Krantikari Yashpal : Ek Samarpit Vyaktitva
Author:
MadhureshPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 240
₹
300
Unavailable
साम्राज्यवादी शोषण और दासता के विरुद्ध उद्वेलित भारत ने जिन नौजवानों को जन्म देकर क्रान्ति की दिशा में बढ़ने को प्रेरित किया, उनमें यशपाल अत्यन्त भास्वर तेजोद्दीप्त, और इसीलिए सबसे भिन्न दिखाई पड़ते हैं। भिन्न इस अर्थ में कि अन्य क्रान्तिकारियों के निकट क्रान्ति जब ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध हिंसात्मक कार्यों और लूट-मार तक सीमित थी, तब यशपाल के निकट इसका कुछ और महत्तर और अधिक व्यापक अर्थ था और वह यह कि शोषणपरक विदेशी शासन से राजनीतिक मुक्ति तो मिले ही, शासन-व्यवस्था (समाज-व्यवस्था) भी बदले; अर्थात् शासन-सूत्र का हस्तान्तरण तो वे चाहते ही थे, शासन-पद्धति में भी परिवर्तन चाहते थे। यही बात यशपाल को उनके अन्य साथियों से भिन्न भूमि पर अवस्थित करती है। वस्तुतः वैचारिक स्तर के जिस उच्च धरातल पर खड़े होकर यशपाल सोच रहे थे, वहाँ तक उनके साथी नहीं पहुँचे थे। यही कारण है कि यशपाल को अपने साथियों के बीच कई भ्रान्तियों का शिकार होना पड़ा।</p>
<p>रचनाकार के रूप में यशपाल के आविर्भाव के पहले कथा-साहित्य में प्रेमचन्द का अवतरण हो चुका था और कथा-साहित्य को रहस्य-रोमांस तथा तिलिस्म की दुनिया से उबारकर सामाजिक यथार्थ के ठेठ आमने-सामने खड़ा कर वे एक नए प्रवर्त्तन का कार्य सम्पन्न कर चुके थे। सामाजिक यथार्थ के पथ पर चलते हुए एक के बाद एक उनकी अनेक जीवन्त उपलब्धियाँ भी सामने आ चुकी थीं। उनके द्वारा हिन्दीभाषी एक विशाल पाठक-समाज की रुचियों का परिष्कार और संस्कार हुआ था। अब वह ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ जैसे उपन्यासों में रस लेनेवाला पाठक-समाज न रहकर ‘सेवासदन’, ‘रंगभूमि’ और ‘गोदान’ जैसी कृतियों को अंगीकार कर चुका था। सामाजिक यथार्थ की राह पर चलते हुए प्रेमचन्द ने उसे इतना प्रशस्त कर दिया था कि परवर्ती रचनाकारों को उस पथ पर चलने में किसी भी प्रकार की झिझक और कठिनाई न हो, बशर्ते कि वे सही अर्थों में एक ज़िम्मेदार लेखन का संकल्प लेकर रचना के क्षेत्र में उतरे हों। किन्तु प्रेमचन्द जिस चीज़ को पाना चाहकर भी अपनी असामयिक मौत के कारण नहीं पा सके थे, और जो बस कौंधकर ही उनकी परवर्ती रचनाओं में रह गई थी, वह चीज़ यथार्थ के प्रति वह वैज्ञानिक दृष्टि थी, जो उनके निधन के साथ प्रगतिशील आन्दोलन और समाजवाद का अंग बनकर सामने आई। यशपाल चूँकि इसी प्रगतिशील आन्दोलन की उपज हैं, अतः सहज ही उन्हें यथार्थ के प्रति यह वैज्ञानिक दृष्टि प्राप्त हुई। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक ही माना जाएगा कि यशपाल यथार्थ को, प्रेमचन्द द्वारा मिली इस विरासत को समाजवाद के आलोक में और भी सम्पन्न करके प्रस्तुत करते। उनके सामने सवाल प्रेमचन्द की इस विरासत के संरक्षण का ही नहीं, संवर्धन का भी था, और एक योग्य उत्तराधिकारी के रूप में यशपाल ने उसे संवर्धित भी किया।</p>
