Karl Marx : Kala Aur Sahitya Chintan
Author:
Namvar SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 556
₹
695
Available
कार्ल मार्क्स की दिलचस्पी के मुख्य विषय दर्शन, राजनीति और अर्थशास्त्र थे, लेकिन प्रसंगतः उन्होंने कला और साहित्यशास्त्र की समस्याओं पर भी गम्भीर और महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किए हैं। पिछले सात-आठ दशकों के दौरान इन बिखरे हुए विचारों को एकत्र करके उनकी मीमांसा करने का प्रयास लगातार चलता रहा और विश्व की अनेक भाषाओं में इस विषय पर बहुत कुछ लिखा गया तथा मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र का एक समग्र रूप विकसित किया गया। इस प्रक्रिया में मार्क्स के कला और साहित्य विषयक विचारों पर मार्क्सवादी और ग़ैर-मार्क्सवादी दोनों ही तरह के लेखकों ने अपने विचार प्रकट किए हैं, और डॉ. नामवर सिंह द्वारा सम्पादित प्रस्तुत संकलन में इन दोनों ही धाराओं के लेखकों के विचारों को संकलित किया गया है।</p>
<p>कार्ल मार्क्स ने कला और साहित्य विषयक जिन प्रश्नों पर विचार किया है, उनमें से कुछ हैं—कला का मनुष्य के कर्म से सम्बन्ध; सौन्दर्यशास्त्र का स्वरूप, कला के सामाजिक और रचनात्मक पहलू, सौन्दर्यानुभूति का सामाजिक स्वरूप, विचारधारात्मक अधिरचना में कला; कला या साहित्यिक कृति का वर्गीय आधार और उसकी सापेक्षिक स्वायत्तता; कला का यथार्थ से सौन्दर्यशास्त्रीय रिश्ता, विचारधारा और संज्ञान; पूँजीवादी व्यवस्था में कलात्मक सृजन तथा माल का उत्पादन, कला में दीर्घजीविता के तत्त्व और उपकरण, रूप और अन्तर्वस्तु का रिश्ता; कला के सामाजिक उद्देश्य, कला की लौकिकता का स्वरूप आदि। प्रस्तुत पुस्तक में संकलित लेखों को पढ़कर पाठक साहित्य और कला से सम्बन्धित इन सभी मुद्दों से परिचित हो सकेगा। मोटे तौर पर यह पुस्तक मार्क्सवादी कला और साहित्य-चिन्तन में होनेवाली बहसों से पाठक का परिचय कराएगी तथा एक हद तक इस विषय में उनकी दृष्टि निर्मित करने में भी मदद करेगी। इस पुस्तक से मार्क्सवादी साहित्य और कला-चिन्तन की गहराई में जाकर उसका अध्ययन करने का रास्ता भी साफ़ होगा।
ISBN: 9788126705634
Pages: 216
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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‘गीतावली’ को ध्यान से पढ़ने पर 'रामचरितमानस’ और ‘विनयपत्रिका’ की अनेक पंक्तियों की अनुगूँज सुनाई पड़ती है। ‘रामचरितमानस’ के मार्मिक स्थल ‘गीतावली’ में भी कथा-विधान के तर्क से हैं और वर्णन की दृष्टि से भी उतने ही मार्मिक बन पड़े हैं। लक्ष्मण की शक्ति का प्रसंग भ्रातृभक्ति का उदाहरण ही नहीं है किसी को भी विचलित करने के लिए काफ़ी है। भाव संचरण और संक्रमण की यह क्षमता काव्य विशेषकर महाकाव्य का गुण माना जाता है।
‘गीतावली’ में भी कथा का क्रम मुक्तक के साथ मिलकर भाव संक्रमण का कारण बनता है। कथा का विधान लोक सामान्य चित्त को संस्कारवशीभूतता और मानव सम्बन्धमूलकता के तर्क से द्रवित करने की क्षमता रखता है। ‘मो पै तो कछू न ह्वै आई’ और ‘मरो सब पुरुषारथ थाको’ जैसे राम के कथन सबको द्रवित करते हैं। यह प्रकरण वक्रता मात्र नहीं है, बल्कि प्रबन्धवक्रता के तर्क से ही प्रकरण में वक्रता उत्पन्न होती है। असंलक्ष्यक्रमव्यंगध्वनि के द्वारा ही यहाँ रस की प्रतीति होती है। राग-द्वेष, भाव-अभाव मूलक पाठक या श्रोता जब निबद्धभाव के वशीभूत होकर भावमय हो जाते हैं तो वे नितान्त मनुष्य होते हैं और काव्य की यही शक्ति ‘गीतावली’ को भी महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कृति बना देती है।
Hindi Sahitya Ka Itihas Punarlekhan Ki Avashyakta
