचना को गहरी विश्वसनीयता भी दी। हिन्दी के युवा आलोचकों के लिए मलयज की विश्लेषण पद्धति और भाषा में सीखने के लिए बहुत कुछ है। उनकी आलोचना एक पाठशाला की तरह है।
—जितेन्द्र श्रीवास्तव
Reetikaleen Kaviyon Ki Prem-Vyanjana
- Author Name:
Bachchan Singh
- Book Type:

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Description:
साहित्य का कोई काल-खंड अपने आप में स्वतन्त्र इकाई नहीं होता, उसका एक परिवर्तनमान नैरन्तर्य होता है, परम्परा होती है। रीतिकाल की मुख्यधारा पर, विशेषतः जिसे रीतिबद्ध कहा जाता है, आचार्य शुक्ल ने तीखी टिप्पणियाँ जड़ी हैं। शुक्लजी की देखा-देखी उनके आलोचकों ने उसे प्रतिक्रियावादी साहित्य की संज्ञा से अभिहित किया। कुछ अन्य लोगों ने उसकी प्रतिरक्षा में दलीलें खड़ी कीं। इसका फल यह हुआ कि रीतिकाव्य- रीतिमुक्त काव्य का चित्र धुंधलके से ढंक गया। यदि इसे संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा देशभाषा-काव्य (भक्तिकाव्य) की परम्परा में देखा गया होता, आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से परखा गया होता, सामन्ती परिवेश के अन्तर्विरोध के परिप्रेक्ष्य में, लक्षित किया गया होता तो इस काल के क्लासिक का मूल्यांकन अधिक प्रामाणिक प्रतीत होता। कहना न होगा कि इस काल को इसी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश की गयी है।
बदले हुए सामन्ती परिवेश में कविता का लक्ष्य ही बदल गया था। एक समय था, जब कहा गया–‘कीन्हे प्राकृतजन गुनगाना सिर धुन गिरा लागि पछताना।’ ‘सन्तन को कहाँ सीकरी सों काम आवत-जात पनहियाँ टूटीं बिसरि गयो हरिनाम।’ एक समय आया, जब कहा जाने लगा–‘हुकुम पाइ जयसाहि कै...।’ ‘ठाकुर सो कवि भावत मोंहि जो राजसभा में बड़प्पन पावै / पंडित और प्रवीनन को जोइ चित्त हरै सो कवित्त बनावै।’ इस चित्तवृत्ति का प्रभाव कविता पर पड़ना ही पड़ना था। लेकिन इन कविताओं में प्रेम का उदात्त और अनुदात्त, दोनों प्रकार का चित्रण है। इसकी परम्परा सूर के काव्य में ही मिल जाती है। प्रेम के प्रति जैसी बेचैनी घनानन्द, ठाकुर, बोधा में मिलती है, वैसी बेचैनी, मीरा को छोड़, समस्त भक्ति-काव्य में नहीं मिलेगी। सामाजिक नैतिकता, छद्म, अस्पृश्यता, आदि पर भी इसमें पहली बार प्रकाश डाला गया है।
बिम्बों, प्रतीकों, अलंकारों, विशेषणों, शब्दार्थ के बदलावों के सन्दर्भ में भी प्रेम के विरोधात्मक आयामों को विवेचित किया गया है। वेश-भूषा भी प्रेम की भाषा है। इस पर अलग से विचार किया गया है। लोक में प्रचलित तीज- त्योहार, ऋतु-उत्सव, आदि जितने मनोयोगपूर्वक इस काल की कविताओं में वर्णित हैं, अन्यत्र नहीं मिलेंगे। आधुनिक काव्य में लोकोत्सव-चित्रण की निरन्तर कमी होती जा रही है। रीतिकालीन काव्य से बहुत कुछ छोड़ा जा सकता है तो बहुत कुछ सीखा भी जा सकता है।
Meera Aur Meera
- Author Name:
Mahadevi Verma
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Description:
‘मीरा और मीरा’ छायावाद की मूर्तिमान गरिमा महीयसी महादेवी वर्मा के चार व्याख्यानों का संग्रह है। महादेवी जी ने ये व्याख्यान जयपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन की राजस्थान शाखा के निमंत्रण पर दिए थे।
