Hindi Bhasha Ka Vikas
Author:
Gopal RayPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
यह पुस्तक संघ एवं राज्य लोक सेवा आयोग के अतिरिक्त विश्वविद्यालय की परीक्षाओं के लिए भी अत्यन्त उपयोगी है। पुस्तक IAS/PCS के हिन्दी साहित्य प्रथम प्रश्न-पत्र(वैकल्पिक विषय) के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। हिन्दी भाषा एवं नागरी लिपि के इतिहास सम्बन्धी प्रत्येक बिन्दु का सुव्यवस्थित अध्ययन इस किताब में शामिल है।
ISBN: 9789389577600
Pages: 288
Avg Reading Time: 10 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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यह पुस्तक 19वीं सदी में यूरोप में नई कविता का जो प्रवर्तन हुआ, उस पर विचार-विमर्श की एक व्यापक ज़मीन तैयार करती है। साथ ही, उसके परिप्रेक्ष्य में भारतीय कविता के विकास-क्रम में शुद्धता का पैमाना क्या रहा, और क्या होना चाहिए, इस पर भी अपना गम्भीर चिन्तन प्रस्तुत करती है। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि यह पुस्तक शुद्धतावादी आन्दोलन का एक दुर्लभ शोधपूर्ण इतिहास भी है और दस्तावेज़ भी।
दिनकर जी का मानना है कि नई कविता हमेशा शुद्ध कविता नहीं होती, न सभी श्रेष्ठ काव्य शुद्ध काव्य के उदाहरण होते हैं। फिर भी उन्हें लगता है कि शुद्धता को लक्ष्य मानकर चलने से काव्य का नया आन्दोलन समझ में कुछ ज़्यादा आता है। इसलिए उन्होंने ‘कविता और शुद्ध कविता’, ‘शुद्ध कविता का इतिहास—1’, ‘शुद्ध कविता का इतिहास—2’, ‘कविता में दुरूहता’, ‘शुद्ध काव्य की सीमाएँ’, ‘परिभाषाहीन विद्रोह’, ‘मनीषी और समाज’, ‘कला में व्यक्तित्व और चरित्र’, ‘कला का संन्यास’ और ‘साहित्य में आधुनिक बोध’ पाठों के ज़रिए जहाँ-तहाँ से सामग्रियाँ बटोरकर शुद्धतावादी आन्दोलन का इतिहास खड़ा किया है और कविता की अनेक समस्याओं पर अपने दृष्टिकोण से विचार किया है।
दिनकर जी ने अपनी यह किताब बीसवीं सदी के सातवें दशक में इस उद्देश्य से लिखी थी कि हिन्दी के जो लेखक, कवि और पाठक अंग्रेज़ी अथवा किसी अन्य विदेशी भाषा के द्वारा पाश्चात्य साहित्य के सीधे सम्पर्क में नहीं हैं, वे इसका लाभ उठा सकें, उनसे बातचीत का एक ठोस ज़रिया बनाया जा सके।
शुद्धतावाद के केन्द्र में लिखी गई यह पुस्तक अपने विशद विवेचन के कारण पचास साल बाद भी वही महत्त्व रखती है, जो उस समय रखती थी।
Dalit Sahitya : Anubhav, Sangharsh Evam Yatharth
- Author Name:
Omprakash Valmiki
- Book Type:

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प्रस्तुत पुस्तक में दलित साहित्य की अन्त:चेतना को समझने की कोशिश की गई है जिसमें कवि-कहानीकार के रूप में दलित रचनाकार को अपनी रचना-प्रक्रिया के द्वारा दलित साहित्य की आन्तरिकता को तलाश करने के लिए कई स्तरों पर संघर्ष करना पड़ता है।
दलित लेखक किसी समूह, मसलन—किसी जाति विशेष, सम्प्रदाय के ख़िलाफ़ नहीं है, व्यवस्था के विरुद्ध है। दलितों की प्राथमिक आवश्यकता अपनी अस्मिता की तलाश है, जो हज़ारों साल के इतिहास में दबा दी गई है। दलित साहित्य में जो आक्रोश दिखाई देता है, वह ऊर्जा का काम कर रहा है जिसकी उपस्थिति को ग़ैर-दलित आलोचक नकारात्मकता की दृष्टि से देखते हैं, जबकि वह दलित साहित्य को गतिशीलता के साथ जीवन्त भी बनाता है। आज भी भारत में जाति-व्यवस्था का अमानवीय रूप अनेक प्रतिभाओं के विनाश का कारण बनता है। लेकिन भारतीय मनीषा की महानता पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। आज भी दलितों को पीने के पानी तक के लिए संघर्ष करना पड़ता है, दलित आत्मकथाएँ इन सबको पूरी ईमानदारी से बेनक़ाब करती हैं। दलित कहानियाँ समाज में रचे-बसे जातिवाद की भयावह स्थितियों से संघर्ष करने के साथ-साथ समाज में घृणा की जगह प्रेम की पक्षधरता दिखाती हैं। भारतीय समाज-व्यवस्था की असमानता पर आधारित जीवन की विषमताओं, विसंगतियों के बीच से दलित कविता का जन्म हुआ है जो नकार, विद्रोह और संघर्ष की चेतना के साथ सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्ध है, वह जीवन-मूल्यों की पक्षधर है। आलोचक उसके रूप और शिल्प-विधान को तलाश करते हुए उसकी आन्तरिक ऊर्जा को नहीं देखते हैं। दलित साहित्य-विमर्श में यदि यह पुस्तक कुछ जोड़ पाती है तो मुझे बेहद ख़ुशी होगी।
—भूमिका से
Rashtrakavi Kuvempu
- Author Name:
Prabhushankara
- Rating:
- Book Type:

- Description: English translation by H S Komalesha of Prabhushankara's Kannada monograph.
Aadhunik Hindi Upanyaas : Vol. 2
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

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Description:
आठवें दशक की समाप्ति के साथ हिन्दी उपन्यास को लेकर जिस नई गहमागहमी का दौर शुरू हुआ था, वह आज परिपक्वता प्राप्त कर चुका है। ‘नौकर की कमीज़’ से लेकर ‘आख़िरी कलाम’ तक विस्तृत हिन्दी उपन्यास का लगभग तीन दशकों का यह सफ़र भारतीय समाज के साथ उपन्यास के जनतांत्रिकरण का भी दौर रहा है।
मध्यवर्गीय उभार, साम्प्रदायिकता, उपभोक्तावादी संस्कृति व हाशिए के लोगों की दास्तान समेटे हिन्दी उपन्यास ने जहाँ अपने सरोकारों का विस्तार किया है, वहीं कथ्य व रूप की एकरसता को भी तोड़ा है। कहा जा सकता है कि इस दौर में उपन्यास महज़ साहित्यिक संरचना न रहकर एक सामाजिक संरचना के रूप में भी अधिक पुष्ट और समृद्ध हुआ है।
लेकिन यही वह दौर भी है जब हिन्दी उपन्यासों में दो दृष्टियों का टकराव भी सामने आया। एक दृष्टि भारतीय समाज के संश्लिष्ट यथार्थ से मुठभेड़ करती हुई बदलते सामाजिक परिदृश्य की साक्षी थी तो दूसरी ‘विश्व नागरिकता’ की ललक में भाषायी खिलन्दड़ेपन का नट–सन्तुलन करते हुए ऐसी कलात्मक चकाचौंध को जन्म देती हुई जो यथार्थ को दृश्य–ओझल कर देती थी।
विश्वकथा साहित्य की तर्ज पर नारी-चेतना के सशक्त तेवरों की अनुगूँज भी इधर के हिन्दी उपन्यासों में अत्यन्त प्रभावी ढंग से प्रकट हुई। नारी–देह का जुलूस निकालती पुरुषवादी रतिक दृष्टि के समानान्तर स्त्री लेखिकाओं का नारी–विमर्श नारी जीवन की गोपन सच्चाइयों व उन हादसों को बेपर्दा करता है जो अपनी समस्त विकृति, कुत्सा व अविश्वसनीयता के बावजूद भारतीय समाज का नग्न व क्रूर यथार्थ है ।
‘आधुनिक हिन्दी उपन्यास’ के इस दूसरे खंड के सम्पादक डॉ नामवर सिंह हैं और इसमें अस्सी के दशक से 2003 तक के तीस उपन्यासों पर चर्चा शामिल है–प्रत्येक उपन्यास पर उसके लेखक के संस्मरणात्मक आलेख और किसी समीक्षक द्वारा की गई एक सारगर्भित समीक्षा के साथ ।
Aadhunik Hindi Kavita Mein Bimbvidhan
- Author Name:
Kedarnath Singh
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आधुनिक हिंदी कविता में बिम्बविधान का यह नया संस्करण एक ऐसे साहित्यिक दौर में प्रकाशित हो रहा है, जब बिम्ब हिन्दी काव्यालोचन का स्वीकृत शब्द बन चुका है। परन्तु जिस समय (लगभग छठे दशक के अन्त में) यह शोधकार्य सम्पन्न हुआ था, उस समय तक हिन्दी में बिम्ब-विचार की कोई सुस्पष्ट परम्परा नहीं बन सकी थी। यह पुस्तक उस दिशा में पहले महत्त्वपूर्ण प्रयास के रूप में सामने आई थी। यहाँ पहली बार भारतीय परम्परा में बिम्ब-विचार के मूल स्रोतों को सुसंगत ढंग से प्रस्तुत करने की कोशिश की गई थी। शायद इन्हीं बातों के चलते, इस बीच लिखी गई बिम्ब-सम्बन्धी अनेक पुस्तकों के बावजूद, आधुनिक कविता के प्रेमी पाठकों और शोध-कर्मियों के बीच आधुनिक हिंदी कविता में बिम्बविधान की माँग बराबर बनी रही। यह संस्करण–जो लगभग अपने मूल रूप में प्रकाशित हो रहा है–उसी माँग के दबाव का परिणाम है।
बिम्ब-चिन्तन के लिए एक नई भाषा गढ़ने के साथ-साथ यहाँ पहली बार यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि आधुनिक कविता का बिम्बात्मक चरित्र किस बिन्दु पर मध्यकालीन अलंकार-विधान से अलग होता है। इस व्याख्या के क्रम में आधुनिक हिन्दी कविता के कल्पनात्मक विकास का एक सुस्पष्ट दृश्यालेख भी यहाँ पहली बार प्रस्तुत हुआ है, पाठक इसे लक्ष्य किए बिना नहीं रहेंगे।
अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण आधुनिक हिंदी कविता में बिम्बविधान आज भी जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना ही प्रासंगिक भी।
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