- Author Name:
Pukhraj Maroo
- Book Type:

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Description:
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी साहित्य-लेखन की रामकथा के वाल्मीकि हैं, कोई भी साहित्येतिहासकार उनकी उपेक्षा नहीं कर सकता। यह कहना अनुचित न होगा कि आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल की जैसी रंगारंग और जीवित पारदर्शियाँ हमें उनके इतिहास में मिलती हैं, वैसी आधुनिक साहित्य के बारे में नहीं मिलती हैं। इस दृष्टि से हिन्दी साहित्येतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता महसूस की जाती है।
इसके अलावा शुक्ल जी के बाद कई दशकों में फैला तकनीक क्रान्ति, और संचार तथा सूचनाओं का विस्फोटक दौर हमारे सामने है। इन वर्षों का हिन्दी साहित्य भाषा की दृष्टि से, अनुभव की दृष्टि से, ज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त विविध और सम्पन्न साहित्य है। सभ्यता, संस्कृति और विश्व-साहित्य के संगम-काल के इस साहित्य का विवेचन और दस्तावेज़ीकरण भी अब एक बड़ी आवश्यकता है।
यह पुस्तक ऐसे ही अन्य घटकों पर भी नज़र डालती है जो साहित्येतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं। साथ ही इसमें इतिहास-लेखन के अब तक के इतिहास के हर चरण को विस्तार से विवेचित किया गया है जो अध्येताओं और विद्यार्थियों के लिए विशेष पठनीय है। आचार्य शुक्ल लिखित इतिहास के बाद हिन्दी में साहित्येतिहास-लेखन के जो अन्य प्रयास हुए उनका विशद विश्लेषण और तथ्यगत जानकारी भी दी गई है। आधुनिक हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं, और इतिहास-लेखन की दृष्टि से उनका मूल्यांकन भी लेखक ने किया है।
Kavyatmakata Ka DikKal
- Author Name:
Shri Naresh Mehta
- Book Type:

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Description:
काव्य पर विचार करना बहुत आसान भी हो सकता है और कठिन भी। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि हम किस अयन में खड़े होकर काव्य को देख रहे हैं तथा उसके साथ हमारा अक्षांश-देशान्तर क्या है। यदि काव्य हमारे लिए केवल मनोरंजन, या तात्कालिक प्रतिक्रिया, या फतवेबाज़ी है तो काव्य की इस प्रकृति, स्वरूप और सत्ता को जानने में कोई ख़ास परेशानी नहीं होगी, लेकिन यदि वह हमारे लिए एक गम्भीर सृजनात्मक कर्म या रचनात्मक दायित्व तथा सत्ता है जिससे हम ग्रथित हैं तो हमारी जिज्ञासा और पड़ताल का दायरा शायद बहुत अधिक गहन और विशाल होगा।
सृष्ट जीवन को पुन: रचकर काव्य एक प्रतिजीवन बनकर अपनी सृजनात्मक उपस्थिति से जीवन पर देश और काल में प्रश्नचिह्न लगाता चलता है, इसीलिए काव्य का न तो कोई देश होता है और न ही कोई काल। जीवन की सार्वदेशिकता तथा शाश्वतता की तरह ही काव्य भी सार्वदेशिक और शाश्वत होता है।
यदि हम वास्तव में काव्य को जानना चाहते हैं तो सम्भव है, हमें साहित्य की अपनी क्षेत्रीय समझ और वर्तमानवादी आग्रही दृष्टि को विस्तृत करना होगा, अन्यथा वह बाधा बन जाएगी। वैसे सर्वथा अनाग्रही होना तो शायद सम्भव भी नहीं और कुछ होता भी नहीं, फिर भी यदि एक प्रकार का वैचारिक खुलापन देश और काल दोनों स्तरों पर बनाए रख सकें तो हम काव्य की दिशा में बढ़ सकते हैं। यह वैचारिक खुलापन ही कुतुबनुमा का काम करेगा।
इस पुस्तक में मनीषी कवि श्रीनरेश मेहता के उन व्याख्यानों को संकलित किया गया है जो उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ की ‘आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी व्याख्यानमाला’ के तहत दिए थे।
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