Nirgun Santon Ke Swapana
Author:
David N. LorenzenPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 716
₹
895
Available
साहित्यिक बिरादरी से बाहर निकलकर व्यापक भारतीय समाज को देखें तो कबीर, तुकाराम, तुलसी, मीरा, अखा, नरसी मेहता आज भी समकालीन हैं। भक्त कवि हिन्दी समाज के रोज़मर्रा के जीवन में किसी भी अन्य कवि से अधिक उपस्थित हैं। ‘निरक्षर’ हिन्दीभाषी भी कबीर के चार-छह दोहों और तुलसी की दो-चार चौपाइयों से तो वाक़िफ़ हैं ही। हिन्दी समाज नियतिबद्ध है—भक्त कवियों से सतत संवाद करने के लिए। सवाल यह है कि क्या हिन्दी की समकालीन साहित्यिक चिन्ताओं में यह नियति प्रतिबिम्बित होती है?</p>
<p>भारत और अन्य समाजों की देशज आधुनिकता और उसमें औपनिवेशिक आधुनिकता द्वारा उत्पन्न किए गए व्यवधान को समझना अतीत, वर्तमान और भविष्य का सच्चा बोध प्राप्त करने के लिए ज़रूरी है। साहित्य को इतिहास-लेखन का स्रोत मात्र (सो भी दूसरे दर्जे का!) और किसी विचारधारात्मक प्रस्ताव का भोंपू मानकर नहीं, बल्कि उसकी स्वायत्तता का सम्मान करते हुए पढ़ने की पद्धति पर चलते हुए भक्ति-काव्य को पढ़ें तो कैसे नतीजे हासिल होते हैं?</p>
<p>भक्ति साहित्य के विख्यात अध्येता पुरुषोत्तम अग्रवाल के सम्पादन में नियोजित ‘भक्ति मीमांसा’ पुस्तक-शृंखला ऐसी ही पढ़त की दिशा में एक कोशिश है। विभिन्न भक्त कवियों, रचनाओं और प्रवृत्तियों के अध्ययन इसमें प्रकाशित किए जाएँगे।</p>
<p>इस शृंखला की यह पहली पुस्तक अग्रणी इतिहासकार डेविड लॉरेंजन के निबन्धों का संकलन है। पिछले दो दशकों में प्रकाशित इन शोध-निबन्धों में ‘निर्गुण सन्तों के स्वप्न’ और उनकी परिणतियों के अनेक पहलू अत्यन्त विचारोत्तेजक और प्रमाणपुष्ट ढंग से पाठक के सामने आते हैं। ‘गोरखनाथ और कबीर की धार्मिक अस्मिता’ निबन्ध अंग्रेज़ी में प्रकाशित होने के पहले ही इस संकलन के ज़रिए हिन्दी पाठकों के सामने आ रहा है। डेविड लॉरेंजन द्वारा प्रस्तावित ‘जाति-निरपेक्ष’ या अवर्णाश्रमधर्मी’ हिन्दी परम्परा की अवधारणा से गुज़रते हुए, पाठक को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. रामविलास शर्मा और डॉ. नामवर सिंह का ‘लोकधर्म’ विषयक विचार-विमर्श स्वाभाविक रूप से याद आएगा।</p>
<p>कबीरपंथ के सांस्कृतिक इतिहास और स्वरूप में निहित सामाजिक प्रतिरोध का विवेचन करते हुए डेविड कबीरपंथ के सामाजिक आधार की व्यापकता रेखांकित करते हैं। वे बताते हैं कि कबीरपंथी ‘भगत’ कबीरपंथ को आदिवासी समुदायों तक भी ले गए; और इस तरह उन्होंने ब्राह्मण वर्चस्व से स्वायत्त समुदाय की रचना में योगदान किया।</p>
<p>इन निबन्धों में निहित अन्तर्दृष्टियों से निर्गुणपंथी परम्परा के बारे में ही नहीं, भारतीय इतिहास मात्र के बारे में भी आगे शोध के लिए प्रस्थानबिन्दु प्राप्त होते हैं।
ISBN: 9788126719112
Pages: 256
Avg Reading Time: 9 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
Recommended For You
Bhartiya Kavya Shastra Ki Bhumika
- Author Name:
Yogendra Pratap Singh
- Book Type:

-
Description:
भारतीय काव्य-चिन्तन की दृष्टि कविता के स्थापत्य से जुड़ी है। काव्य-सृजन शब्दार्थ का एक अद्वैत सहयोग है और कवि अपनी प्रतिभा के संयोग से इस शब्दार्थ में चित्त को विगलित करने की सामर्थ्य उत्पन्न करता है। पश्चिम में, यदि प्लेटो तथा अरस्तू से इसका प्रारम्भ माने तो सत्रहवीं शती तक वहाँ इसका अव्यवस्थित एवं अक्रमबद्ध विवेचन मिलता है, जबकि आचार्य भरत से प्रारम्भ होकर भारतीय काव्य-चिन्तन सत्रहवीं शती तक अपने विकास के चरम शीर्ष पर पहुँच जाता है।
‘शब्दार्थ’ रचना की प्रमुख समस्याएँ—‘सर्जन का मूलाधार’ (काव्य हेतु), ‘सृजन की केन्द्रीय चेतना’ (काव्यात्मा), ‘सृजन का मूल उद्देश्य’ (काव्य प्रयोजन), ‘कवि-कर्म का वैशिष्ट्य’ जैसे महत्त्वपूर्ण पक्षों पर यहाँ क्रमश: चिन्तन किया गया है और सार्वभौम हल निकालने की चेष्टा की गई है। भारतीय काव्य चिन्तन की केन्द्रीय धुरी ‘शब्दार्थ’ रचना ही है क्योंकि कविता की निष्पत्ति के लिए एकमात्र और अन्तिम मूल सामग्री वही है—भारतीय काव्य-चिन्तन का समग्र विकास अर्थात् शब्द सौष्ठव से लेकर आस्वादन तक का विवेचन, इसी शब्दार्थ पर ही आधारित रहा है और प्रस्तुत कृति का सम्बन्ध भारतीय कविता-चिन्तन के इसी वैशिष्ट्य को इंगित करना है।
Bhartiya Dharmik Chetna Ke Ayam
- Author Name:
Ravinandan Singh
- Book Type:

-
Description:
दुनिया के सभी धर्म एक ही दिशा में संकेत करते हैं। पूजा-पद्धतियाँ, धर्म-ग्रन्थ, धार्मिक सिद्धान्त संकेत मात्र हैं, किन्तु हम इन संकेतों को ही धर्म समझ लेते हैं और धर्मों की आन्तरिक एकता को समझ नहीं पाते। पूरी मनुष्य जाति धर्म के इन संकेतों को लेकर विभाजित एवं संघर्षरत है। ये संकेत जिस ओर इशारा करते हैं, उस गन्तव्य तक हमारी दृष्टि ही नहीं जा पाती। ऊपर से देखने पर पूरी मनुष्यता ही धार्मिक दिखाई पड़ती है, किन्तु ऐसा वास्तविकता में नहीं है। अगर ऐसा होता तो दुनिया के सारे दुःख-सन्ताप मिट जाते। किन्तु बाहर धर्म के संकेतों में वृद्धि हो रही है और उसी अनुपात में मनुष्य अशान्त होता जा रहा है।
प्रस्तुत पुस्तक धर्म के संकेतों के माध्यम से भारत की सर्वांगीण चेतना को समझने की कोशिश करती है। प्रागैतिहासिक युग से अब तक भारत की धार्मिक चेतना को क्रमिक रूप से उद्घाटित करना ही पुस्तक का उद्देश्य है। इस विषय पर सामग्री बिखरी होने के कारण विद्यार्थी एवं शोधार्थियों को कठिनाई होती है। इस कठिनाई से निजात पाने की कोशिश में ही इस पुस्तक की रचना हुई है। भारतीय इतिहास के कालक्रमानुसार नवीनतम अनुसन्धानों एवं शोधों को सम्मिलित करते हुए पुस्तक को समृद्ध बनाया गया है। यह पुस्तक सिविल सेवा के प्रतियोगी छात्रों, विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों के भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के छात्रों तथा सामान्य जिज्ञासुओं के लिए अत्यन्त लाभप्रद एवं उपयोगी है।
Shabd Shuddh Uchcharan Avm Padbhar
- Author Name:
Dr. Azam
- Book Type:

- Description: Book
Acharya Hazariprasad Dwivedi Ke Upanyas
- Author Name:
Pallavi Srivastva
- Book Type:

- Description: प्रस्तुत कृति में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों और उनमें वर्णित उदात्त पात्रों की जीवन-दृष्टि को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। पुस्तक में उपन्यासों का सामान्य परिचय स्त्री-चरित्र शिल्प और पुरुष-चरित्र शिल्प के विभिन्न पक्षों को समाहित करते हुए उनकी विशेषताओं को उदघाटित करने का प्रयास करने के साथ चरित्र-शिल्प की दृष्टि से द्विवेदी जी का महत्त्व दर्शाया गया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की प्रतिभा ने अतीतकालीन चेतना प्रवाह को वर्तमान जीवनधारा से जोड़कर आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त की है। उनकी विपुल रचना साहित्य का रहस्य उनके विशद शास्त्रीय ज्ञान में नहीं, बल्कि पारदर्शी जीवन-दृष्टि में निहित है जो युग का नहीं युग-युग का सत्य देखती है। प्रस्तुत पुस्तक शोधार्थियों तथा पाठकों का मार्गदर्शन करने में सहायक सिद्ध होगी।
Chhayavad Aur Uske Kavi
- Author Name:
Vijay Bahadur Singh
- Book Type:

-
Description:
महान हिन्दी आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की कक्षा में बैठकर जिस एक छात्र ने अपने आचार्य की सीमाओं को आक्रामक शैली में इंगित किया उसका नाम नन्द दुलारे वाजपेयी था। उसी छात्र ने यह भी घोषित किया कि उनकी लिखी हुई पुस्तकें और उनके तैयार किए हुए विद्यार्थी, जिनमें मैं भी एक होने का गर्व करता हूँ, किन्तु मैं उनकी प्रतिध्वनि नहीं हूँ, क्योंकि प्रतिध्वनि कभी मूल ध्वनि की बराबरी नहीं कर सकती। अस्तु, मेरी अपनी ध्वनि है।
यही आलोचक नन्द दुलारे वाजपेयी अपने आचार्य शुक्ल से छायावादी काव्य को लेकर असहमत होकर इस परिभाषा और व्याख्या पर उतर आया कि कविता जिस स्तर पर पहुँचकर अलंकार-विहीन हो जाती है। वहाँ वह वेगवती नदी की भाँति हाहाकार करती हुई हृदय को स्तम्भित कर देती है। उस समय उसके प्रवाह में अलंकार ध्वनि वक्रोक्ति आदि न जाने कहाँ बह जाते हैं और सारे सम्प्रदाय न जाने कैसे मटियामेट हो जाते हैं।'
शुक्ल जी को युग प्रवर्तक आलोचक मानते हुए भी आचार्य वाजपेयी ने उनकी प्रबन्ध काव्य सम्बन्धी अवधारणा के विपरीत यह स्थापित किया कि प्रगीतों में ही कवि का व्यक्तित्व पूरी तरह प्रतिबिम्बित होता है।'
शुक्लोत्तर आलोचना के इस सर्वप्रथम आलोचक आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी ने हिन्दी में स्वच्छन्दतावादी आलोचना का प्रवर्तन किया। यह पुस्तक इसी का एक जीवन्त दस्तावेज है।विजय बहादुर सिंह
Chhayawad : Sau Sal Baad
- Author Name:
P. Ravi
- Book Type:

- Description: यह सच है कि इस सामाजिक यथार्थ से प्रारम्भिक दौर की छायावादी कविता तालमेल नहीं रखती है। रचना और आलोचना का प्राथमिक सरोकार मानव जीवन और समय से होता है। लेकिन काव्य-भाषा के रूप में खड़ीबोली को समृद्ध करना तत्कालीन चुनौती रही थी, जिसे नजरअन्दाज नहीं कर सकते थे। जहाँ जीवन की समग्रता का सवाल उठता है, वहाँ भी प्राथमिकता पर ध्यान देना होगा। अपने समय और समाज से छायावादी कवि पलायन नहीं करना चाहते थे इसलिए वे जल्दी समय की माँग की पहचान करने लगे, और धीरे-धीरे नवजागरण और स्वतंत्रता आन्दोलन पर ही नहीं बल्कि मानव-जीवन और सम्पूर्ण विश्व-प्रकृति पर मारक आघात करनेवाली आधुनिक सभ्यता तथा प्रभुवर्ग के सत्तामोह पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करने लगे। इस तरह छायावादी कवि अपने ही इतिहास तथा परम्परा से सांस्कृतिक एवं नैतिक बल प्रदान करते रहें जिससे समाज आत्मसम्मान से भर उठे। छायावाद का प्रकृति चित्रण कहीं-कहीं आधुनिक पारिस्थितिक विमर्श की भी नींव डाल रहा था।
Anuvad Ki Prakriya Taknik Aur Samasyayen
- Author Name:
Shrinarayan Sameer
- Book Type:

-
Description:
अनुवाद भाषिक कला है और किसी भाषा-रचना को दूसरी भाषा में पुनर्सृजित करने का कौशल भी। पुनर्सृजन के इस कला-कौशल में भाषा की शर्तों का अतिक्रमण होता है। तथापि यह अतिक्रमण अराजक क़तई नहीं होता। सृजन की अकुलाहट के बावजूद यह सदैव सुन्दर और रुचिकर ही होता है।
किन्तु अनुवाद का दूसरा यथार्थ यह भी है कि भाषाविज्ञान से सम्बद्ध होकर मशीन से सम्भव होने के कारण अनुवाद आधुनिक समय में जितना कला है, उतना ही विज्ञान भी है। अनुवाद की यही फ़ितरत (फ़ित्रत) है, जो उसे किंचित् मुश्किल कर्म बनाती है। इस मुश्किल से पार पाने में अनुवाद की प्रक्रिया और तकनीक सहायता करती हैं। तभी सटीक, समतुल्य और संगत अनुवाद सम्भव हो पाता है।
अनुवाद की राह में समस्याओं के कई पठार भी आते हैं, जिन्हें अनुवादकर्ता को अपने ज्ञान और सूझबूझ से तोड़ना पड़ता है। ज़ाहिर है, अनुवाद की प्रक्रिया और तकनीक अपनी समस्त शर्तों एवं सावधानियों के द्वारा उसे परिपाक तक पहुँचाती हैं। समस्याएँ इसमें बाधक नहीं वरन् ताक़त बनकर उभरती हैं। अनुवाद के पुनर्सृजन अथवा अनुसृजन अर्थात् समानान्तर सृजन होने का यही राज है। अनुवाद के इस राज को प्रस्तुत पुस्तक में डॉ. श्रीनारायण समीर ने बड़ी बारीकी और धैर्य के साथ उद्घाटित किया है। इस उद्घाटन में भाषा की रवानी और ताज़गी एक सर्वथा नए आस्वाद की अनुभूति कराती है, जिसे पढ़कर ही महसूस किया जा सकता है।
Adikal: Purani Hindi
- Author Name:
Dr. Surya Prasad Dixit
- Book Type:

-
Description:
हिन्दी साहित्य के इतिहास का आदिकाल उसका स्वरूय-विकास एवं नामकरण विवादास्पद रहा है। इसका आरम्भ छठी शती से बारहवीं शती तक सिद्ध किया गया है। इसे अनेक नाम दिए गए हैं. जैसे- वीरगाथा काल, उदूभवकाल, उत्पत्तिकाल बीज बपन काल, सन्धिकाल, सिद्ध सामन्त काल, चारणकाल आदि। किन्तु अब 'आदिकाल' नाम ही बहुमान्य हो गया है।
प्राचीन हिन्दी भाषा के भी कई नाम सुझाए गए हैं, जैसे—परवर्ती अपभ्रंश प्रकृताभास भाषा, संघाभाषा, हिन्दवी, पुरानी हिन्दी, अवहट्ट अवहंस, देसिलबयनर, डिंगल, पुरानी राजस्थानी गूजरी, पिंगल, भाखा, कोसली, दक्खिनी हिन्दी, देशभाषा आदि। किन्तु अब राहुलजी और गुलेरीजी के द्वारा स्थापित 'पुरानी हिन्दी संज्ञा ही तर्क संगत लगती है।
आदिकाल में सिद्धनाथ, जैन, सन्त, सूफी रामकृष्णाश्रयी भक्त, चारण, लोककवि, नीतिकार वीरकाव्य परम्परा के प्रशस्तिकार, जीवनीकार, शृंगारी कवि, वैयाकरण गद्यकार सभी का योगदान रहा है।
आदि हिन्दी कवि के रूप में पुष्य, पुण्ड, पुष्पदंत, विमलसूरि आदि की अपेक्षा सरहपाद- सरह (स्थितिकाल-750-769) को मागधी-सौरसेनी अपभ्रंश से विकसित 'पुरानी हिन्दी' के सर्वाधिक सन्निकट होने के कारण यह श्रेय देना ज्यादा तथ्याश्रित होगा।
यह उल्लेखनीय है कि साहित्य की प्रायः प्रत्येक प्रवृत्ति के बीज इस अवधि में अंकुरित हुए हैं। इतिहास लेखन करते हुए जिन्हें पहले मध्यकालीन माना गया था, अब उनमें से कुछ आदिकाल में गणनीय हैं।
Tulsi : Aadhunik Vatayan Se
- Author Name:
Ramesh Kuntal Megh
- Book Type:

-
Description:
आपके हाथों में; यह पुनर्नवा कृति! तुलसी की बिलकुल नए परिदृश्य में पुनर्प्रस्तुति!!
तुलसी के युग, समाज, जीवन, व्यक्तित्व, कृतित्व का आधुनिक समुद्र-मन्थन। बेहद चौंकानेवाले नतीजे निकले क्योंकि सुदीर्घ मध्यकाल की सर्वांगीणता का अधिग्रहण करनेवाला यह एकल कृति सन्तभक्त के रूप में पूजित तथा वर्णाश्रम-प्रतिपादक और नारी-शूद्र-निन्दक के रूपों में लांछित भी है। तथापि दर्पण के साथ दीपकवाली अन्तीक्षा से ‘तुलसी-कोड’ का विचित्र उद्घाटन बेहद चकित करता है क्योंकि वे समन्वय तथा कलिकाल-संग्राम, दोनों में साथ-साथ जूझे और आत्मोत्तीर्ण हुए। अन्ततोगत्वा लांछनों को धोकर वे इहलौकिक, यथार्थोन्मुख, त्रासदकरुण एवं सहज होते जाते हैं।
सुदीर्घ मध्यकाल के सुपरिगठन के द्वन्द्वात्मक शुक्ल-श्याम आयामों में उन्होंने मध्ययुग का मिथकीयकरण, पौराणिक चेतना का मध्यकालीनीकरण, सामन्तीय ऐश्वर्य का कृषकीयकरण, तथा धर्म-दर्शन-साहित्य का तुलसीयकरण करके इन चतुरंग दिशाओं में एक नए संसार को ही प्रकाशित कर डाला। हमने भी आधुनिकताबोध एवं समाजविज्ञानों के समकालीन औज़ारों से इसकी पुनर्निमिति की है। इससे इस महासत्य का भी विस्फोट होता है कि पाँच-छह शताब्दियों से वे अविराम आगे ही बढ़ते जा रहे हैं—अपने सभी अन्तर्विरोधों एवं विरोधाभासों के साथ-साथ। भला क्यों?
क्योंकि उत्तर यह है कि दिव्य सौन्दर्यबोध (लीला), कृषक-सौन्दर्यबोधशास्त्र (प्रीति), विविध काव्य-धर्मसूत्र (भक्ति), मिथक-आलेखकारी (चरितपावन) के शास्त्रेतर मार्ग भी बनाते हुए तुलसी बाबा ने विरासत में उथल-पुथल मचाकर यश-अपयश कमा डाला।
तुलसी पर ऐसी अनुसन्धानपरक और आलोचिन्तनात्मक कृतियाँ सचमुच नगण्य हैं जो कालिदास के बाद के इस महत्-महान कृती का निरपेक्ष, निर्भीक तथा बिन्दास और बहुविध प्रस्तुतीकरण करें।
तो आइए! आधुनिक वातायन से इस किताब का दिग्दर्शन किया जाए। तुलसी के हरेक गम्भीर अध्येता-अनुरागी और सभी पुस्तकालयों के लिए सर्वथा अनिवार्य।
Mahadevi Verma : Srijan Aur Sarokar
- Author Name:
Niranjan Sahay
- Book Type:

-
Description:
आधुनिक काव्य-जगत में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कवयित्री के रूप में समादृत महादेवी वर्मा की लोकप्रियता जितनी व्यापक है, उनके रचना-संसार को देखने-परखने की प्रविधियाँ भी उसी तरह अनेक रही हैं। इस पुस्तक में उनकी रचनात्मकता को समझने की जितनी पद्धतियाँ अब तक सामने आई हैं, उन सभी को संयोजित करने का प्रयास किया गया है ताकि उनके अवदान को लेकर हमारी समकालीन समझ दुरुस्त हो सके।
महादेवी वर्मा का काव्य-संसार जितना अमूर्त और भावपरक है, उनका गद्य-संसार उतना ही मूर्त और मुखर। यद्यपि सजग और सुधी पाठक चाहे तो उनकी कविताओं में भी तृप्ति और अतृप्ति के दारुण मनोभावों और स्त्री की विकलता से उपजे भावनात्मक विद्रोह को समझ और परख सकता है। इसी तरह उनके गद्य में भी विचार की गहराई और विस्तार, स्मृति तथा परिवेश के सूक्ष्म प्रेक्षण से उपजी अनेक महीन अर्थछवियों को देखा जा सकता है। इस पुस्तक में उन सभी सिरों को पकड़ने का प्रयास किया गया है ताकि उनके रचना-कर्म का एक सम्पूर्ण ख़ाका बनाया जा सके।
पुस्तक के तीन खंड हैं। ‘धरोहर’ खंड में महादेवी के समकालीन पन्त और उनकी कविता के आरम्भिक भाष्यकारों की आलोचना को स्थान दिया गया है। आत्मकथन-खंड में स्वयं उन्हीं की अभिव्यक्तियों को शामिल किया गया है। साहित्य संसार में शिक्षा के सम्यक दृष्टिकोण को अकसर पर्याप्त महत्व नहीं दिया जाता। इस खंड में शामिल महादेवी का लेख ‘शिक्षा का उद्देश्य’ उनकी चिन्तन परिधि की व्यापकता का अहसास कराता है। अन्तिम खंड का शीर्षक है ‘आस्वाद के नए धरातल’। इस खंड में बिलकुल नए ढंग से महादेवी वर्मा की विभिन्न रचनाओं के भाष्य की एक पीठिका निर्मित करने का प्रयास किया गया है।
Tulsi Kavya Mimansa
- Author Name:
Uday Bhanu Singh
- Book Type:

-
Description:
तुलसीदास महाकवि थे। काव्यस्रष्टा और जीवनद्रष्टा थे। वे धर्मनिष्ठ समाज-सुधारक थे। अपने साहित्य में उन्होंने समाज का आदर्श प्रस्तुत किया, ऐसा महाकाव्य रचा जो हिन्दी-भाषी जनता का धर्मशास्त्र भी बन गया। तुलसी गगनविहारी कवि नहीं थे, उनकी लोकदृष्टि अलौकिक थी। उन्होंने आदर्श की संकल्पना को यथार्थ जीवन में उतारा। उनके द्वारा रचे गए गौरव-ग्रन्थ हिन्दी साहित्य के रत्न हैं। सौन्दर्य और मंगल का, प्रेय और श्रेय का, कवित्व और दर्शन का असाधारण सामंजस्य उनके साहित्य की महती विशेषता है।
यह तुलसी-साहित्य की विराटता ही है कि उसकी सबसे अधिक टीकाएँ रची गई हैं। सबसे अधिक आलोचना-ग्रन्थ भी तुलसीदास पर ही लिखे गए हैं। सबसे अधिक शोध-प्रबन्धों का प्रणयन भी तुलसी पर ही हुआ है। ‘तुलसी-काव्य-मीमांसा’ भी उसी अटूट शृंखला की एक कड़ी है। इसमें तुलसीदास के दर्शन और काव्य का एक नया विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। इसके विवेच्य विषय
हैं : अध्ययन-सामग्री, तुलसीकृत रचनाओं की प्रामाणिकता, तुलसीदास का जीवनचरित, उनकी आत्मकहानी, परिस्थितियों का प्रभाव एवं उनके साहित्य में युग की अभिव्यक्ति, उनके काव्य-सिद्धान्त, काव्य का भावपक्ष अर्थात् प्रतिपाद्य विषय, उनका कलापक्ष और उनके गौरवग्रन्थ, जिनमें यहाँ ‘रामचरितमानस', ‘विनयपत्रिका’, ‘गीतावली' तथा ‘कवितावली' को लिया गया है।निस्सन्देह, तुलसीदास के अध्येताओं और जिज्ञासु पाठकों के लिए यह ग्रन्थ उपादेय होगा।
Hindi Kahani Ka Itihas : Vol. 2 (1951-1975)
- Author Name:
Gopal Ray
- Book Type:

