Kedarnath Singh Ki Kavita
Author:
A. ArvindakshanPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 396
₹
495
Available
जीवनानुभव का विस्तार केदार जी की कविताओं की खासियत है। उनकी कविता हमारे भीतर उत्खनन का काम करती है और अपनी एक दुनिया भी सृजित करती है। उस दुनिया में हमारा प्रवेश तो आसानी से हो जाता है क्योंकि वह हमारी चिरपरिचित दुनिया है। प्रवेश के बाद की स्थिति सरल नहीं है। उनकी कविता के भीतर कई प्रतिध्वनियाँ होती हैं; ध्वनियों और प्रतिध्वनियों का वह एक जटिल संकुल है। उनमें एक समय नहीं बल्कि समय की बहुलता है।</p>
<p>साधारण अर्थ में यह सही है कि उनकी कविताएँ राजनीति के रंग-रूपों के अनुसरण में नहीं लिखी गई हैं। सम्भवतः यह उनका मकसद भी नहीं था। मनुष्य का जीवन, हमारा समय, समय की जटिलताएँ, हमारा स्वत्व, हमारा लोकजीवन, आदि-आदि उनकी कविता में विषय के रूप में आते हैं जिनमें प्रकटतः राजनीति का प्रवेश नहीं है। लेकिन इन्हीं प्रसंगों के अपने राजनीतिक आशय भी हैं। इस अर्थ में केदार जी की कविताएँ सूक्ष्मतम स्तर पर राजनीतिक हैं।</p>
<p>उनकी कविताओं का संस्कृति-पाठ ही दरअसल अनिवार्य रूप से होना है। समय-समय पर उनकी कविताएँ अपसंस्कृति के रूपकों को अवतरित करती रही हैं। अपसंस्कृति के रूपकों का यह अवतरण अपने-आप में कविता में प्रतिरोध का एक सुदृढ़ अन्तस्थल सृजित करता है। उनके यहाँ प्रतिरोध की मुखरता मुख्य नहीं है बल्कि प्रतिरोध की अन्तर्धाराएँ मुख्य हैं। यह पुस्तक उनकी कविताओं के ऐसे ही सूक्ष्म तन्तुओं को पकड़ने के प्रयास का फल है।
ISBN: 9788119133604
Pages: 168
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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‘शताब्दी के ढलते वर्षों में’ उनका बहुत पढ़ा जाने वाला संग्रह है। यहाँ शामिल निबन्धों में स्वयं अपने बारे में और साथ ही सांस्कृतिक अस्मिता के बारे में रचनाकार के आत्ममंथन की प्रक्रिया ने रूपाकार ग्रहण किया है। एक ऐसी पीड़ित किन्तु अपरिहार्य प्रक्रिया जो ‘अन्य’ के सम्पर्क में आने पर ही शुरू होती है।
निर्मल वर्मा के इन निबन्धों में यूरोप और पश्चिमी संस्कृति की उस ‘अन्यता’ की ऐसी पहचान दिखाई पड़ती है जो उनके लेखन के आरम्भिक वर्षों में उसी रूप में नहीं मिलती, जैसी वह उन्हें बाद के वर्षों में यूरोप प्रवास के दौरान प्रतीत हुई। इस ‘अन्य’ में साम्यवाद की यूरोपीय विचारधारा भी शामिल है, जिसके भीतर विघटन और विनाश के बीजों को निर्मल वर्मा ने पहली बार अपने निबन्धों में निरूपित किया था।
समाज, संस्कृति और धर्म के अलावा शुद्ध साहित्यिक प्रश्नों को तो इनकी विचार-परिधि में समेटा ही गया है, इसके अलावा कुछ विशिष्ट रचनाकारों के सृजन-कर्म पर भी निर्मल वर्मा ने दृष्टि केन्द्रित की है जिनमें प्रेमचंद, अज्ञेय, मलयज और चेख़व प्रमुख हैं। जीवन-जगत के इतने कगारों को उनकी व्यापकता में छूते हुए ये निबन्ध अपने पाट की चौड़ाई से ही नहीं, मोती निकाल लाने की लालसा में गहरे डूबने के प्रयास से भी पाठक को आकर्षित और प्रभावित करते हैं।
बीसवीं शताब्दी के वैचारिक उतार-चढ़ावों को पारदर्शी दृष्टि से अंकित करनेवाले ये निबन्ध स्वयं निर्मल वर्मा की लम्बी चिन्तन-यात्रा के विभिन्न पड़ावों को एक जगह प्रस्तुत करते हैं।
Vichar Ka Aina : Kala Sahitya Sanskriti : Ramchandra Shukla
- Author Name:
Acharya Ramchandra Shukla
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Description:
विचार का आईना शृंखला के अन्तर्गत ऐसे साहित्यकारों, चिन्तकों और राजनेताओं के ‘कला साहित्य संस्कृति’ केन्द्रित चिन्तन को प्रस्तुत किया जा रहा है जिन्होंने भारतीय जनमानस को गहराई से प्रभावित किया। इसके पहले चरण में हम मोहनदास करमचन्द गांधी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, राममनोहर लोहिया, रामचन्द्र शुक्ल, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ और गजानन माधव मुक्तिबोध के विचारपरक लेखन से एक ऐसा मुकम्मल संचयन प्रस्तुत कर रहे हैं जो हर लिहाज से संग्रहणीय है।
रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी साहित्य के ऐसे प्रस्थान बिन्दु हैं जिनसे टकराए बिना हिन्दी साहित्य का कोई इतिहास मुमकिन नहीं हैं। इसी तरह वे हिन्दी आलोचना के भी आदि पूर्वज हैं। हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखते हुए उन्होंने तार्किक ढंग से न सिर्फ उसका काल-विभाजन प्रस्तुत किया बल्कि मध्यकालीन कवियों के पाठ-भेद के बीच सही पाठ तक पहुँचने की राह भी दिखाई। आलोचना को अधुनातन विचारों से जोड़ते हुए एक मान्य कैनन दिया। उनके निबन्धों ने भारतीय चित्त की मीमांसा के नए द्वार खोले। वे हिन्दी साहित्य की अनेक बहसों के भी प्रस्थान बिन्दु हैं। हमें उम्मीद है कि उनके कला, साहित्य और संस्कृति सम्बन्धी लेखन को पढ़ते हुए हिन्दी समाज की निर्मिति को समझने के सही और सटीक सूत्र मिलेंगे।
Hindi Ka Sanganakiya Vyakaran
- Author Name:
Dhanji Prasad
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Description:
भाषा की आन्तरिक व्यवस्था अत्यन्त जटिल है। इसके दो कारण हैं—भाषा व्यवस्था का विभिन्न स्तरों पर स्तरित होते हुए भी सभी स्तरों का एक दूसरे से सम्बद्ध होना तथा मानव मस्तिष्क द्वारा किसी भी प्रकार से अभिव्यक्ति का निर्माण करना और उसे समझ लेना। अत: भाषा में प्राप्त होनेवाली विभिन्न प्रकार की जटिलताओं के कारण कम्प्यूटर पर संसाधन की दृष्टि से किसी पुस्तक का लेखन अत्यन्त चुनौतीपूर्ण कार्य रहा है। फिर भी हिन्दी को लेकर यह आरम्भिक प्रयास किया गया है। यह पुस्तक हिन्दी के पूर्णत: मशीनी संसाधन का दावा करते हुए प्रस्तुत नहीं की जा रही है, बल्कि यह उस दिशा में एक क़दम मात्र है। इसके माध्यम से प्राकृतिक भाषा संसाधन (NLP) के क्षेत्र में कार्य कर रहे लोगों को हिन्दी का मशीन में संसाधन करने को एक दृष्टि (Sight ) प्राप्त हो सके, यही लेखक का उद्देश्य है। वैसे हिन्दी के मशीनी संसाधन को लेकर 1990 के दशक से ही कार्य हो रहे हैं, और पर्याप्त मात्रा में यह कार्य हो भी चुका है, किन्तु आम विद्यार्थियों, शोधार्थियों और इस क्षेत्र में रुचि रखनेवाले विद्वानों के लिए उसकी तकनीकी उपलब्ध नहीं है, जिससे कोई नया व्यक्ति इस दिशा में कार्य कर सके। हिन्दी माध्यम से तो ऐसी सामग्री का पूर्णत: अभाव है। विभिन्न प्रकार के शोधों द्वारा यह प्रमाणित हो चुका है कि कोई भी व्यक्ति अपनी मातृभाषा में मौलिक कार्य अधिक दक्षतापूर्वक कर सकता है। इसलिए हिन्दी के मशीनी संसाधन की सामग्री किसी भी अन्य भाषा के बजाय हिन्दी में ही होनी चहिए। इस पुस्तक को प्रस्तुत करने का एक मुख्य उद्देश्य इस कथन की पूर्ति करते हुए हिन्दी को इस दिशा में यथासम्भव आत्मनिर्भर बनाना भी है।
—भूमिका से
Rashtrabhasha Hindi Samasyaye Aur Samadhan
- Author Name:
Aacharya Devendranath Sharma
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Description:
हिन्दी राष्ट्रभाषा बन गई, राजभाषा का दर्जा भी पा गई, लेकिन यह एक दुखद सत्य है कि स्वतंत्रता के इतने वर्ष बाद भी उसकी राह के रोड़े और समस्याएँ कमोबेश बनी हुई हैं। समस्याएँ अन्दरूनी भी हैं और बाह्य भी। अन्दरूनी समस्याओं का समाधान ढूँढ़ना तो भाषाविज्ञानियों और विद्वानों का ही है, किन्तु बाह्य समस्याओं का समाधान पूरे राष्ट्र की मानसिक जागरूकता पर निर्भर करता है। भारत जैसे बहुजातीय, बहुभाषी देश में राष्ट्रभाषा की राह में रोड़े आना अस्वाभाविक नहीं है, किन्तु जागरूक राष्ट्र के लिए उन्हें हल कर लेना भी कठिन नहीं है।
प्रस्तुत पुस्तक के विद्वान् लेखक देवेन्द्रनाथ शर्मा ने राष्ट्रभाषा हिन्दी की सभी समस्याओं पर बड़ी गहराई से अध्ययन करके उनका समाधान खोजने का स्तुत्य प्रयास किया है। उन्होंने समस्याओं पर चिन्तन करने के पूर्व भाषा, धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता के अन्तर्सम्बन्ध पर गहन विचार करने के पश्चात् हिन्दी के महत्त्व का गहराई से विवेचन किया है, जिससे इस भाषा के राष्ट्रभाषा का स्वरूप और उसकी अनिवार्यता पूरी तरह स्थापित हो जाती है। इसी सन्दर्भ में विद्वान् लेखक ने हिन्दी भाषा की सरलता का विवेचन किया है। किसी भाषा के राष्ट्रभाषा बनने के लिए उसका सरल होना एक अनिवार्य शर्त है। इस सम्बन्ध में विचार करते समय हिन्दी के और अधिक सरलीकरण पर भी विचार किया गया है।
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