<p>अपने युग के यथार्थ को जितनी व्यापकता, विस्तार तथा संश्लिष्टता से, उसके सारे ज्वलन्त प्रश्नों के साथ यशपाल ने चित्रित किया है, वैसा कम देखने को मिलता है। एक प्रतिबद्ध तथा सामाजिक दृष्टि से सम्पन्न रचनाकार होने के नाते अपने युग के यथार्थ का चित्रण मात्र करके उन्होंने छुट्टी नहीं ली है, वरन् वर्तमान जीवन के मूलभूत प्रश्नों को कुरेद-कुरेदकर उन पर तीखी टिप्पणियाँ भी की हैं, सार्थक निष्कर्ष भी दिए हैं। जितनी निर्ममता से उन्होंने युग की सामन्तवादी-पूँजीवादी मनोवृत्तियों पर चोट की है, जितनी निर्भीकता से समाज के अतिचार तथा उसके ज़िम्मेदार व्यक्ति तथा संस्थाओं का पर्दाफ़ाश किया है, जितने दो-टूक ढंग से उच्चवर्गीय नैतिकता तथा झूठी आभिजात्य-भावना के खोखलेपन को उजागर किया है, मध्यवर्गीय आडम्बरों की धज्जियाँ उड़ाई हैं, उतनी ही आत्मीयता से समाज के पिसते हुए जन-समुदाय, किसान, मज़दूर, नारी, अछूत, वेश्याओं, पतिताओं तथा ठुकराई गई समस्त मनुष्यता को देखा है, और उसकी आशाओं, आकांक्षाओं, स्वप्नों तथा संघर्षों को उभारा है। यशपाल की यह दृष्टि ही एक प्रगतिशील चेतना से सम्पन्न यथार्थनिष्ठ रचनाकार के रूप में उन्हें प्रतिष्ठा देती है।
ISBN: 9788180312588
Pages: 304
Avg Reading Time: 10 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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- Description: संवेदनशील मन के राष्ट्रबोध की छटपटाहट जब अभिव्यक्त होने को मचलती है तब आती है ‘आजादी बनाम फाँसी अथवा कालापानी’ जैसी कृति। भारतीयों के लिए काला पानी केवल शब्द या भू-खंड की संज्ञा नहीं है। वह भारत के हुतात्माओं के बलिदानों की, ब्रिटिश साम्राज्यवाद की क्रूर यातनाओं की कहानी का जीवंत इतिहास है। निस्संदेह अहिंसक सत्याग्रह ने सामान्य जन के मन में स्वतंत्रता की ज्वाला को प्रज्वलित रखा लेकिन उन हुतात्माओं के बलिदानों की अनदेखी नहीं की जा सकती, जो हँसते-हँसते भारतमाता को स्वतंत्र कराने का सपना लेकर फँसी के फंदों पर चढ़ गए और मरते-मरते भी ‘वंदे मातरम्’ का जयघोष करते रहे। इस रक्तरंजित इतिहास का बार-बार स्मरण वही कर सकते हैं जिनके हृदयों ने राष्ट्रबोध को आत्मसात कर लिया है। इस कृति के रचनाकार श्री रघुनंदन शर्मा उस आत्मबोध को कहते ही नहीं, स्वयं जीते भी हैं। देश की नई पीढ़ी स्वतंत्रता संघर्ष की अनेक गाथाओं से अपरिचित है। प्रस्तुत पुस्तक उस इतिहास को सीधी सरल भाषा में उन तक पहुँचा देगी। यह इसलिए भी आवश्यक है कि हम उस पराधीन मानसिकता से मुक्त हों, जिसके कारण यह भुला दिया गया है कि भारत राजनीतिक रूप से भले ही पराधीन रहा हो, पर उसने स्वतंत्रता के मूल्य को संरक्षित रखने के लिए बडे़-से-बड़ा बलिदान देने की आत्म सजगता को बनाए रखा। —कैलाशचंद्र पंत (मंत्री संचालक म.प्र. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति)
Hindi Ka Vishva Sandarbha
- Author Name:
Karunashankar Upadhyay
- Book Type:

-
Description:
हिन्दी को वैश्विक सन्दर्भ प्रदान करने में विश्वभर में फैले हुए तीन करोड़ से ज़्यादा प्रवासी भारतीयों का विशेष प्रदेय है। वे हिन्दी के द्वारा अन्य भाषा-भाषियों के साथ सांस्कृतिक संवाद क़ायम करते हैं। आज हिन्दी विश्व के सभी महाद्वीपों तथा राष्ट्रों—जिनकी संख्या एक सौ चालीस से भी अधिक है—में किसी-न-किसी रूप में प्रयुक्त हो रही है। इस समय वह विश्व की तीन सबसे बड़ी भाषाओं में से है। वह विश्व के विराट फलक पर नवलचित्र के समान प्रकट हो रही है। वह बोलनेवालों की संख्या के आधार पर मन्दारिन (चीनी) के बाद विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा बन गई है, जबकि वह जिन राष्ट्रों में प्रयुक्त हो रही है, उनके संख्या-बल की दृष्टि से वह अंग्रेज़ी के बाद दूसरे क्रमांक पर है।
हिन्दी को वैश्विक परिदृश्य प्रदान करने में फ़िल्मों, पत्र-पत्रिकाओं, प्रकाशन संस्थानों, भारत सरकार के उपायों, उपग्रह चैनलों, विज्ञापन-एजेंसियों, बहुराष्ट्रीय निगमों, यांत्रिक सुविधाओं तथा शिक्षण प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग से प्रशिक्षित पेशेवर मानव संसाधन का विशिष्ट अवदान रहा है। इसके अलावा उसमें विकसित विश्वस्तरीय साहित्य तथा साहित्यकारों का आधारभूत प्रदेय तो सर्वविदित है। ऐसी स्थिति में विश्व व्यवस्था को परिचालित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने तथा अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में प्रयुक्त होनेवाली विश्वभाषा के ठोस निकष एवं प्रतिमान पर हिन्दी का गहन परीक्षण सामयिक दौर की अपरिहार्य माँग है। इसी लक्ष्य को पाने तथा हिन्दी जगत को वैश्विक स्तर पर हिन्दी की शक्ति एवं सम्भावना से परिचित कराने के उद्देश्य को लेकर प्रस्तुत पुस्तक संकल्पित है।
यह पुस्तक विदेश यात्राओं से प्राप्त सूचना एवं अनुभव, अनवरत अध्ययन, भाषिक चिन्तन तथा हिन्दी के विकसनशील व्यक्तित्व के तमाम आयामों की वैचारिक फलश्रुति है जो ग्यारह अध्यायों में हिन्दी के विश्व सन्दर्भ के वस्तुनिष्ठ एवं तथ्यगत विश्लेषण के प्रयास की अभिव्यक्ति है। हमें विश्वास है कि यह पुस्तक हिन्दी जगत में आत्मविश्वास भरेगी और वह खुले मन से इस पुस्तक का स्वागत करेगा।
Aalochana Ka Sach
- Author Name:
Ganesh Pandey
- Book Type:

- Description: कवि-आलोचक गणेश पाण्डेय की आलोचना का रंग अलग है। एक ख़ास तरह की निजता गणेश पाण्डेय की आलोचना की पहचान है। उनकी आलोचना नए प्रश्न उठाती है। उनकी आलोचना साहित्यिक मुक्ति की बात करती है। यह पहली बार है। ‘आलोचना का सच’ कविता की पहुँच की समस्या पर तो विचार करती ही है, कवि और आलोचक के ईमान और साहस को भी कविता और आलोचना की कसौटी पर परखती है। इनके लिए आलोचना का अर्थ उसके पाठक-केन्द्रित और रचना-केन्द्रित होने में निहित है। यह आलोचना समकालीन आलोचना से गम्भीर असहमति रखती है। गणेश पाण्डेय की आलोचना एक अर्थ में समकालीन आलोचना का प्रतिपक्ष है। मुहावरे सिर्फ़ कविता में ही नहीं बनते हैं, एक ईमानदार आलोचक अपनी आलोचना का मुहावरा ख़ुद गढ़ता है। गणेश पाण्डेय अपनी आलोचना का मुहावरा ख़ुद बनाते हैं। आलोचना की सर्जनात्मक भाषा का जो प्रीतिकर वितान खड़ा करते हैं, बिलकुल नया है और हमारे समय की निर्जीव आलोचना को नई चाल में ढालने का काम करते हैं। गणेश पाण्डेय की यह पुस्तक समीक्षाओं का जखीरा नहीं है, बल्कि पुस्तक समीक्षाओं के आतंक और आलोचना के नाम पर ठस अपठनीय गद्य से पाठक को मुक्त करने की एक दिलचस्प और यादगार कोशिश है।
