Mopala Kand-1921
Author:
Go. SthanumalayanPublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 120
₹
150
Available
1921 में केरल के मलबार में मोपलाओं द्वारा किए गए हिंदू नरसंहार के जघन्य कुकृत्य को एक शताब्दी बीत चुकी है | लेकिन इस लंबे कालखंड में भी इस बृशंस हत्याकांड के बारे में झूठा और मिथ्या दुष्प्रचार किया जाता रहा |
हिंदुओं पर अत्याचार करना, हिंदुओं की संपत्तियों को लूटना, धर्मांतरण आदि जैसे नीच कार्य करनेवालों को स्वतंत्रता सेनानी के समान जनता के सामने पेश करने का दुस्साहस वामपंथियों की बौद्धिक रीति का आक्रमण ही है ।कांग्रेस और वामपंथियों ने मोपला दंगे को स्वतंत्रता-संग्राम और किसानों के आंदोलन के रुप में प्रस्तुत कर इतिहास को बदलने का अक्षम्य कार्य किया |
साजिश के तहत मोपला दंगे को कांग्रेस व कम्युनिस्टों ने मजदूरों और जमींदारों के बीच का झगड़ा बताया | आध्यात्मिक प्रदेश केरल में बेचारी अल्पसंख्यक हिंदू जनता ने मुसलमानों के अत्याचारों और बर्बरता की जितनी यातनाएँ झेलीं, उन्हें ठोस प्रमाण के साथ लेखक ने इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है
मंदिरों को ध्वस्त करना, स्त्रियों का मान भंग करना, हिंदुओं की संपत्तियों को लूटना, हिंदुओं का जबरन धर्मांतरण कराना तथा दंगों के समय भारत के अन्य प्रदेशों से मोपलाओं को इस कुकृत्य में मदद मिली-ऐसे अनेक विषयों का भी उल्लेख लेखक ने इस पुस्तक में किया है | आज की पीढ़ी हिंदुओं के उस बीभत्स नरसंहार के पीछे की कुत्सित मानसिकता को जान पाए, इस मंतव्य से यह पुस्तक लिखी गई है |
ISBN: 9789355212221
Pages: 88
Avg Reading Time: 3 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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इस संचयन में कविता के समाज के साथ अन्तर्सम्बन्ध, उसका आत्म-संघर्ष, अमानवीयीकरण, मध्यवर्गीय चेतना, एशियाई अस्मिता, शब्दप्रयोग, बिम्ब आदि पर विचार है। इसके अतिरिक्त अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, गजानन माधव मुक्तिबोध, त्रिलोचन, कुँवर नारायण, विजय देव नारायण साही, रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, धूमिल, कमलेश और विनोद कुमार शुक्ल की कविता का विश्लेषण है।
हमारा विश्वास है कि यह सामग्री और इसके लेखक पिछले एक दशक में इस क्षेत्र में जो गम्भीर और विचारोत्तेजक हुआ है, उसमें शामिल हैं। उनके माध्यम से हमारी कविता की समझ और कवियों के संघर्ष की हमारी पहचान और परख गहरी होती है। हम उन अकारथ हो रहे पदों और अवधारणाओं से मुक्त होकर, जिनसे आज की ज़्यादातर आलोचना ग्रस्त है, नई ताज़गी और विचारोत्तेजना से अपने समय की मूल्यवान कविता, उसकी अपने समाज में जगह और शब्द के विराट् अवमूल्यन के इस क्रूर समय में कविता की भाषा के अनेकार्थी और बहु-स्तरीय जीवट और संघर्ष को समझ सकते हैं। यह आलोचना कविता के साथ है...उससे युगपत है। जैसे हमारी कविता में जीवन, अनुभव और भाषा को समझने और विन्यस्त करने के अनेक स्तर और प्रक्रियाएँ हैं, हमारी आलोचना में भी कविता और उसके माध्यम से अपने समय और उसकी उलझनों तक पहुँचने और उन्हें परिप्रेक्ष्य देने के अनेक स्तर और दृष्टियाँ सक्रिय हैं। जैसे कि कविता में वैसे ही, सौभाग्य से, आलोचना में रुचि और दृष्टि का प्रजातंत्र है।
हम इस प्रसन्न विश्वास के साथ यह संचयन प्रस्तुत कर रहे हैं कि यहाँ एकत्र आलोचना कवितादर्शी और जीवनदर्शी है : अख़बारी सतहीपन और सनसनीखेजी, वैचारिक एकरसता के आत्मतुष्ट समय में वह हमें अपनी सूक्ष्मता और जटिलता से विचलित कर कविता की अर्थसमृद्ध और गहरी समझ की ओर ले जाने में समर्थ आलोचना है।
—भमिका से
Shabd Aur Deshkal
