Bharatiya Sahitya Ki Bhumika
Author:
Ramvilas SharmaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 1196
₹
1495
Available
यह पुस्तक भारतीय साहित्य का संक्षिप्त इतिहास नहीं है। यहाँ भारतीय साहित्य और उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के कुछ पक्षों पर विचार किया गया है। प्रयत्न यह है कि देशी रूढ़िवादियों और पश्चिमी संसार के ‘वैज्ञानिक’ विचारकों से अलग हटकर ऐसा रास्ता बनाया जाए जिस पर चलते हुए भारतीय साहित्य के और बहुत से पक्षों का वस्तुगत विवेचन किया जा सके। यह पुस्तक रास्ते की शुरुआत है, उसकी आख़िरी मंज़िल नहीं।</p>
<p>‘ऋग्वेद में कवि और काव्यशिल्प’ से आरम्भ कर भारतीय नवजागरण तक की लम्बी यात्रा में लेखक ने भारतीय समाज व्यवस्था और संस्कृति के विविध पहलुओं पर विचार किया है।</p>
<p>इस पुस्तक का प्रमुख आकर्षण संगीत और अन्य कलाओं के सम्बन्ध पर किया गया विचार है। <br />डॉ. शर्मा के मतानुसार, ‘‘जिसे हिन्दुस्तानी संगीत कहते हैं, वह हिन्दी भाषी जनता का जातीय संगीत है। और हिन्दुस्तानी संगीत में मुसलमानों का योगदान महत्त्वपूर्ण था।’’</p>
<p>सोलहवीं-सत्रहवीं सदियों में कलाओं के पारस्परिक सम्बन्ध के बारे में उनका कहना है कि इन ‘‘सदियों में जैसा भव्य सौन्दर्य स्थापत्य में देखा जा सकता है, वैसा ही उदात्त सौन्दर्य ध्रुवपद की गायकी में है।’’ तथा ‘‘संगीतशास्त्र का इतिहास सन्तों की संगीत साधना के बिना नहीं समझा जा सकता।’’ ऐसी बहुत सी स्थापनाएँ पाठकों को इस विषय पर नए ढंग से सोचने की प्रेरणा देंगी।</p>
<p>उनका कथन कि : ‘‘जिन परिस्थितियों में भारतीय साहित्य का निर्माण और अध्ययन हो रहा है, उनका गहरा सम्बन्ध विश्व पूँजीवाद से है,’’ एक विचारणीय तथ्य की ओर संकेत है। इसके साथ ही, दूसरे महायुद्ध के बाद पूँजी के ज़बर्दस्त केन्द्रीकरण से पैदा होनेवाली परिस्थितियों में वे ‘अपनी जातीय संस्कृति की रक्षा करना हर बुद्धिजीवी का कर्तव्य’ मानते हैं।</p>
<p>यह पुस्तक पाठकों को ‘बड़े पैमाने पर स्वदेशी आन्दोलन की आवश्यकता’ पर सोचने की प्रेरणा देती है।
ISBN: 9788126717231
Pages: 389
Avg Reading Time: 13 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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निराला जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे केवल कवि ही नहीं, उच्चकोटि के गद्य-लेखक भी थे। उनके उपन्यास आधुनिक युग के उपन्यासों में अपना अलग महत्त्व रखते हैं। उनकी कहानियों में सत्य के साथ-साथ जीवन का सूक्ष्म निरीक्षण भी है। उनकी समालोचनाओं में पांडित्य और तर्क का चित्ताकर्षक सम्मिश्रण है। ‘प्रबन्ध प्रतिमा’ नामक उनका निबन्ध-संग्रह हिन्दी का एक अनूठा ग्रन्थ-रत्न है।
निराला हिन्दी गद्य में एक नए यथार्थवाद के प्रवर्तक के रूप में दृष्टिगत होते हैं जिस प्रकार निराला की कविता भंगिमा, शिल्प और भाषा के स्तर पर नित्य नूतन प्रयोगधर्मी है; उसी प्रकार उन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों में भी नई यथार्थवादी गद्य का प्रयोग किया है। भाषा और शैली में आदि से अन्त तक एक उदात्त गरिमा अनुस्यूत है। डॉ. विजयेन्द्र स्नातक ने कहा है—“भाषा को सँवारने और प्रसंगानुकूल ढालने की कला तो निराला को बांग्ला और संस्कृत ज्ञान के कारण सिद्ध हो गई थी। जटिल, दुर्बोध, दुरूह, क्लिष्ट, सब प्रकार के शब्दों से अनमिल वाक्यावली बनाने की त्रुटि होने पर भी निराला की शक्तिमत्ता इसमें है कि वे भाव की जटिलता को तथा वर्णन की संश्लिष्टता को शब्दों के चयन से पूरा कर देते हैं।”