21vin Shati Ka Hindi Upanyas
- Author Name:
Pushppal Singh
- Book Type:

-
Description:
एक ही अध्येता द्वारा उपन्यास-साहित्य के समग्र का परीक्षण कर विशिष्ट कृति के मूल्यांकन की परम्परा का प्रायः अभाव है। एकाध प्रयत्न को छोड़कर उपन्यास-आलोचना में बड़ा शून्य है। इसी शून्य को भरने का प्रयास सुप्रसिद्ध वरिष्ठ आलोचक डॉ. पुष्पपाल सिंह प्रणीत इस ग्रन्थ में हुआ है जिसमें 21वीं शती के उपन्यास-साहित्य की समग्रता में प्रवेश कर, 2013 (के मध्य तक) के प्रकाशित उपन्यासों पर गम्भीरता से विचार का सुचिन्तित निष्कर्ष प्रतिपादित किए गए हैं। उपन्यासों के कथ्य की विराट चेतना पर विचार करते हुए दर्शाया गया है कि आज उपन्यास का क्षितिज कितना विस्तृत हो चुका है। भूमंडल की कदाचित् कोई ही ऐसी समस्या होगी जिस पर हिन्दी उपन्यास में विचार नहीं हुआ हो। भूमंडलीकृत आर्थिकता (इकॉनमी) तथा अमेरिकी संस्कृति के वर्चस्व ने न केवल भारत अपितु पूरी दुनिया में जो खलबली मचा रखी है, उस सबका सशक्त आकलन ‘21वीं शती का हिन्दी उपन्यास’ प्रस्तुत करता है। उपन्यास का चिन्तन और विमर्श-पक्ष इतना सशक्त है कि उस सबके चुनौतीपूर्ण अध्ययन में पुष्पपाल सिंह अपने पूरे आलोचकीय औज़ारों और पैनी भाषा-शैली के साथ प्रवृत्त होते हैं।
उपन्यास के ढाँचे, रूपाकार में भी इतने व्यापक प्रयोग इस काल-खंड के उपन्यास में हुए हैं जिन्होंने उपन्यास की धज ही पूरी तरह बदल दी है। उपन्यास की शैल्पिक संरचना पर हिन्दी में ‘न’ के बराबर विचार हुआ है। प्रस्ततु अध्ययन में विद्वान लेखक ने उपन्यास की शैल्पिक संरचना के परिवर्तनों का भी सोदाहरण विवेचन कर विषय के साथ पूर्ण न्याय किया है। लेखक ने उपन्यास के विपुल का अध्ययन कर उसके श्रेष्ठ के रेखांकन का प्रयास किया है किन्तु फिर भी अपने निष्कर्षों पर अड़े रहने का आग्रह उनमें नहीं है, वे सर्वत्र एक बहस को आहूत करते हैं। उपन्यास-आलोचना के सम्मुख जो चुनौतियाँ हैं, उन पर भी प्रकाश डालते हुए एक विचारोत्तेजक बहस का अवसर दिया गया है। पुस्तक के दूसरे खंड—विशिष्ठ उपन्यास खंड—में वर्षानुक्रम से अड़तीस विशिष्ट उपन्यासों का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। इन उपन्यासों की समीक्षा-शैली में इतना वैविध्य है कि वह अपने ढंग से हिन्दी आलोचना की नई समृद्धि प्रदान करता हुआ लेखकीय गौरव की अभिवृद्धि करता है। पुष्पपाल सिंह की यह कृति निश्चय ही हिन्दी आलोचना के लिए एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अवदान है।
Hindi : Kuchh Nai Chunotiya
- Author Name:
Kailash Nath Pandey
- Book Type:

-
Description:
सुप्रसिद्ध कथाकार, ललित निबन्धकार डॉ. विवेकीराय अपनी एक सुप्रसिद्ध पुस्तक में
लिखते हैं कि—“डॉ. कैलाशनाथ पाण्डेय का लेखन गम्भीर विषयों का स्पर्श करता है। आप मूलत: भाषा-
वैज्ञानिक हैं।” ज़ाहिर है, कोई भी भाषा-वैज्ञानिक किसी भी भाषा पर निरपेक्ष दृष्टि से विचार करता है। डॉ.