- Author Name:
Kunwar Narain
- Book Type:

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कवि और चिन्तक के रूप में कुँवर नारायण का हस्तक्षेप हिन्दी साहित्य में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः वे कविर्मनीषी के रूप में सर्वसमादृत हैं।
‘शब्द और देशकाल’ पुस्तक कुँवर नारायण की विचार-सम्पदा का एक अनूठा उदाहरण है। इसमें विभिन्न विशिष्ट अवसरों पर दिए गए उनके व्याख्यानों के साथ कुछ लेख भी उपस्थित हैं। भाषा, साहित्य, समाज, मीडिया, अनुवाद और अन्य प्रश्नों पर केन्द्रित उनके विचार ध्यानपूर्वक पढ़े जाने की माँग करते हैं। कुँवर जी की केन्द्रीय चिन्ता जीवन को समरस बनाने की है। इस क्रम में शाश्वत सन्दर्भों के साक्ष्य उभरते हैं। साथ ही, वर्तमान विश्व जिस अन्याय-अनाचार से त्रस्त है, उसके मानवीय समाधान की दिशाएँ भी प्रशस्त होती हैं।
‘साहित्य के सामाजिक सरोकार के माने’ में कुँवर जी कहते हैं, ‘इतना ही काफ़ी नहीं कि साहित्य जीवन के दैनिक और व्यावहारिक पक्ष से ही अपनी पहचान बनाए। अगर समाज का आत्मिक और नैतिक पक्ष भी नहीं उभरता तो साहित्य का काम अधूरा रह जाएगा।’
कुँवर नारायण बहुअधीत रचनाकार हैं। यही कारण है कि उनका लेखन देश और काल की सीमित और सुविदित परिधियों का विस्तार करता है। ‘विश्व विवेक’ के साथ चिन्तन करनेवाले कुँवर नारायण के ये आलेख पाठक को तात्त्विक रूप से बसंशोधित और समृद्ध करते हैं। स्मृति, विचार, रचना और बोध के विरुद्ध खड़े समय-समाज के सम्मुख कुँवर जी एक मानवीय पक्ष उद्घाटित करते हैं। पढ़े और गुने जाने योग्य एक संग्रहणीय पुस्तक।
Aadhunik Hindi Kavya Aur Puran Katha
- Author Name:
Malti Singh
- Book Type:

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प्राचीनता पुराणों का गुण है, लेकिन वे नव्या, नूतन और नवीन भी हैं। अमरकोशकार ने इनकी इस विशेषता की ओर संकेत किया है—प्रत्यग्रोऽभिनवो नव्यो नवीनो नूतनो नवः। इस दि्-आयामी विशेषता के कारण पुराणकथाएँ प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक साहित्य की उपजीव्य बनती रही हैं।
आधुनिक हिन्दी-काव्य में भारतेन्दु युग से लेकर अब तक पुराणकथाओं के प्रयोग की विस्तृत, विविध एवं अविछिन्न परम्परा प्राप्त होती है। विशेष बात यह है कि आधुनिक हिन्दी-काव्य में प्रयुक्त पुराणकथाएँ, पुराण निर्दिष्ट आशय से भिन्न, परिवर्तित होती हुई काव्य-चेतना के परिप्रेक्ष्य में नवीन भावों से अनुवेशित होकर नितान्त नवीन सन्दर्भों की सृष्टि करती हैं।
भारतीय जनता की स्वातंत्र्य-चेतना एवं जीवित जोश को अभिव्यक्ति के लिए पौराणिक कथा-प्रसंगों एवं पत्रों का उपयोग भारतेन्दुयुगीन एवं द्विवेदीयुगीन कवियों की विवशता बन गई थी। छायावादी सूक्ष्म भावानुभूती एवं विचारानुभूती की अभिव्यक्ति के लिए पौराणिक कथाएँ सशक्त माध्यम सिद्ध होती हैं। भौतिक यथार्थवाद को स्वीकृति प्रदान करनेवाले प्रगतिवादी कवियों ने भी पुराणिक प्रतीकों का प्रयोग ख़ूब किया है।
Nirgun Santon Ke Swapana
- Author Name:
David N. Lorenzen
- Book Type:

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साहित्यिक बिरादरी से बाहर निकलकर व्यापक भारतीय समाज को देखें तो कबीर, तुकाराम, तुलसी, मीरा, अखा, नरसी मेहता आज भी समकालीन हैं। भक्त कवि हिन्दी समाज के रोज़मर्रा के जीवन में किसी भी अन्य कवि से अधिक उपस्थित हैं। ‘निरक्षर’ हिन्दीभाषी भी कबीर के चार-छह दोहों और तुलसी की दो-चार चौपाइयों से तो वाक़िफ़ हैं ही। हिन्दी समाज नियतिबद्ध है—भक्त कवियों से सतत संवाद करने के लिए। सवाल यह है कि क्या हिन्दी की समकालीन साहित्यिक चिन्ताओं में यह नियति प्रतिबिम्बित होती है?