इन चार व्याख्यानों के शीर्षक हैं–मीरा का युग, मीरा की साधना, मीरा के गीत और मीरा का विद्रोह। इनमें महादेवी ने मध्यकालीन स्त्री की स्थिति का विशेष सन्दर्भ लेकर भक्ति, मुक्ति, आत्मनिर्णय, विद्रोह और निजपथ-निर्माण आदि को विश्लेषित किया है।
‘मीरा और मीरा’ को प्रकाशित करते हुए हमें इसलिए भी विशेष प्रसन्नता है कि यह समय अस्मिता-विमर्श का है। स्त्री-विमर्श के ‘समय विशेष’ में स्त्री-अस्मिता के दो शिखर व्यक्तित्वों का ‘रचनात्मक संवाद’ महत्त्वपूर्ण है। इन दो दीपशिखाओं के आलोक में परम्परा और आधुनिकता के जाने कितने निहितार्थ स्पष्ट होते हैं। ‘शृंखला की कड़ियाँ’ की लेखिका ने ‘सूली ऊपर सेज पिया की’ का गायन करने वाली रचनाकार के मन में प्रवेश किया है। यह दो समयों (मध्यकाल और आधुनिक युग) का संवाद भी है।
यह सोने पर सुहागा ही कहा जाएगा कि प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका सुप्रसिद्ध कवि, कथाकार व विमर्शकार अनामिका ने लिखी है। कहना न होगा कि यह लम्बी भूमिका एक मुकम्मल आलोचनात्मक आलेख है।
Kavita Ka Shahar : Ek Kavi Ki Notebook
- Author Name:
Rajesh Joshi
- Book Type:

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Description:
कविता का नगर चाहे बहुत भिन्न हो, उसमें कल्पना का तत्त्व बहुत अधिक या कम हो, लेकिन बाहर स्थित नगर से उसकी शक्ल थोड़ी-बहुत तो मिलती है। पर हर बार मेरी शक्ल को वास्तविक नगर की शक्ल से मिला-जुलाकर देखने की क़वायद फ़िज़ूल है। कई बार कवियों को भी यह भ्रम हो जाता है कि वे अपनी कविता में वास्तविक शहर के यथार्थ को समेट रहे हैं। उन्हें लगता है कि वो कविता में शब्दों से वो ही शहर बना सकते हैं जो वास्तविक शहर है। लेकिन दोनों के निर्माण में लगनेवाली सामग्री ही भिन्न है। जब भी वास्तविक शहर शब्दों में रूपान्तरित होता है, उसका चेहरा-मोहरा वही नहीं रहता जो उसका वास्तविक चेहरा है। यह शहर का पुनर्रचित चेहरा है। यह कविता का नगर है।
लेकिन मुझे बसाना या बनाना भी कोई आसान काम नहीं है। मेरे भवनों, सड़कों, गलियों, नदियों और सरोवरों को बनाने के लिए एक कवि को भी जाने कितने शब्द, कितने वाक्य, बिम्ब, प्रतीक, छन्द, लय, मिथक-कथाओं और कल्पनाओं की ज़रूरत होती है। कवि का श्रम किसी वास्तुशिल्पी या नगरशिल्पी से किसी बात में कम नहीं होता।
मेरा इतिहास उतना ही पुराना है जितना मनुष्य द्वारा किए गए नगरीकरण का। इसे मेरा दम्भ न समझा जाए तो कई बार तो मुझे लगता है कि मनुष्य द्वारा बसाए गए शहर से भी पहले मैं अस्तित्व में आया होऊँगा। एक शहर में जैसे हमेशा ही कुछ न कुछ जुड़ता रहता है, कुछ टूटता रहता है, इसी तरह मुझमें भी कुछ न कुछ बदलता रहता है। प्राचीन कविता का नगर और आज की कविता का नगर एक-सा तो नहीं है। आधुनिक शहरों की तरह मुझमें भी भीड़ है, शोर है और तेज़ गतियाँ हैं, परिचित और अपरिचित चेहरे हैं। आख़िरकार मैं भी एक नगर हूँ और भीड़ और शोर से मैं भी कैसे बच सकता हूँ।
तो आइए, मैं आपको वास्तविक नगर की भीड़ और शोर से निकालकर कविता के नगर की भीड़ और शोर के बीच लिए चलता हूँ।
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