Gandhiwad Ki Shav Pariksha
Author:
YashpalPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 112
₹
140
Available
गांधी जी ने इस देश के सार्वजनिक जीवन में राजनैतिक नेता के रूप में प्रवेश किया था। गांधी जी ने देश की राजनैतिक मुक्ति के लिए जनता के सामने जो राजनैतिक कार्यक्रम रखा था, उसे गांधीदर्शन और गांधीवाद का नाम दिया गया था। गांधीवादी नीति पर चलने का दावा करनेवाली शासन व्यवस्था देश के सर्व-साधारण के जीवन से कठिनाई को दूर करने के लिए क्या कर सकी है, यह देश की जनता अपने अनुभव से जानती है। सर्वोदय को ध्येय माननेवाले दरिद्रनारायण के पुजारी गांधीवाद की इस विफलता का कारण समझने के लिए उनके सिद्धान्तों की परख आवश्यक है। जनता के लिए यह समझना आवश्यक है कि उनकी भौतिक समस्याओं और कठिनाइयों का उपाय, गांधीवाद अध्यात्म द्वारा सम्भव है या आर्थिक और राजनैतिक प्रयत्नों द्वारा? इस विचार के प्रयोजनों से ‘गांधीवाद की शव परीक्षा’ का यह संस्करण प्रस्तुत है।
ISBN: 9788180319501
Pages: 129
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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हिन्दी की आधुनिक संस्कृति का विकास भारतीय सभ्यता को एक आधुनिक औद्योगिक राष्ट्र में रूपान्तरित कर देने के वृहत् अभियान के हिस्से के रूप में हुआ। इस प्रक्रिया में गांधी जैसे चिन्तकों के विचारों की अनदेखी तो की ही गई, मार्क्स के चिन्तन को भी बहुत ही सपाट और यांत्रिक ढंग से समझने और लागू करने का प्रयास किया गया। यह पुस्तक गांधी और मार्क्स का एक नया भाष्य ही नहीं प्रस्तुत करती, बल्कि भारतीय आधुनिकता की विलक्षणताओं को भी रेखांकित करने का उपक्रम करती है। आधुनिकता की परियोजना के संकटग्रस्त हो जाने और उत्तर-आधुनिक-उत्तर-औपनिवेशिक चिन्तकों द्वारा उसकी विडम्बनाओं को उजागर कर दिए जाने के उपरान्त गांधी और मार्क्स का ग़ैर-पश्चिमी समाज के परिप्रेक्ष्य में पुनर्पाठ एक राजनीतिक और रणनीतिक ज़रूरत है। इस ज़रूरत का एहसास भारतीय और पश्चिमी समाज वैज्ञानिकों के लेखन में इन दिनों बहुत शिद्दत से उभरकर आ रहा है। विडम्बना ये है कि हिन्दी की दुनिया ने अभी भी इस प्रकार के चिन्तन को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी है। इस दृष्टि से विचार करने पर आधुनिकता के साथ पूँजीवाद, उपनिवेशवाद, राष्ट्रवाद, विज्ञान, तर्कबुद्धि और लोकतंत्र का वैसा सम्बन्ध ग़ैर-पश्चिमी सभ्यताओं के साथ नहीं बनता है, जैसा पश्चिमी सभ्यताओं के साथ दिखाई पड़ता है। इस बात का एहसास गांधी को ही नहीं, हिन्दी नवजागरण के यशस्वी लेखक प्रेमचन्द को भी था। यह अकारण नहीं है कि प्रेमचन्द ने आधुनिकता