Uthal-Puthal Aur Dhruvikaran Ke Beech
Author:
ChandrashekharPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
History-and-politics0 Reviews
Price: ₹ 636
₹
795
Available
चन्द्रशेखर ऐसे राष्ट्रनायक हैं जिनके अंतरंग से परिचित होने की सहज उत्सुकता देशवासियों में रही है। इसे ध्यान में रखते हुए, सत्तर के दशक से ही देश-विदेश के प्रमुख सम्पादकों-पत्रकारों ने चन्द्रशेखर का साक्षात्कार लेना आरंभ कर दिया था। चन्द्रशेखर के अंतरंग का साक्षात्कार करना और कराना ही सम्पादकों-पत्रकारों को काम्य था। विभिन्न पत्रिकाओं में बिखरे पड़े चन्द्रशेखर के साक्षात्कारों को संकलित करना दुरूह किंतु इसलिए अनिवार्य था क्योंकि इसके बगैर स्वातंत्र्योत्तर भारत की राजनीति को समझना कठिन है। तीन खंडों में प्रकाशित चन्द्रशेखर से हुई भेंटवार्ताओं का यह पहला खंड है। इस पहले खंड में समाजवाद, दोहरी सदस्यता, गरीबों की पीड़ा, राजनीतिक स्थिरता, पार्टी संगठन, राजनीतिक गठजोड़, राजनीतिक ध्रुवीकरण, विपक्षी एकता, अयोध्या-विवाद जैसे राजनीति से जुड़े जज्बाती सवालों पर चन्द्रशेखर के जवाब हैं जो इतिहास के नए गवाक्ष को खोलते हैं।
ISBN: 9788126704651
Pages: 223
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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सन् 1857 के विद्रोह का क्षेत्र विशाल और विविध था। आज़ादी की इस लड़ाई में विभिन्न वर्गों, जातियों, धर्मों और समुदाय के लोगों ने जितने बड़े पैमाने पर अपनी आहुति दी, उसकी मिसाल तो विश्व इतिहास में भी कम ही मिलेगी। इस महाविद्रोह को विश्व के समक्ष, उसके सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का महत् कार्य कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक एंगेल्स कर रहे थे। ‘1857 : बिहार-झारखंड में महायुद्ध’ पुस्तक बिहार और झारखंड क्षेत्र में इस महायुद्ध का दस्तावेज़ी अंकन करती है।
1857 की सौवीं वर्षगाँठ पर, 1957 में बिहार के कतिपय इतिहासकारों-काली किंकर दत्त, क़यामुद्दीन अहमद और जगदीश नारायण सरकार ने बिहार-झारखंड में चले आज़ादी के इस महासंग्राम की गाथा प्रस्तुत करने का कार्य किया था। लेकिन तब इनके अध्ययनों में कई महत्त्वपूर्ण प्रसंग छूट गए थे। कुछ आधे-अधूरे रह गए थे। वरिष्ठ और चर्चित लेखक-पत्रकारों प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत के श्रम-साध्य अध्ययन-लेखन के ज़रिए इस पुस्तक में पहले की सारी कमियों को दूर करने का सुफल प्रयास किया गया है। बिहार और झारखंड के कई अंचलों में इस संघर्ष ने व्यापक जन-विद्रोह का रूप ले लिया था। बाग़ी सिपाहियों और जागीरदारों के एक हिस्से के साथ-साथ ग़रीब, उत्पीड़ित दलित और जनजातीय समुदायों ने इस महायुद्ध में अपनी जुझारू भागीदारी से नया इतिहास रचा था। यह पुस्तक मूलतः प्राथमिक स्रोतों पर आधारित है। बिहार-झारखंड में सन् सत्तावन से जुड़े तथ्यों और दस्तावेज़ों का महत्त्वपूर्ण संकलन है। आम पाठकों के साथ-साथ शोधकर्ताओं के लिए उपयोगी पुस्तक।
The Jungle Book
- Author Name:
Rudyard Kipling
- Book Type:

- Description: Among the best-loved of all children's classics, Rudyard Kipling's The Jungle Book is set among a community of animals in the jungles of India, where Kipling was born and grew up. Three of the stories feature the adventures of an abandoned "man cub", a boy named Mowgli, who is raised by wolves in the jungle. Other well-known stories in the collection include "Rikki-Tikki-Tavi", the tale of a heroic mongoose who outwits vicious cobras in order to save his human benefactors, and "Toomai of the Elephants" the story of a ten-year-old elephant-handler. World's most favourite and popular book which fantasises children.
Pt. Deendayalji : Prerak Vichar
- Author Name:
Dr. Ravindra Agarwal
- Book Type:

- Description: Awating description for this book
Kaliyug Mein Itihas Ki Talash
- Author Name:
Om Prakash Prasad
- Book Type:

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वैदिककालीन धर्म-निर्माताओं का मानना था कि धर्म नहीं तो विश्व नहीं; विश्व का अस्तित्व धर्म पर आधारित था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करना ही धर्म था; यही कृत था; यही सत था। धर्म विश्वास पर आधारित था और विश्वास में तर्क की कोई गुंजाइश नहीं होती। वैदिक समाज चार वर्णों—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभाजित था। धर्म के भी चार पैर—सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग बताए गए। कई कारणोंवश ब्राह्मण और वैदिककालीन वर्णव्यवस्था के अस्तित्व पर ख़तरा उत्पन्न हुआ तो चार पैरोंवाले धर्म का एक पैर नष्ट हो गया अर्थात् सतयुग का अन्त हो गया। ब्राह्मणों के साथ क्षत्रियों के परम्परावादी अस्तित्व पर ख़तरा मँडराने लगा तो धर्म के दूसरे पैर (त्रेतायुग) का अन्त हो गया। धर्म के तीसरे पैर (द्वापर) का नाश उस समय हो गया जब वैश्यों ने वैदिक धर्म का पालन करना छोड़ शूद्र-म्लेच्छ का पेशा अपना लिया। अब धर्म मात्र एक पैर पर खड़ा हुआ। इसे कलियुग कहा गया।
कल्पना की गई कि देवतागण जब म्लेच्छों का पूर्ण नाश कर देंगे तो कलियुग का अन्त और सतयुग का सुआगमन होगा। इतिहास चूँकि तर्क, विज्ञान एवं प्रमाण पर आधारित है, इसलिए ऐसे धार्मिक युग-विभाजन को वह नहीं मानता। इस विभाजन के ऐतिहासिक कारणों की खोज करने पर जो तथ्य उभरकर सामने आते हैं, उनका गहरा लगाव किस प्रकार तत्कालीन सामाजिक और आर्थिक दशाओं से रहा—इसी की तलाश कर प्रस्तुत करने का प्रयास इस पुस्तक में किया गया है।
Gandhi-Drishti Ke Vividh Aayam
- Author Name:
Shambhu Joshi
- Book Type:

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जब गांधी जी बर्बरीकरण की बात करते हैं तो वह केवल स्थूल हिंसा तक सीमित नहीं है। उसमें हिंसा के वे सब रूप और आयाम शामिल हैं, जिन्हें संरचनागत हिंसा, सांस्कृतिक हिंसा और पीड़ितोन्मुख अप्रत्यक्ष हिंसा कहते हैं। प्रत्यक्ष हिंसा भी इस संरचनागत हिंसा का ही प्रतिफलन होती है, जिसे सांस्कृतिक हिंसा एक वैधता प्रदान करने की कोशिश करती है।
महात्मा गांधी के विचार-सूत्रों में यदि इस प्रकार की सभी समस्याओं के प्रति एक अद्भुत जागरूकता तथा एक नैतिक-तार्किक संगति दिखाई देती है तो इसका कारण शायद यही है कि उनका सारा जीवन और चिन्तन अहिंसा-प्रेम के नियम से प्रेरित रहा है। विस्मय इस बात का होता है कि उनके नैतिक आग्रहों में कहीं भी अर्थशास्त्रीय सवालों की अनदेखी नहीं है। वह यह मानते हैं कि 'सच्चा अर्थशास्त्र कभी उच्चतम नैतिक मानकों का विरोधी नहीं होता, ठीक उसी प्रकार सच्चा नीतिशास्त्र वही माना जा सकता है, जो नीतिशास्त्र होने के साथ-साथ एक अच्छा अर्थशास्त्र भी हो...।
अब तो मेजारोस, लेबो विट्ज और टेरी इगल्टन जैसे नए मार्क्सवादी विचारक भी विकेन्द्रीकृत प्रौद्योगिकी और उत्पादन की बात करने लगे हैं, जिस पर न कॉरपोरेट का नियंत्रण हो, न राज्य का। यह उन उत्पादन-शक्तियों के विकल्प से ही हो सकता है, जो उत्पादन के साथ-साथ मुनाफ़े के वितरण की समस्या का भी समाधान अन्तर्निहित किए हैं। लेकिन विकेन्द्रीकृत तकनीक पर ही, जिसे गांधी जी 'स्वदेशी' कहते हैं, विकेन्द्रीकृत स्वामित्व का विकास हो सकता है। राष्ट्रीय अथवा बहुराष्ट्रीय, किसी भी प्रकार के पूँजीवाद और उसके अनिवार्य प्रतिफलन साम्राज्यवाद का विकल्प इसलिए 'स्वदेशी' तकनीकी और उत्पादन-व्यवस्था ही हो सकती है, जिसके अन्तर्गत मानवीय स्वातंत्र्य और व्यक्तित्व भी पोषित होता है और प्राकृतिक विनाश का ख़तरा भी नहीं रहता।
इस पुस्तक की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें गांधी-दृष्टि के विविध आयामों को उनके साध्य सत्य तथा साधन अहिंसा अर्थात प्रेम के बीज से पल्लवित सिद्ध करने का स्तुत्य प्रयास किया गया है।...यह पुस्तक जहाँ सामान्य पाठकों को गांधी-विचार की प्रामाणिक जानकारी दे सकेगी, वहीं अध्येताओं, छात्रों और अध्यापकों के लिए भी अतीव उपयोगी साबित होगी।
—नन्दकिशोर आचार्य
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