भारत और अन्य समाजों की देशज आधुनिकता और उसमें औपनिवेशिक आधुनिकता द्वारा उत्पन्न किए गए व्यवधान को समझना अतीत, वर्तमान और भविष्य का सच्चा बोध प्राप्त करने के लिए ज़रूरी है। साहित्य को इतिहास-लेखन का स्रोत मात्र (सो भी दूसरे दर्जे का!) और किसी विचारधारात्मक प्रस्ताव का भोंपू मानकर नहीं, बल्कि उसकी स्वायत्तता का सम्मान करते हुए पढ़ने की पद्धति पर चलते हुए भक्ति-काव्य को पढ़ें तो कैसे नतीजे हासिल होते हैं?
भक्ति साहित्य के विख्यात अध्येता पुरुषोत्तम अग्रवाल के सम्पादन में नियोजित ‘भक्ति मीमांसा’ पुस्तक-शृंखला ऐसी ही पढ़त की दिशा में एक कोशिश है। विभिन्न भक्त कवियों, रचनाओं और प्रवृत्तियों के अध्ययन इसमें प्रकाशित किए जाएँगे।
इस शृंखला की यह पहली पुस्तक अग्रणी इतिहासकार डेविड लॉरेंजन के निबन्धों का संकलन है। पिछले दो दशकों में प्रकाशित इन शोध-निबन्धों में ‘निर्गुण सन्तों के स्वप्न’ और उनकी परिणतियों के अनेक पहलू अत्यन्त विचारोत्तेजक और प्रमाणपुष्ट ढंग से पाठक के सामने आते हैं। ‘गोरखनाथ और कबीर की धार्मिक अस्मिता’ निबन्ध अंग्रेज़ी में प्रकाशित होने के पहले ही इस संकलन के ज़रिए हिन्दी पाठकों के सामने आ रहा है। डेविड लॉरेंजन द्वारा प्रस्तावित ‘जाति-निरपेक्ष’ या अवर्णाश्रमधर्मी’ हिन्दी परम्परा की अवधारणा से गुज़रते हुए, पाठक को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. रामविलास शर्मा और डॉ. नामवर सिंह का ‘लोकधर्म’ विषयक विचार-विमर्श स्वाभाविक रूप से याद आएगा।
कबीरपंथ के सांस्कृतिक इतिहास और स्वरूप में निहित सामाजिक प्रतिरोध का विवेचन करते हुए डेविड कबीरपंथ के सामाजिक आधार की व्यापकता रेखांकित करते हैं। वे बताते हैं कि कबीरपंथी ‘भगत’ कबीरपंथ को आदिवासी समुदायों तक भी ले गए; और इस तरह उन्होंने ब्राह्मण वर्चस्व से स्वायत्त समुदाय की रचना में योगदान किया।
इन निबन्धों में निहित अन्तर्दृष्टियों से निर्गुणपंथी परम्परा के बारे में ही नहीं, भारतीय इतिहास मात्र के बारे में भी आगे शोध के लिए प्रस्थानबिन्दु प्राप्त होते हैं।
Madhyakaleen Hindi Kavya Bhasha
- Author Name:
Ramswaroop Chaturvedi
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काव्यभाषा साहित्य चिन्तन की नई दिशा है। इस दृष्टि से यहाँ समूचे मध्यकालीन काव्य को एक साथ देखने-परखने का पहली बार प्रयास हुआ है। आधुनिक समीक्षा-प्रक्रिया और मध्यकालीन काव्य-धारा का यह सम्पर्क जितना जीवन्त है, उतना ही विचारोत्तेजक भी। सन्त कबीरदास से लेकर आचार्य भिखारीदास तक सभी प्रमुख भक्तिकाल और रीतिकाल के कवियों पर अलग-अलग अध्ययन है। भाषा, शिल्प, विधान के विविध पक्षों को इस कृति में एक सार्थक अन्विति मिलती है, जहाँ कविता बनने की प्रक्रिया ही समीक्षा के केन्द्र में है। अन्त में कई परिशिष्ट अध्ययन को व्यावहारिक स्तर पर उपयोगी बनाते हैं।
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