-
Description:
यह किताब हिन्दी कहानी का इतिहास का दूसरा खंड है। पहले खंड में 1900-1950 अवधि की हिन्दी कहानी का इतिहास प्रस्तुत किया गया था। इस खंड में 1951-75 का इतिहास पेश किया जा रहा है। पहले इरादा था कि दूसरे खंड में 1951-2000 की हिन्दी कहानी का इतिहास लिखा जाए। पर सामग्री की अधिकता के कारण यह इरादा बदलना पड़ा। यह भी महसूस हुआ कि 1975 का वर्ष हिन्दी कहानी में एक पड़ाव की तरह है। मोटामोटी रूप से इस वर्ष के आसपास अनेक पुराने और नए लेखकों का कहानी-लेखन या तो समाप्त हो गया या उसकी चमक समाप्त हो गई। जो हो, दूसरे खंड की अन्तिम सीमा के लिए एक बहाना तो मिल ही गया! कहने की जरूरत नहीं कि तीसरे खंड में 1976-2000 की कहानी का इतिहास प्रस्तुत करना अभिप्रेत है।
इस पुस्तक में उर्दू-हिन्दी और मैथिली-भोजपुरी-राजस्थानी के लगभग 300 कहानी लेखकों और 5000 से अधिक कहानियों का कमोबेश विस्तार के साथ विवेचन या उल्लेख किया गया है। कहानीकारों और किसी भी कारण चर्चित, उल्लेखनीय और श्रेष्ठ कहानियों की अक्षरानुक्रम सूची अनुक्रमणिका में दे दी गई है। हमारा यह दावा निराधार नहीं है कि इसके पहले किसी इतिहास-ग्रन्थ में इतनी संख्या में कहानीकारों और कहानियों का उल्लेख उपलब्ध नहीं है।
–भूमिका से
Bhagat Singh Ki Pistaul Ki Khoj
- Author Name:
Jupinderjit Singh
- Book Type:

- Description: शहीद भगत सिंह किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। हम सब जानते हैं कि उन्होंने 17 दिसंबर, 1928 को ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जे.पी. सांडर्स की हत्या अमेरिका में बने एक .32 कोल्ट पिस्टल से की थी। लेकिन हम यह नहीं जानते कि उसके बाद उस पिस्टल का क्या हुआ और कैसे यह स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन गई थी। हम यह भी नहीं जानते कि उस हुतात्मा ने फिर कभी किसी की हत्या क्यों नहीं की। वह पिस्टल 86 वर्षों तक इतिहास की परतों में और सरकारी दस्तावेजों के अनुसार तब तक गुम ही रही, जब तक कि इस पुस्तक के लेखक ने उस हथियार के सफर का पता नहीं लगा लिया और उसे लोगों के सामने लेकर नहीं आए। क्या थी उस पिस्टल की रहस्यमयी कहानी ? कैसे भगत सिंह शायद महात्मा गांधी से भी बड़े अहिंसा के पुजारी थे, यह जानने के लिए इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें ।
Bilhana: Makers of Indian Literature
- Author Name:
P N Kawthekar
- Book Type:

- Description: A monograph in English by P.N. Kawthekar on the 11th century Kashmiri poet.
Vivah Ki Museebaten
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

-
Description:
यह पुस्तक राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के चिन्तनपूर्ण, लोकोपयोगी निबन्धों का श्रेष्ठ संकलन है। दिनकर जी के चिन्तन-स्वरूप का विस्मयकारी साक्षात्कार करानेवाले ये निबन्ध पाठक के ज्ञान-क्षितिज का विस्तार भी करते हैं। इन निबन्धों में जहाँ एक ओर विवाह, प्रेम, काम, नैतिकता और शिक्षा जैसे विषयों पर विद्वान कृतिकार का सन्तुलित दृष्टिकोण उद्घाटित होता है, वहीं दूसरी ओर लोकतंत्र, धर्म और विज्ञान तथा मूल्य-ह्रास जैसे ज्वलन्त प्रश्नों पर उनकी प्रगतिशील दृष्टि मार्गदर्शक की भूमिका निभाती है।
भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति-पद पर कार्य करते हुए दिनकर जी ने जो अनुभव किया, उसका लेखा-जोखा प्रस्तुत है ‘शिक्षा : तब और अब’ निबन्ध में इस चेतावनी के साथ कि ‘शिक्षा का स्तर अभी भी बहुत नीचा है। अगर वह और भी नीचे लाया गया तो बेकारों की फ़ौज बढ़ेगी और उनकी फ़ौज भी, जिन्हें कोई भी काम नहीं सौंपा जा सकता।’
इसी तरह ‘पुरानी और नई नैतिकता’, ‘लोकतंत्र : कुछ विचार’, ‘धर्म और विज्ञान’, ‘मूल्य-ह्रास के पच्चीस वर्ष’ निबन्धों में सारगर्भित विचार-सूक्तियाँ ही नहीं, एक प्रबुद्ध विचारक की सामयिक चेतावनी भी है।
ये निबन्ध राष्ट्रकवि दिनकर के व्यक्तित्व को भी समझने में सहायक सिद्ध होते हैं।
समाज में अनन्त काल से प्रेम के प्रति सन्तों, चिन्तकों और शास्त्रकारों का व्यवहार पुलिस का-सा रहा है। और उन्हीं के भय से मनुष्य ने अपने चेहरे पर पवित्रता का नक़ाब लगाना मंज़ूर कर लिया, यद्यपि इस नक़ाब का उसे अभ्यास नहीं था। अथवा यों कहें कि यह नक़ाब जितने अच्छे सूत का है, उतने बारीक और महीन सूत आदमी की भीतरी ज़िन्दगी में नहीं काते जाते।
Aadhunik Kavita Yatra
- Author Name:
Ramswaroop Chaturvedi
- Book Type:

-
Description:
प्रस्तुत पुस्तक ‘आधुनिक कविता-यात्रा’ में प्रमुखतः छायावाद के उदय तक का विवेचन हुआ है। छायावाद और परवर्ती काव्य के महत्त्वपूर्ण विकास-क्रमों को इस ग्रन्थ में उठाया गया है।
आधुनिक हिन्दी कविता के राष्ट्रीय संस्कार परिवर्तन या विकास-क्रम का उल्लेख भी किया गया है। एकाधिकार देशभक्ति की सामान्य मानवीय वृत्ति सचेतन होकर राष्ट्रीयता का रूप ग्रहण करती है। और यों यह स्वचेतन राष्ट्रबोध आधुनिक संवेदना का पहला महत्त्वपूर्ण कारण और प्रमाण दोनों है।
आशा है, यह पुस्तक विधार्थियों, शोधार्थियों तथा अध्यापकों का मार्गदर्शन करने में सफल सिद्ध होगी।
Hindi Sahitya Ka Doosara Itihas
- Author Name:
Bachchan Singh
- Book Type:

-
Description:
‘हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास’ हिन्दी के मूर्द्धन्य आलोचक, चिन्तक डॉ. बच्चन सिंह की महत्त्वपूर्ण पुस्तक है।
उन्होंने भूमिका में लिखा है : ‘‘न तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ को लेकर दूसरा नया इतिहास लिखा जा सकता है और न उसे छोड़कर। नए इतिहास के लिए शुक्ल जी का इतिहास एक चुनौती है...।’’ किन्तु उन्होंने इस चुनौती को स्वीकारते हुए आगे लिखा : ‘‘रचनात्मक साहित्य पुराने पैटर्न को तोड़कर नया बनता है, तो साहित्य के इतिहास पर वह क्यों न लागू हो?’’ ‘हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास’ साहित्येतिहास के लेखन के परिप्रेक्ष्य में यही नया पैटर्न ईजाद करने का साहसिक प्रयास है।
लेखक ने पुस्तक के पहले संस्करण की भूमिका में इस नए पैटर्न की ऐतिहासिक अनिवार्यता को स्पष्ट करते हुए लिखा : ‘‘शुक्ल जी के इतिहास का संशोधित और परिवर्द्धित संस्करण सन् 1940 में छपा था। उसके प्रकाशन के बाद 50 वर्ष से अधिक का समय निकल गया। इस अवधि में अनेकानेक शोध-ग्रन्थ छपे, नई पांडुलिपियाँ उपलब्ध हुईं, ढेर-सा साहित्य लिखा गया। नया इतिहास लिखने के लिए यह सामग्री कम पर्याप्त और कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। यह भी ध्यातव्य है कि शुक्ल जी का इतिहास औपनिवेशिक भारत में लिखा गया। अब देश स्वतंत्र है। उसमें लोकतांत्रिक व्यवस्था है। भारतीय लोकतंत्र की अपनी समस्याएँ हैं। सांस्कृतिक-सामाजिक संघर्ष हैं, इन्हें देखने-समझने का बदला हुआ नज़रिया है। इस नए सन्दर्भ में यदि पिष्टपेषण नहीं करना है, तो नया इतिहास ही लिखा जाएगा।’’
यह 'दूसरा इतिहास’ इसी अर्थ में कुछ दूसरे ढंग से लिखा हुआ इतिहास है।
यह ग्रन्थ इतिहास की धारावाहिक निरन्तरता के साथ ही हिन्दी के प्रमुख साहित्यकारों और साहित्यिक कृतियों का मौलिक दृष्टि से मूल्यांकन प्रस्तुत करता है। इसके साथ ही डॉ. बच्चन सिंह ने अपने निजी दृष्टिकोण तथा साहित्यिक समझ के आधार पर इसमें बहुत कुछ नया जोड़ा है जो इस कृति को सच्चे अर्थों में हिन्दी साहित्य का विशिष्ट इतिहास प्रमाणित करता है।
Poorva-Rang
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