से जुड़े हुए राष्ट्रवाद समेत सभी अनुषंगों की तीखी आलोचना की और उसके विकल्प के रूप में कृषक संस्कृति, देशज कौशल, शिक्षा और न्याय-व्यवस्था के महत्त्व पर ज़ोर दिया। देशज ज्ञान को महत्त्व देनेवाला व्यक्ति ज्ञान के स्रोत के रूप में सिर्फ़ अंग्रेज़ी के माहात्म्य को स्वीकार नहीं कर सकता था। इसलिए गांधी और प्रेमचन्द ने हिन्दी और भारतीय भाषाओं के उत्थान पर इतना ज़ोर दिया। लेकिन, हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति के अधिकांश में, भारतीय भाषाओं की अस्मिता और उनके साहित्य का अध्ययन भी यूरोपीय राष्ट्रों के साहित्य के वज़न पर किया गया। आधुनिक साहित्यिक विधाओं का चुनाव और विकास भी बहुत कुछ पश्चिमी देशों के साहित्य के निकष पर हुआ। यह सब हुआ जातीय साहित्य और जातीय परम्परा का ढिंढोरा पीटने के बावजूद। यह पुस्तक साहित्य के इतिहास-अध्ययन की इस प्रवृत्ति और साहित्यिक विधाओं के विकास की सीमाओं और विडम्बनाओं को भी अपनी चिन्ता का विषय बनाती है और सही मायने में अपनी जातीय साहित्यिक-सांस्कृतिक परम्परा को एक उच्चतर सर्जनात्मक स्तर पर पुनराविष्कृत करने की विचारोत्तेजक पेशकश करती है।
—पुरुषोत्तम अग्रवाल
Samkaleen Sabhyata Ke Sankat Ki Mahagatha_Nirvasan
- Author Name:
Rajeev kumar
- Book Type:

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किसी कृति का महत्त्व इससे तय होता है कि उसे विभिन्न दृष्टिकोणों से परखा जा सकता है या नहीं। इस सन्दर्भ में यह देखना भी आवश्यक है कि उसकी विविध व्याख्याएँ हो सकती हैं, और हर व्याख्या-विश्लेषण से आगे उसे और नये आयामों/सन्दर्भों में परखने की राह निकलती है या नहीं। इस पुस्तक के लेखों में अखिलेश के ख्यात उपन्यास ‘निर्वासन’ को इन्हीं आधारों पर देखा-परखा गया है। उपन्यास में वर्णित वस्तुस्थितियों, प्रतिरोध के विभिन्न पहलुओं तथा जीवन के धूसर रंग के साथ चटख रंग जैसे विभिन्न आयामों को लेखकों ने विवेचित-विश्लेषित किया है। ‘समकालीन सभ्यता के संकट की महागाथा : निर्वासन’ में संकलित लेखों में उपन्यास के कथ्य में निहित दुश्चिन्ताओं से लेकर इसके सौन्दर्य पक्ष तक पर विचार किया गया है। यहाँ उचित ही यह रेखांकित किया गया है कि ‘निर्वासन’ में वर्णित संकट सिर्फ इसके पात्रों का संकट नहीं है बल्कि यह वर्तमान मनुष्य का संकट है। इस तरह यह पुस्तक उपन्यास के व्यापक परिप्रेक्ष्य को सप्रमाण प्रस्तुत करती है। मनुष्यता के ऊपर आए संकटों की शिनाख़्त करने के क्रम में लेखकगण जीवन के उन सुन्दर क्षणों को रेखांकित करना नहीं भूले हैं जिनसे तमाम प्रतिकूलताओं के बीच भी मनुष्य की उम्मीद खत्म नहीं होती।