पाण्डेय ने भी इस पुस्तक में वही किया है। इनका मानना है कि बाज़ार के दबाव के कारण कुछ समय के
लिए हिन्दी भले ही फलकजद हो जाए, किन्तु तमाम तरह के अन्तर्विरोधों के बावजूद आज भी यह इस देश
के बहुत बड़े जन समुदाय की लचीली और उदार भाषा है।
विस्तारवादी अंग्रेज़ी की अफ़ीम फाँक उसमें ऊभने-चूभनेवाले भले ही हिन्दी को ख़ालिस देसी और निठल्ली-
पिछड़ी, गँवारू-अवैज्ञानिक भाषा घोषित करने की मुनादी करें, पर यह सच है कि अपनी ताक़त के बल पर
इसने नई बन रही दुनिया में अपनी पुख़्ता और मुकम्मल जगह बना ली है। सच तो यह है कि हिन्दी ही
नहीं, प्रत्येक भारतीय भाषा को आज अमेरिका की भूमंडलीय शक्ति और ब्रिटेन की साम्राज्यवादी तथा
पूँजीवादी व्यवस्था की पोषक, संवेदना-रहित अंग्रेज़ी से जूझना पड़ रहा है। इस आयातित विदेशी भाषा के
साथ कई तरह के क्रूर और अनैतिक सम्बन्धों के अंधड़ भी इस देश में आ गए हैं। यही समय-समय पर
हिन्दी से ताल ठोंक उसे चुनौती देते रहते हैं। अत: ऐसी स्थिति में आज ज़रूरत है, हमें यह सोचने की, कि
स्वतंत्रता संग्राम की सांस्कृतिक, भू-राजनैतिक और आर्थिक स्तर पर तेज़ आवर्त्त वाली भाषा हिन्दी का
स्वरूप कैसे बचा रह सके?
Nyay Ka Sangharsh
- Author Name:
Yashpal
- Book Type:

-
Description:
न्याय की धारणा और समाज की व्यवस्था के समान रूखे विषय की विवेचना को भी रंजक बना देना इन लेखों की सार्थकता है। भाषा प्रवाह के ऊपर तैरते हुए विद्रूप की तह में सिद्धान्तों की शिलाएँ मौजूद हैं। मनोरंजन और विद्रूप का अभिप्राय रूखे और गम्भीर विषय को रोचक बना देना ही है। इन लेखों को पढ़कर आपके होंठों पर जो मुस्कराहट आएगी, वह आत्म-विस्मृत और आनन्दोल्लास की न होकर क्षोभ, परिताप और करुणा की होगी।
इन लेखों में लेखक ने आत्म-विस्मृत समाज को क़लम की नोक से गुदगुदाकर जगाने की चेष्टा की है और समाज को करवट बदलते न देखकर कई जगह उसने क़लम की नोक समाज के शरीर में गड़ा दी है।
—नरेन्द्र देव
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