-
Description:
“ऐसे युग में जहाँ मान्यताएँ विवादग्रस्त और अनिश्चित हों, ऐन्द्रिय विषय ही निश्चित हैं और उन्हीं का यथातथ्य चित्रण सम्भव भी है। यही वजह है कि आज के अधिकांश किशोर तथा किशोर-मति कवि प्राकृतिक चित्रों की खोज में विकल हैं। झंझटों से बाहर निकलने का यह आसान तरीक़ा है। समाज से कम झंझट प्रकृति में है और प्रकृति में भी इन्द्रियग्राह्य प्रभावों के चित्रण में सबसे कम झंझट है।” नामवर जी ने यह टिप्पणी 1957 में 'कवि' पत्रिका के 'विशिष्ट कवि' शीर्षक स्तम्भ में मुक्तिबोध से अन्य कवियों की तुलना करते हुए की थी। उल्लेखनीय है कि इस काल-खंड में उन्होंने श्री विष्णुचन्द्र शर्मा द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘कवि' के लिए ‘कविमित्र' नाम से काफ़ी समय तक एक स्तम्भ लिखा था जिसमें वे समकालीन कविता और कवियों पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ करते थे। इस संकलन में उनमें से ज़्यादातर को ले लिया गया है।
पुस्तक में शामिल अन्य आलेख भी ज़्यादातर पाँचवें दशक में लिखे गए थे जिनमें से कुछ प्रकाशित हैं और कुछ अप्रकाशित। ऐसे अधूरे आलेख भी यहाँ जुटाए गए हैं जो किसी कारण से पूरे नहीं लिखे जा सके और जिन्हें काशीनाथ जी ने अपने पास सहेजकर रखा था। कहना न होगा कि इस पुस्तक में उस दौर के नामवर जी से हमारा परिचय होगा जब वे अपनी स्थापनाओं को आकार दे रहे थे और जिन्हें हमने बाद में आई उनकी पुस्तकों में देखा।
Bhakti Kavya-Parampara Aur Kabir
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

-
Description:
सम्पूर्ण भक्ति कविता को एक ही आँख से देखने और एक ही तराजू में तौलनेवालों की भारी भीड़ है। इस भीड़ के सदस्य भक्ति कविता के प्रगतिशील तत्त्वों और यथास्थितिवादी तत्त्वों को अलगाने का विरोध करते हैं। ऐसे लोग यह देखने में असमर्थ हैं कि भक्ति कविता के क्रान्तिकारी तत्त्वों का विरोध करनेवाली सामाजिक शक्तियों की संख्या बहुत बड़ी है।
मुक्तिबोध संगी नामवर सिंह इस पूरी राजनीति के गुब्बारे में सुई चुभोते हैं और भक्ति कविता की दूसरी परम्परा के पक्ष में प्रभावी ढंग से खड़े होते हैं।
बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक और इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में उन्होंने भक्ति, भक्ति आन्दोलन और कबीर पर पुनः-पुनः विचार किया। वे बताते हैं कि भक्ति आन्दोलन के साथ ही आधुनिक भाषाओं ने पहली बार साहित्यिक जीवन प्राप्त किया। भक्ति ने कविता की भाषा को क्रान्तिकारी ढंग से बदला। भक्ति-कविता ने काव्यभाषा का जनतांत्रीकरण ही नहीं किया, उसे रचनात्मक नवाचारों से गूँथ दिया।
कबीर की क्रान्तिकारी विरासत को अक्सर आधुनिक यथास्थितिवादियों व सुधारवादियों ने एक खास तरह से संकुचित किया। हिन्दू-मुसलमान एकता का लक्ष्य रखनेवाले विचारकों और नेताओं ने एक खास तरह से उन्हें समन्वयवाद में सीमित करने की कोशिश की। नामवर जी कबीर के रास्ते को अन्य मार्गों से अलग निरूपित करते हुए कबीर की क्रान्तिकारिता को इस प्रकरण में भी पुनः स्थापित करने की कोशिश करते हैं।
आधुनिक साम्प्रदायिकता के विकास ने भक्ति कविता की प्रासंगिकता में एक नया आयाम जोड़ा है और उसके मानवीय आदर्शों के मूल्य को कई गुना बढ़ा दिया है। इस संदर्भ में भी नामवर जी के भक्ति-कविता संबंधी विचारों को वापस देखने की जरूरत है।
इस पुस्तक में उनके भक्ति कविता और कबीर सम्बन्धी आलेखों, व्याख्यानों और साक्षात्कार-अंशों को संकलित किया गया है।
Bhashayi Swatvabodh Aur Hindi
- Author Name:
Sadanand Prasad Gupt
- Book Type:

- Description: भाषा मनुष्य की अन्यतम उपलब्धि है। भाषा के माध्यम से ही मनुष्य ने विकास के विभिन्न सोपान पार किए हैं। मानव सभ्यता के विकास की दृष्टि से संचार के क्षेत्र में भाषा को पहली क्रान्ति के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। इस क्षेत्र में लिपि दूसरी बड़ी क्रान्ति है, जिसके माध्यम से भाषा को रूपायित किया जाता है। भाषा का मनुष्य जीवन में बुनियादी महत्त्व है। भाषा संस्कार निर्माण का सबसे महत्त्वपूर्ण उपकरण है। वह केवल विचारों के सम्प्रेषण मात्र का साधन नहीं है अपितु वह सभ्यता एवं संस्कृति का वाहक भी है। भाषा का संस्कृति के साथ गहरा सम्बन्ध है। किसी भी देश की संस्कृति उस देश की भाषा में ही अभिव्यक्त होती है। महादेवी वर्मा का मानना है कि, "संस्कृति किसी भी देश के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होती है और संस्कृति तब तक गूँगी रहती है जब तक किसी भी देश के पास भाषा नहीं होती। राष्ट्र नदी, पहाड़ के भूगोल से नही बनता, यह संस्कृति और भाषा से बनता है। भाषा कोई परिधान नहीं है कि आप उसे बदल देंगे या उतार देंगे— वह व्यक्तित्व है, राष्ट्रीय व्यक्तित्व।"
Customer Reviews
0 out of 5
Book
Be the first to write a review...