उम्मीद है कि ‘समकालीन सभ्यता के संकट की महागाथा : निर्वासन’ पाठकों के समक्ष ‘निर्वासन’ में अन्तर्निहित आयामों के विविध पक्षों को उद्घाटित कर उसकी श्रेष्ठता का साक्षात्कार कराने में सहायक होगी।
Hindi Ka Manak Vyakaran
- Author Name:
Surendra Narayan Yadav
- Book Type:

- Description: ठीक ही तो कहा है दोस्तोयेव्स्की ने—“कोई विषय कभी इतना पुराना नहीं होता कि अब उस पर कुछ नया कह पाना सम्भव ही नहीं हो।” नाना व्याकरण-सम्मत होना इस पुस्तक की मुख्य विशेषता नहीं है। इसमें जो ‘क्वचित् अन्योपि’ है, वही इसके नयेपन और महत्त्वपूर्ण होने का आधार है। कारण-कार्य सिद्धान्त पर रचे इस व्याकरण में ‘अन्वयमुख’ और ‘व्यतिरेक मुख’ कथन का सुप्रयोग करते हुए व्याकरणिक अवधारणाओं का गम्भीर और समग्र विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास परिलक्षित है। हिन्दी, चूँकि एक अलग भाषिक संरचना है, इसलिए उसे संस्कृत और अंग्रेजी के डंडे से नहीं चलाया जा सकता। हिन्दी का अपना यथार्थ उसके लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इस कारण संस्कृत अथवा अंग्रेजी का सिद्धान्त और व्यवहार उसके निर्धारणों का आधार कतई नहीं हो सकता। लेखक की नजर में हिन्दी एक बहुत ही वैज्ञानिक भाषा है। इसमें अपवादों का अत्यन्त सीमित अवसर है। जो हैं भी वे कतई अकारण नहीं हैं। अतः कारणों की तथ्यपरक गम्भीर पड़ताल इस पुस्तक में है। ‘पाण्डित्यः परिच्छेदम्’, ‘विशेषदर्शित्व’, रूपभेद से अर्थभेद और अर्थभेद के लिए रूपभेद आदि इसकी वैज्ञानिकता के ही आयाम हैं। इनका सम्यक्-सुप्रयोग न किये जाने से ही हिन्दी के रूप गड्ड-मड्ड-से हो गये हैं। फलतः हिन्दी में मानकीकरण की गम्भीर समस्या पैदा हो गयी है। हिन्दी की समस्त व्याकरणिक समस्याओं पर यह पुस्तक इन्द्र, बृहस्पति, यास्क, पाणिनि, पतंजलि और भर्तृहरि से लेकर कामताप्रसाद गुरु, पंडित किशोरीदास वाजपेयी और बदरीनाथ कपूर तक की ज्ञान-परम्परा को दृष्टिपथ में रखकर विशद समग्रता के साथ विचार करती है। इसके द्वारा निर्धारित किये गये मानक ‘परिच्छेद’ और ‘विशेषदर्शित्व’ के अभिनव उदाहरणों को प्रस्तुत करते हैं। अस्तु, यह पुस्तक पठनीय तो है ही, आचरणीय भी है।
Hindi Pathanusandhan
- Author Name:
Kanhaiya Singh
- Book Type:

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Description:
‘हिन्दी पाठानुसन्धान’ का यह दूसरा संस्करण है। ऐसे शुष्क विषय की पुस्तक का दूसरा संस्करण होना इस बात का प्रमाण है कि यह पुस्तक पाठानुसन्धान के क्षेत्र के विद्यार्थियों द्वारा पसन्द की गई। कई विश्वविद्यालयों में एम.ए. के विशेष प्रश्न-पत्र में पाठालोचन पढ़ाया जाता है तथा हिन्दी एम.फिल.
