Deshaj Buddha
Author:
Lalit AdityaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
History-and-politics0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
बौद्ध धर्म का आदिवासी संस्कृति और झारखंड से क्या रिश्ता है? क्या बौद्ध सिद्धान्तों के निर्माण में आदिवासी संस्कृति का भी योग रहा है? क्या अतीत ने हमारे लिए ऐसे साक्ष्य छोड़े हैं जो बौद्ध धर्म और आदिवासी संस्कृति के संयोग का संकेत करते हैं? ‘देशज बुद्ध’ ऐसे कई प्रश्नों का तथ्याधारित उत्तर प्रस्तुत करते हुए भारत के प्राचीन इतिहास और संस्कृति की लगभग अज्ञात एक कड़ी को बखूबी हमारे संज्ञान में लाती है। यह एक तथ्य है कि श्रमण-संस्कृतियाँ व्रात्यक्षेत्र में ही पुष्पित-पल्लवित हुई थीं। बौद्ध धर्म भी इसका अपवाद नहीं है। राजकुमार सिद्धार्थ ने इसी वन-प्रान्तर में स्वयं को प्रकृति के प्रति समर्पित किया था और प्रकृति के सन्देश–मध्यम मार्ग–को ज्ञान के रूप में ग्रहण कर सम्बुद्ध हुए। अकारण नहीं कि झारखंड के इटखोरी (चतरा) में राजकुमार सिद्धार्थ के आने की किंवदन्ती के साथ-साथ सन्ताल परगना से लेकर उत्तरी छोटानागपुर, पलामू और कोल्हान तक हर प्रमंडल में बौद्ध धर्म से जुड़े पुरातात्विक स्थल और अवशेष मिलते हैं। इन सब का उल्लेख करने वाले पहले के कतिपय अध्ययनों के विपरीत इस पुस्तक में झारखंड के बौद्ध स्थलों और अवशेषों का व्यापक सर्वेक्षण और दस्तावेजीकरण किया गया है, जिससे प्रदेश में बौद्ध धर्म के मार्ग और प्रभावों की व्यवस्थित जानकारी मिलती है। पुस्तक का एक महत्वपूर्ण पक्ष है—बौद्ध धर्म पर आदिवासी संस्कृति-परम्पराओं के आरम्भिक प्रभावों का विश्लेषण। इसमें कहा गया है कि बौद्ध धर्म की दीक्षा-प्रक्रिया से लेकर प्रव्रज्या और उपसम्पदा तक पर आदिवासी परम्परा का प्रभाव है। इसी तरह बौद्ध संघ की आचार-संहिता स्पष्टतः आदिवासी जीवनशैली से अभिप्रेरित है। बौद्ध धर्म के सन्दर्भ में आदिवासी संस्कृति के एक महत्तर योगदान को रेखांकित करने वाली एक विचारोत्तेजक कृति!
ISBN: 9789360861209
Pages: 120
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: भारत के सामाजिक पदानुक्रम को आरक्षण ने काफी बदला है, लेकिन उतना शायद नहीं जितने की अपेक्षा थी, और जिसको ध्यान में रखकर हमारे संविधान-निर्माताओं ने सामाजिक न्याय को एक आधारभूत मूल्या माना था। आज भी समाज का एक बड़ा हिस्सा सबसे कमजोर भारतवासियों को मिले आरक्षण को वैरभाव से देखता है, आज भी ऊँचे सरकारी पदों पर दलित-आदिवासी बहुत कम हैं और चतुर्थ श्रेणी या सफाई जैसे कामों में उनकी संख्या ज्यादा दिखाई देती है। ‘जातियों का लोकतंत्र’ शृंखला की यह पुस्तक भारत में आरक्षण की अवधारणा के पैदा होने, उसके लागू किए जाने, उसके विरोध और उसके समर्थन आदि हर पहलू पर विचार करती है। इसमें संकलित एक-एक आलेख को आरक्षण पर केन्द्रित प्रामाणिक अध्ययन माना जा सकता है, जिन्हें इसके सम्पादक, अरविन्द मोहन ने निश्चय ही इस उद्देश्य से जुटाया है कि हम आज, जबकि आरक्षण को बस एक चुनावी औजार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, यह जान सकें कि आरक्षण बतौर एक व्यवस्था और बतौर एक विचार क्या है! यह पुस्तक आरक्षण के पीछे के तर्कों, इसे लेकर हुई बहसों, तथ्यों और विकल्पों, सबसे अवगत कराती है। इसके अध्ययन से एक सामान्य पाठक भी जान सकेगा कि लगातार बहस में रहनेवाले आरक्षण को लेकर हमें एक सामाजिक रूप में कैसे सोचना चाहिए; कि क्या वह महज एक आर्थिक प्रश्न है, या कि उसका कुछ सम्बन्ध मनुष्योचित व्यवहार और सम्मान से भी है!