निराला भारतीय समाज की उन्नति का मार्ग सांस्कृतिक एकता और अखंडता में देखते हैं। क्रान्ति और विप्लव की उनकी कल्पना अप्रत्याशित नहीं है। निराला अनुभव करते हैं कि अंग्रेज़ों का हमला मुख्यतः भारतीय इतिहास और संस्कृति की अस्मिता पर हुआ है। निराला इस समस्या का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं—वर्तमान समाज का जो रूप है, इसके भीतर इस नवीन रूप के निकाले बिना, उस समस्या की उलझन भी नहीं मिट सकती। दलितों का शोषण और उत्पीड़न निराला को दुखी करता है। रूढ़िवादी द्विज-समाज को बार-बार ललकारते हुए वे कहते हैं—“तुमसे कुछ न होगा, भारत का उद्धार शूद्र जातियाँ ही करेंगी।” इसी प्रकार एक स्थान पर वे लिखते हैं—“शूद्र शक्तियों से यथार्थ भारतीयता की किरणें फूटेंगी। निराला एक भविष्यद्रष्टा ऋषि की भाँति दलितों को भविष्य के ब्राह्मण, क्षत्रियों के रूप में देख रहे हैं।
डॉ. रामविलास शर्मा ने ठीक ही कहा है—“जितने बड़े वह साहित्यकार थे, उससे भी बड़े वह मनुष्य थे।” वस्तुत: निराला की संस्कृति-चिन्ता भारतीय जाति के मुक्त प्रयासों से अनिवार्यतः जुड़ी हुई है। इसी संस्कृति-चिन्ता से निराला वृहत्तर सामाजिक और सांस्कृतिक यथार्थ से बार-बार टकराकर अपनी रचनात्मक प्रतिभा को विस्तारित करते हुए उसे समृद्ध करते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक ‘निराला : नवमूल्यांकन’ लेखों का संकलित रूप है। इस पुस्तक के सभी लेखक हिन्दी के सुप्रसिद्ध विद्वान् और आचार्य हैं। इनकी रचनाओं से कृति की गरिमा में अभिवृद्धि हुई है। यह कृति निराला-साहित्य के मनन-परिशीलन का मार्ग प्रशस्त करने में सक्षम होगी। इसके अध्ययन-मनन से जिज्ञासु अनुसन्धित्सु एवं निराला साहित्य के अध्येता छात्र-छात्राएँ भी लाभान्वित होंगे, इसमें किंचित् सन्देह नहीं।
Company Raj Aur Hindi
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- Description: उपनिवेशवाद ने अपने विस्तार के लिए एक ख़ास क़िस्म के लेखन को काफ़ी प्रश्रय दिया था। यह सर्वस्वीकृत तथ्य है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। फ़ोर्ट विलियम कॉलेज और तद्युगीन अन्य संस्थानों द्वारा उत्पादित ज्ञान के भंडार का अब तक का अध्ययन इस बात की तस्दीक करता है कि अध्येताओं के मानस में ‘प्राच्यवाद’ का भूत कुछ इस तरह जड़ जमाकर बैठ गया है कि उनके बौद्धिक मानस से द्वन्द्वात्मक दृष्टि ही काफ़ूर हो चुकी है। औपनिवेशिक दौर के सम्पूर्ण लेखन को इस तरह की सीमा में बाँधकर एक ही चश्मे से देखने से वास्तविक भौतिक परिस्थितियों और उनके प्रभावों का उद्घाटन कठिन हो जाता है। यह ठीक है कि औपनिवेशिक सत्ता ज्ञान का अपने पक्ष में अनुकूलन करती रही है लेकिन हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि अनुकूलन चाहे कितना भी हो, द्वन्द्वात्मक परिस्थितियों में ज्ञान की भूमिका के अन्य आयाम भी होते हैं। इन आयामों को हम तभी पहचान सकते हैं जब हम समय में विद्यमान दूसरे प्रभावी कारकों पर भी नज़र बनाए रखें। यह एक ऐतिहासिक दायित्व का कार्य है कि अंग्रेज़ी हुकूमत द्वारा हिन्दुस्तान के आर्थिक दोहन और आधुनिकता में हस्तक्षेप के बारे में हम तर्क जुटाएँ, लेकिन इस क्रम में हमने अगर पंक्तियों के बीच विद्यमान तथ्यों को विस्मृत कर दिया है, तो उसका पुन: उद्घाटन भी किया जाना चाहिए। ज्ञान की चेतना अन्याय के विरोध के साथ किसी भी क़िस्म के छद्म के अनावरण की पक्षधर होनी चाहिए। इसीलिए इस पुस्तक में कम्पनी की नीतियों का पुनर्विश्लेषण कर और कॉलेज के साथ उसके सम्बन्धों में विद्यमान सूक्ष्म भेदों को प्रकाशित कर, सत्ता और ज्ञान के सम्बन्धों की बारीकियों को उजागर किया गया है। दोनों की भाषा-नीति का फ़र्क़ बताकर हमारी दृष्टि की एकरेखीयता को उद्घाटित किया गया है। इन सबके साथ-साथ हिन्दी भाषा और साहित्य की विकास परम्परा और हिन्दी-उर्दू रिश्ते को एक बार फिर से विश्लेषित कर नए गवाक्ष खोले गए हैं।
Hindi Dalit Sahitya : Samvedana Aur Vimarsh
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P.N. Singh
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दलित रचनाकार और विमर्शकार चाहे जितना भी शहादती तेवर अपनाएँ, अपने पूर्व के कम्युनिस्टों की तुलना में इन्होंने सुरक्षित विकेट पर ही खेला है। अपराध-बोध से पीड़ित पारम्परिक चेतना सुरक्षात्मक रही है अथवा चुप। प्रगतिशील चेतना ने भी विरोध न कर दलित साहित्य संवेदना के कतिपय अतिरेकों के विरुद्ध मात्र सावधान किया है। इसकी आलोचना मित्रवत् रही है।
प्रथम आधुनिक दलित होने का गौरव पटना के दलित कवि ‘हीरा डोम’ को दिया जा सकता है जिनकी एक कविता ‘अछूत की शिकायत’, सरस्वती में 1914 में प्रकाशित हुई थी। इसमें दलित पीड़ा का मार्मिक अंकन है। 1914 में अपने जाति-नाम ‘डोम’ का उल्लेख उनके दलितवादी स्वर का भी परिचायक है।
...कुल मिलाकर, इसके राजनीतिक क्षितिज पर जो घटित हुआ है, लगभग वही इसके साहित्यिक फलक पर भी। अब दलित बुद्धिधर्मी पारम्परिक जातिबद्ध सोच से मुक्त किसी रैडिकल सामाजिक विवेक एवं नैतिकता के अग्रधावक नहीं लगते। इसी कारण ये अपने नव-अगड़ों की शिनाख़्त से बचते हैं। आरम्भिक सर्जनात्मक विस्फोट के बाद दलित कविता ने अपने लिए कोई नया पथ अन्वेषित करने की चिन्ता नहीं दिखाई।
Hindi Lalit Nibandh : Swarup Vivechan
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प्रस्तुत पुस्तक डॉ. वेदवती राठी के दस वर्षों के अध्यवसाय के फलस्वरूप लिखी गई है। अत: अब तक हिन्दी ललित निबन्ध के विषय में जो धारणाएँ व्यक्त की गई हैं, उनका समावेश तो प्रस्तुत पुस्तक में है ही, विविध प्रश्नों पर मौलिक चिन्तन करके अपना अभिमत देकर विदुषी लेखिका ने भरपूर चेष्टा की है कि ललित निबन्ध के विविध पक्षों पर गहन विश्लेषणाधृत विचार एक पुस्तक में मिल सकें। स्वाभाविक है कि यह पुस्तक हिन्दी ललित निबन्ध विषय पर मील का पत्थर सिद्ध होगी।
प्रस्तुत पुस्तक में अब तक उपलब्ध ज्ञान के विविध पक्षों से सम्बद्ध विषयों पर लेखिका के बेबाक विचार संकलित हैं। इसके निष्कर्ष प्रामाणिक एवं पर्याप्त सूझ-बूझ पर आधारित हैं। विचारों की स्पष्टता एवं भाषाभिव्यंजना की परिपक्वता देखते ही बनती है। लेखिका द्वारा इस पुस्तक के तैयार करने में जो गहन अध्यवसाय एवं असाधारण श्रम किया गया है, इसका अनुमान इस कृति को पढ़कर ही लगाया जा सकता है।
कुल मिलाकर हिन्दी ललित निबन्धों के स्वरूप के विविध पक्षों पर स्पष्ट विचार इस पुस्तक को विशिष्ट बनाते हैं।
—डॉ. श्रीराम शर्मा
Aadhunik Kavita Ka Punarpath