में इसका एक अनिवार्य प्रश्न-पत्र है। इस शोध-ग्रन्थ में हिन्दी सम्पादन का इतिहास मुद्रण के पूर्व से आधुनिक काल तक दिया गया है।
पांडुलिपियों के लेखक भी अपने ढंग से कई प्रतियों का मिलान और पाठान्तर देते थे। मुद्रण प्रारम्भ होने पर पहले तो पांडुलिपि को जैसा का तैसा छाप देना प्रारम्भ हुआ और बाद में विद्वानों ने उपलब्ध सभी प्रतियों में से सबसे उपयुक्त लगनेवाला पाठ देते थे। ग्रियर्सन के समय से यह कार्य परिश्रमपूर्वक सम्पादन में देखा गया और बहुत सी कृतियाँ सुन्दर पाठ की सामने आईं।
1942 से डॉ. माता प्रसाद गुप्त ने पश्चिमी देशों की वैज्ञानिक पद्धति से पाठ-सम्पादन का कार्य शुरू किया और अनेक विद्वानों ने इसे अपनाया भी। इन सभी महत्त्वपूर्ण सम्पादनों का आलोचनात्मक अध्ययन इस पुस्तक में किया गया है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसके सम्बन्ध में लेखक को पत्र लिखा था कि इस दिशा में हिन्दी में बहुत कम काम हुआ है, आपने एक अभाव की पूर्ति की है।
Stree Kavita : Pahachan Aur Dwandwa—2
- Author Name:
Rekha Sethi
- Book Type:

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Description:
एक मानवीय इकाई के रूप में स्त्री और पुरुष, दोनों अपने समय व यथार्थ के साझे भोक्ता हैं लेकिन परिस्थितियाँ समान होने पर भी स्त्री-दृष्टि दमन के जिन अनुभवों व मन:स्थितियों से बन रही है, मुक्ति की आकांक्षा जिस तरह करवटें बदल रही है, उसमें यह स्वाभाविक है कि साहित्यिक संरचना तथा आलोचना, दोनों की प्रणालियाँ बदलें। स्त्री-लेखन स्त्री की चिन्तनशील मनीषा के विकास का ही ग्राफ़ है जिससे सामाजिक इतिहास का मानचित्र गढ़ा जाता है और जेंडर तथा साहित्य पर हमारा दिशा-बोध निर्धारित होता है। भारतीय समाज में जाति एवं वर्ग की संरचना जेंडर की अवधारणा और स्त्री-अस्मिता को कई स्तरों पर प्रभावित करती है।
स्त्री-कविता पर केन्द्रित प्रस्तुत अध्ययन जो कि तीन खंडों में संयोजित है, स्त्री-रचनाशीलता को समझने का उपक्रम है, उसका निष्कर्ष नहीं। पहले खंड, 'स्त्री-कविता : पक्ष और परिप्रेक्ष्य' में स्त्री-कविता की प्रस्तावना के साथ-साथ गगन गिल, कात्यायनी, अनामिका, सविता सिंह, नीलेश रघुवंशी, निर्मला पुतुल और सुशीला टाकभौरे पर विस्तृत लेख हैं। एक अर्थ में ये सभी वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य में विविध स्त्री-स्वरों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। उनकी कविता में स्त्री-पक्ष के साथ-साथ अन्य सभी पक्षों को आलोचना के केन्द्र में रखा गया है, जिससे स्त्री-कविता का बहुआयामी रूप उभरता है। दूसरा खंड, 'स्त्री-कविता : पहचान और द्वन्द्व' स्त्री-कविता की अवधारणा को लेकर स्त्री-पुरुष रचनाकारों से बातचीत पर आधारित है। इन रचनाकारों की बातों से उनकी कविताओं का मिलान करने पर उनके रचना-जगत को समझने में तो सहायता मिलती ही है, स्त्री-कविता सम्बन्धी उनकी सोच भी स्पष्ट होती है। स्त्री-कविता को लेकर स्त्री-दृष्टि और पुरुष-दृष्टि में जो साम्य और अन्तर है, उसे भी इन साक्षात्कारों में पढ़ा जा सकता है। तीसरा खंड, 'स्त्री-कविता : संचयन' के रूप में प्रस्तावित है...।
इन सारे प्रयत्नों की सार्थकता इसी बात में है कि स्त्री-कविता के माध्यम से साहित्य और जेंडर के सम्बन्ध को समझते हुए मूल्यांकन की उदार कसौटियों का निर्माण हो सके जिसमें सबका स्वर शामिल हो।
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