Khalji Kaleen Bharat
- Author Name:
Saiyad Athar Abbas Rizvi
- Book Type:

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Description:
प्रस्तुत ग्रन्थ ख़लज़ी बादशाहों के, समय के लिहाज़ से अल्प किन्तु महत्त्व की दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक शासनकाल (1290-1320 ई.) से सम्बन्धित है।
डॉ. अतहर अब्बास रिज़वी ने इस पुस्तक में जिन तत्कालीन ग्रन्थों के परम आवश्यक उद्धरणों का समावेश किया है उनमें हैं—ज़ियाउद्दीन बरनी की ‘तारीख़े फ़ीरोज़शाही’, ‘अमीर ख़ुसरो’ के पाँच ऐतिहासिक ग्रन्थ (‘मिफ़ताहुल फ़ुतूह’, ‘ख़ज़ाइनुल फ़ुतूह’, ‘दिवलरानी ख़िज्र ख़ानी’, ‘नुह सिपेहर’ और ‘तुग़लक़नामा’), साथ ही मुहम्मद बिन तुग़लक़ की मृत्यु से कुछ ही पहले लिखनेवाले एसामी की ‘फ़ुतूहुस्सलातीन’।
इब्ने बतूता की यात्रा के उल्लेख से भी ख़लज़ी वंश से सम्बन्धित उद्धरण दिए गए हैं। कुछ काल पीछे के लिखे हुए तीन अन्य ग्रन्थों का भी समावेश इसलिए कर लिया गया है कि जिन मूल ग्रन्थों के आधार पर वे लिखे गए हैं, उनके अप्राप्य हो जाने के कारण उनकी अहमियत बढ़ गई है। ये ग्रन्थ हैं यहया बिन अहमद का ‘तारीख़े मुबारक शाही’, अबुल क़ासिम हिन्दू शाह फ़रिश्ता अस्तराबादी का ‘गुलशने इब्राहीमी’ जिसकी प्रसिद्धि ‘तीरीख़े फ़रिश्ता’ के नाम से है, और जफ़रुलवालेह के नाम से प्रचलित अरबी में लिखा हुआ गुजरात का इतिहास।
विद्वान अनुवादक ने इन ग्रन्थों का आलोचनात्मक विवेचन किया है जिसके चलते यह पुस्तक इतिहासज्ञों के साथ-साथ सामान्य पाठकों के लिए भी सुग्राह्य हो गई है।
Lohia Ke Sapno Ka Bharat : Bhartiya Samajwad Ki Ruprekha
- Author Name:
Ashok Pankaj
- Book Type:

- Description: भारत की आजादी के 75 वर्ष पूरे हो चुके हैं। संविधान के उच्च आदर्शों, मूल्यों तथा प्रगतिशील प्रावधानों के बावजूद समतामूलक समाज की स्थापना लक्ष्य से मीलों दूर है। नर-नारी की असमानता, जाति-बिरादरी की गैर-बराबरी, धार्मिक समूहों का आपसी द्वेष एवं कटुता, अमीर-गरीब की गहराती खाईं, शिक्षा, स्वास्थ्य, भुखमरी एवं बेरोजगारी की समस्या बनी हुई है। नौकरशाही राज्य एवं जनता के द्वारा चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकारों का सामन्तवादी एवं राजशाही सोच, तौर-तरीका एवं व्यवहार बना हुआ है। संविधान के 73वें एवं 74वें संशोधनों के बावजूद भी लोकतंत्र का चौथा खम्भा, पंचायती राज, एक नकली टाँग की तरह लटका दिया गया मालूम पड़ता है। आर्थिक उदारीकरण के दौर में विकास की गति तेज हुई है, लेकिन किसानों, मजदूरों, एवं औद्योगिक श्रमिकों को उसका समुचित लाभ नहीं मिला है। सामाजिक असमानता के छुआछूत जैसे अभिशाप तो मिट रहे हैं, लेकिन आर्थिक असमानता एक नये जातिवाद को पैदा कर रही है, जिससे लोकतंत्र को सचेत रहने की आवश्यकता है। चुनावों में धन का प्रभाव तथा तदनुसार राजनीतिक दलों की पूँजीपतियों पर चुनावी खर्च के लिए निर्भरता लोकतंत्र के लिए सुखद नहीं है। एक प्रकार से, लोकतंत्र की कोख में राजनीतिक-आर्थिक कुलीनतंत्र का भ्रूण विकसित हो रहा है जिसके लोहिया जन्मजात विरोधी थे।
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