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प्रस्तुत पुस्तक भारतेन्दु से लेकर समसामयिक कविता तक में विद्यमान नए पाठ की सम्भावना का सन्धान करते हुए उसका वस्तुनिष्ठ एवं गहन विश्लेषण प्रस्तुत करती है। इसमें ‘भारतेन्दु का काव्यदर्शन’, ‘शलाकापुरुष महावीर प्रसाद द्विवेदी की नारी चेतना’, ‘साकेत की उर्मिला का पुनर्पाठ’, ‘गुप्त जी की कैकेयी का नूतन पक्ष’, ‘जयशंकर प्रसाद के पुनर्मूल्यांकन के ठोस आयाम’, ‘प्रसाद साहित्य में राष्ट्रीय चेतना का स्वरूप’, ‘कामायनी में प्रकृति-चित्रण का स्वरूप’, ‘कामायनी : एक उत्तर आधुनिक विमर्श’, ‘स्त्री-विमर्श और प्रसाद काव्य के शिखर नारी चरित्र’, ‘निराला की आलोचना-दृष्टि का विश्लेषण’, ‘दिनकर का कुरुक्षेत्र’, ‘रश्मिरथी का पुनर्पाठ’, ‘शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ के काव्य में राष्ट्रीय चेतना’, ‘अज्ञेय के काव्य में संवेदनशीलता’, ‘भवानी प्रसाद मिश्र के काव्य में गांधीवादी चेतना’, ‘नरेश मेहता का संवेदनात्मक औदात्य’, ‘मुक्तककार बेकल’, ‘अन्तस् के स्वर : कवि मन की पारदर्शी अभिव्यक्ति’, ‘धूमिल अर्थात् कविता में लोकतंत्र’, ‘ग़ज़ल दुष्यन्त के बाद : एक विश्लेषण’, ‘कविता का समाजशास्त्र एवं शोभनाथ यादव की कविताएँ’, ‘कविताओं का सौन्दर्यशास्त्र और शोभनाथ की कविताएँ’, ‘रुद्रावतार : अद्भुत भाषा सामर्थ्य की विलक्षण कविता’, ‘संशयात्मा के ख़तरे से आगाह कराती कविताएँ’, ‘हिन्दी ग़ज़ल का दूसरा शिखर : दीक्षित दनकौरी’, ‘ग़ज़ल का अन्दाज़ ‘कुछ और तरह से भी’’, ‘चहचहाते प्यार की गन्ध से घर-बार महकाते गीत’, ‘सामाजिक प्रतिबद्धता का दलित-स्त्रीवादी वृत्त’, ‘समकालीन हिन्दी कविता : दशा एवं दिशा’ तथा ‘समकालीन कविता के सामाजिक सरोकार’ जैसे विषयों के अन्तर्गत इस युग के समूचे काव्य का विशद् विश्लेषण किया गया है। साथ ही परिशिष्ट के अन्तर्गत ‘जन अमरता के गायक विंदा करंदीकर’ तथा ‘परम्परा एवं आधुनिकता के समरस कवि अरुण कोलटकर’ जैसे शीर्षकों के अन्तर्गत मराठी के दो शिखर कवियों का सम्यक् विश्लेषण किया गया है।
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Mati Pani Mein Sani Baudhikta
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डॉ. रामविलास शर्मा हिन्दी के उन गिने-चुने आलोचकों में हैं जिन्होंने साहित्य का मूल्यांकन एक सुनिश्चित जनवादी दृष्टिकोण के आधार पर किया है। बहुत स्पष्ट, सुलझे हुए विचारों के सहारे अपने विश्लेषण में वे कहीं भी भटकते नहीं हैं और आदि से अन्त तक तटस्थता को अपने हाथ से नहीं जाने देते। इसीलिए चाहे उनके सबसे प्रिय कवि निराला हों या आदर्श आलोचक रामचन्द्र शुक्ल, जहाँ भी उन्हें कोई दोष दिखाई दिया है, उसकी दो-टूक आलोचना करने से वे नहीं चूके हैं।
प्रस्तुत कृति रामविलास जी द्वारा की गई आलोचना की आलोचना है, और इसलिए कुछ लोगों के विचार से यह केवल एक छात्रोपयोगी चीज़ है; लेकिन स्वयं रामविलास जी के शब्दों में, ‘‘शुक्लजी ने न तो भारत के रूढ़िवाद को स्वीकार किया, न पच्छिम के व्यक्तिवाद को। उन्होंने बाह्य-जगत् और मानव-जीवन की वास्तविकता के आधार पर नए साहित्य-सिद्धांतों की स्थापना की और उनके आधार पर सामन्ती साहित्य का विरोध किया और देशभक्ति और जनतंत्र की साहित्यिक परम्परा का समर्थन किया। उनका यह कार्य हर देश-प्रेमी और जनवादी लेखक तथा पाठक के लिए दिलचस्प होना चाहिए। शुक्ल जी पर पुस्तक लिखने का यही कारण है।’’
एक लम्बे अन्तराल के बाद इस महत्त्वपूर्ण आलोचना-कृति का यह संशोधित-परिवर्धित संस्करण शुक्लजी के अध्ययन के लिए एक नई दृष्टि देता है, जिससे स्पष्ट हो सकेगा कि ‘शुक्लजी अपने युग के हिन्दी-अहिन्दी विचारकों से कितना आगे थे और उनकी विचारधारा कितनी वैज्ञानिक है।’
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