Aadhunik Sahitya Ki Pravritiyan
Author:
Namvar SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
डॉ. नामवर सिंह हिन्दी आलोचना की वाचिक परम्परा के आचार्य कहे जाते थे। जैसे बाबा नागार्जुन घूम-घूमकर किसानों और मज़दूरों की सभाओं से लेकर छात्र-नौजवानों, बुद्धिजीवियों और विद्वानों तक की गोष्ठियों में अपनी कविताएँ बेहिचक सुनाकर जनतांत्रिक संवेदना जगाने का काम करते रहे, वैसे ही नामवर जी घूम-घूमकर वैचारिक लड़ाई लड़ते करते रहे; रूढ़िवादिता, अन्धविश्वास, कलावाद, व्यक्तिवाद आदि के ख़िलाफ़ चिन्तन को प्रेरित करते रहे; नई चेतना का प्रसार करते रहे। इस वैचारिक, सांस्कृतिक अभियान में नामवर जी एक तो विचारहीनता की व्यावहारिक काट करते रहे, दूसरे वैकल्पिक विचारधारा की ओर से लोकशिक्षण भी करते रहे।</p>
<p>नामवर जी मार्क्सवाद की अध्ययन की पद्धति के रूप में, चिन्तन की पद्धति के रूप में, समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन लानेवाले मार्गदर्शक सिद्धान्त के रूप में, जीवन और समाज को मानवीय बनानेवाले सौन्दर्य-सिद्धान्त के रूप में स्वीकार करते हैं। एक मार्क्सवादी होने के नाते वे आत्मलोचन भी करते रहे। उनके व्याख्यानों और लेखन में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। आलोचना को स्वीकार करने में नामवर जी का जवाब नहीं। यही कारण है कि हिन्दी क्षेत्र की शिक्षित जनता के बीच मार्क्सवाद और वामपंथ के बहुत लोकप्रिय नहीं होने के बावजूद नामवर जी उनके बीच प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हैं।</p>
<p>निबन्ध मूलरूप से कई जगहों पर एकाधिक बार व्याख्यान के रूप में प्रस्तुत हुए थे। लोगों के आग्रह पर इन्हें आगे चलकर स्वतंत्र निबन्धों के रूप में व्यवस्थित करने की कोशिश की गई है।</p>
<p>नामवर जी हिन्दी के सर्वोत्तम वक्ता थे और माने भी जाते रहे। उनके व्याख्यान में भाषा के प्रवाह के साथ विचारों की लय है। इस लय का निर्माण विचारों के तारतम्य और क्रमबद्धता से होता दिखता है। अनावश्यक तथ्यों और प्रसंगों से वे बेचते हैं और रोचकता का भी ध्यान हमेशा रखते हैं।
ISBN: 9789352210213
Pages: 123
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: उपनिवेशवाद ने अपने विस्तार के लिए एक ख़ास क़िस्म के लेखन को काफ़ी प्रश्रय दिया था। यह सर्वस्वीकृत तथ्य है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। फ़ोर्ट विलियम कॉलेज और तद्युगीन अन्य संस्थानों द्वारा उत्पादित ज्ञान के भंडार का अब तक का अध्ययन इस बात की तस्दीक करता है कि अध्येताओं के मानस में ‘प्राच्यवाद’ का भूत कुछ इस तरह जड़ जमाकर बैठ गया है कि उनके बौद्धिक मानस से द्वन्द्वात्मक दृष्टि ही काफ़ूर हो चुकी है। औपनिवेशिक दौर के सम्पूर्ण लेखन को इस तरह की सीमा में बाँधकर एक ही चश्मे से देखने से वास्तविक भौतिक परिस्थितियों और उनके प्रभावों का उद्घाटन कठिन हो जाता है। यह ठीक है कि औपनिवेशिक सत्ता ज्ञान का अपने पक्ष में अनुकूलन करती रही है लेकिन हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि अनुकूलन चाहे कितना भी हो, द्वन्द्वात्मक परिस्थितियों में ज्ञान की भूमिका के अन्य आयाम भी होते हैं। इन आयामों को हम तभी पहचान सकते हैं जब हम समय में विद्यमान दूसरे प्रभावी कारकों पर भी नज़र बनाए रखें। यह एक ऐतिहासिक दायित्व का कार्य है कि अंग्रेज़ी हुकूमत द्वारा हिन्दुस्तान के आर्थिक दोहन और आधुनिकता में हस्तक्षेप के बारे में हम तर्क जुटाएँ, लेकिन इस क्रम में हमने अगर पंक्तियों के बीच विद्यमान तथ्यों को विस्मृत कर दिया है, तो उसका पुन: उद्घाटन भी किया जाना चाहिए। ज्ञान की चेतना अन्याय के विरोध के साथ किसी भी क़िस्म के छद्म के अनावरण की पक्षधर होनी चाहिए। इसीलिए इस पुस्तक में कम्पनी की नीतियों का पुनर्विश्लेषण कर और कॉलेज के साथ उसके सम्बन्धों में विद्यमान सूक्ष्म भेदों को प्रकाशित कर, सत्ता और ज्ञान के सम्बन्धों की बारीकियों को उजागर किया गया है। दोनों की भाषा-नीति का फ़र्क़ बताकर हमारी दृष्टि की एकरेखीयता को उद्घाटित किया गया है। इन सबके साथ-साथ हिन्दी भाषा और साहित्य की विकास परम्परा और हिन्दी-उर्दू रिश्ते को एक बार फिर से विश्लेषित कर नए गवाक्ष खोले गए हैं।
Aalochana Se Aagey
- Author Name:
Sudhish Pachauri
- Book Type:

- Description: उत्तर-आधुनिकतावाद हिन्दी में अब एक निर्णायक विमर्श बन चला है और उत्तर-संरचनावादी ‘पाठ’ की रणनीतियाँ हिन्दी साहित्य की उपलब्ध व्याख्याओं में नए-नए विपर्यास और उपद्रव पैदा कर रही हैं। विखंडनवादी पाठ-प्रविधियों ने हिन्दी में नव्य-समीक्षा को रिटायर कर दिया है। ‘आलोचना’ पद भी, अपनी व्यतीत आधुनिकतावादी प्रकृति और उत्तर-संरचनावादी रणनीतियों की मार के चलते, संकटग्रस्त होकर संदिग्ध हो चला है। ये दिन आलोचना के ‘विमर्श’ में बदल जाने के दिन हैं। विमर्श जो ‘अर्थ’ का ‘उत्पादन’ ही नहीं करते, उन्हें ‘संगठित’ भी करते हैं और अनिवार्यत: सत्तात्मक होते हैं। विमर्श वस्तुत: आलोचना का विखंडन है, इसीलिए आलोचना से आगे है। सुधीश पचौरी ने उत्तर-आधुनिकतावादी और उत्तर-संरचनावादी विमर्शों को हिन्दी में स्थापित किया है। लगभग दो दशक के सभी अग्रगामी विमर्श, इन उत्तर-आधुनिकतावादी और उत्तर-संरचनावादी पदावलियों से उलझते-सुलझते चलते हैं। समाजशास्त्रों में इन्हें लगातार जगह मिल रही है। साहित्य अध्ययन में, पुनश्चर्या पाठ्यक्रमों में और शोधों में ये विमर्श निर्णायक होने लगे हैं। ये वर्तमान की माँग हैं और उसका भवितव्य भी। सुधीश पचौरी की यह किताब हिन्दी के जागरूक पाठकर्ताओं के लिए एक ज़रूरी किताब है।
Hindi Sahitya : Ek Parichya
- Author Name:
Fanish Singh
- Book Type:

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Description:
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, ‘प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य-परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना साहित्य का इतिहास कहलाता है।’ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का मत है कि ‘साहित्य का इतिहास ग्रन्थों और ग्रन्थकारों के उद्भव और विलय की कहानी नहीं है, वह काल स्रोत में बहे आते हुए जीवन्त समाज की विकास कथा है।’ हिन्दी के इन दोनों मूर्धन्य विचारकों की परिभाषाओं से स्पष्ट है कि साहित्य जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिम्ब है।
चित्तवृत्तियाँ समय एवं काल के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं। अतएव साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता रहता है। इन परिस्थितियों के आलोक में साहित्य की इस विकासशील प्रवृत्ति को प्रस्तुत करना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है। कहना न होगा कि साहित्य का विश्लेषण, अध्ययन केवल साहित्य एवं साहित्यकार तक सीमित रखकर नहीं किया जा सकता। साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियों की प्रस्तुति के लिए उससे सम्बन्धित राष्ट्रीय परम्पराओं, सामाजिक परिस्थितियों, आर्थिक परिस्थितियों, उस युग की चेतना, साहित्यकार की प्रतिभा तथा प्रवृत्ति का विश्लेषण आवश्यक है। देशकाल परिस्थिति भेद से समाज का स्वरूप परिवर्तित होता रहता है, साहित्य समाज का ही प्रतिबिम्ब होता है। स्पष्टतः समाज के स्वरूप के परिवर्तन का प्रभाव साहित्य पर पड़ता है। इस प्रकार साहित्य का इतिहास न केवल विकासशील प्रक्रिया का उद्घाटन करता है, बल्कि इस क्रम में नए और पुराने संघर्ष को भी रेखांकित करता चलता
है।इसके अतिरिक्त इसमें साहित्य एवं समाज को प्रभावित करनेवाले विभिन्न आन्दोलनों, परिवर्तनों और प्रयोगों के सम्बन्ध का भी विवेचन होता है। साहित्य के इतिहास में रचना और रचनाकार की सृजनात्मक क्षमता को वर्तमान की कसौटी पर कसा जाता है। विश्वम्भर मानव के शब्दों में, ‘किसी भाषा में उस साहित्य का इतिहास लिखा जाना उस साहित्य की समृद्धि का परिणाम है। साहित्य के इतिहास को वह भित्तिचित्र समझिए जिसमें साहित्यिकों के आकृति-चित्र नहीं होते, हृदय-चित्र और मस्तिष्क-चित्र ही होते हैं।’
—इसी पुस्तक से
Aadhunik Hindi Kavya Aur Puran Katha
- Author Name:
Malti Singh
- Book Type:

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Description:
प्राचीनता पुराणों का गुण है, लेकिन वे नव्या, नूतन और नवीन भी हैं। अमरकोशकार ने इनकी इस विशेषता की ओर संकेत किया है—प्रत्यग्रोऽभिनवो नव्यो नवीनो नूतनो नवः। इस दि्-आयामी विशेषता के कारण पुराणकथाएँ प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक साहित्य की उपजीव्य बनती रही हैं।
आधुनिक हिन्दी-काव्य में भारतेन्दु युग से लेकर अब तक पुराणकथाओं के प्रयोग की विस्तृत, विविध एवं अविछिन्न परम्परा प्राप्त होती है। विशेष बात यह है कि आधुनिक हिन्दी-काव्य में प्रयुक्त पुराणकथाएँ, पुराण निर्दिष्ट आशय से भिन्न, परिवर्तित होती हुई काव्य-चेतना के परिप्रेक्ष्य में नवीन भावों से अनुवेशित होकर नितान्त नवीन सन्दर्भों की सृष्टि करती हैं।
भारतीय जनता की स्वातंत्र्य-चेतना एवं जीवित जोश को अभिव्यक्ति के लिए पौराणिक कथा-प्रसंगों एवं पत्रों का उपयोग भारतेन्दुयुगीन एवं द्विवेदीयुगीन कवियों की विवशता बन गई थी। छायावादी सूक्ष्म भावानुभूती एवं विचारानुभूती की अभिव्यक्ति के लिए पौराणिक कथाएँ सशक्त माध्यम सिद्ध होती हैं। भौतिक यथार्थवाद को स्वीकृति प्रदान करनेवाले प्रगतिवादी कवियों ने भी पुराणिक प्रतीकों का प्रयोग ख़ूब किया है।
Nirala Ka Katha Sahitya
- Author Name:
Durga Singh
- Book Type:

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Description:
यह किताब निराला के न केवल कथा, बल्कि समूचे साहित्य को नयी निगाह से देखने का न्यौता देती है और निराला के कथा साहित्य और उनकी कविता को अलगाने वाली समझ भी खंडित करती है। साथ ही निराला के बहाने देश के स्वाधीनता आंदोलन की याद के कारण आजादी के अमृतकाल में विगत को नयी प्रासंगिकता प्रदान करती है।
निराला अपनी प्रसिद्धि के बावजूद कुछ ही लेखकों के गम्भीर विवेचन का विषय बने। उनकी रचनात्मकता का दाय तो बहुतों ने ग्रहण किया लेकिन विवेचन कम ने किया। जिन्होंने किया भी उनकी निगाह कविता पर अधिक केंद्रित रही। यह किताब उनके लेखन के अभिन्न अंग, कथा साहित्य के चुनिंदा पाठों का विश्लेषण प्रस्तुत करके निराला साहित्य के सहज बोध को व्यापक पैमाने पर संपन्न बनायेगी। निराला की कहानियों के महत्व को समझने में इस किताब को पढ़ने का फिलहाल कोई विकल्प नजर नहीं आता है। इस किताब को पढ़ने के उपरांत कोई भी पाठक निराला के कथा साहित्य को अधिक सजग होकर पढ़ेगा और उसके लिए यह साहित्य ऐसे तमाम अर्थ प्रेषित करेगा जिनको खोलना उसकी जिम्मेदारी में शामिल होगा।
-गोपाल प्रधान
Puch Na Kabira Jag Ka Haal
- Author Name:
Rameshraaj
- Rating:
- Book Type:

- Description: तेवर लिखना अपने आप में एक कला है। तेवर सामाजिक ताने बाने के बीच रोष को उद्रित करता है, कई सारी बातें जो शायद केवल कवितावों के माध्यम से नहीं प्राप्त करना हमेशा संभव नहीं होता।
Bharatmata : Dhartimata
- Author Name:
Rammanohar Lohia
- Book Type:

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Description:
प्रस्तुत पुस्तक 'भारतमाता-धरतीमाता' समाजवादी विचारक और चिन्तक
डॉ. राममनोहर लोहिया के सामाजिक, सांस्कृतिक (ग़ैर राजनीतिक) लेखों का संग्रह है जो लोहिया के सांस्कृतिक मन और सोच को उजागर करता है। संग्रह के सभी लेख मूल रूप में ग़ैर राजनीतिक हैं, लेकिन कहीं-कहीं राजनीति की झलक ज़रूर दिख जाती है, वह लोहिया की मजबूरी थी। रामायण, राम, कृष्ण तीर्थों और अन्य विषयों पर उनकी जो दृष्टि थी उनमें वे आधुनिक सन्दर्भ को जोड़ते थे, इसलिए कहीं-कहीं राजनीति की झलक मिलती है। संग्रह के सभी लेख लोहिया जी के जीवन-काल में सन् 1950 से 1965 तक के कालखंड के ही हैं, अत: बीच-बीच में आबादी आदि के जो आँकड़े प्रस्तुत किए गए हैं, वे उसी समय के हैं।प्रस्तुत पुस्तक निःसन्देह पठनीय और संग्रहणीय है।
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