Bhartiya Rangmanch Ki Mahila Prampra
Author:
Aparna VenuPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
History-and-politics0 Reviews
Price: ₹ 400
₹
500
Available
मानवीय सृजनशीलता की उत्कृष्टतम उपलब्धियों को सूचित करने वाली भारतीय रंगमंच की गरिमामयी परम्परा अति प्राचीन एवं अत्यंत समृद्ध रही है। प्राचीन काल से ही भारत में रंगमंचीय कलाओं का किसी न किसी रूप में प्रचार अवश्य होता रहा है, जो निरंतर विकास की दिशा में अग्रसर होते हुए समय-समय पर अपना परिष्कार करता रहा है। इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि भारत में प्राचीन काल से ही स्त्रियाँ रंगकर्म से अवश्य जुड़ी रही थीं। किन्तु हमारे रंगमंचीय अतीत एवं वर्तमान में महिलाओं की जो भूमिका रही है उसको विवेचित-विश्लेषित करना व इतिहासबद्ध तरीके से अंकित करने का कार्य तथाकथित रंगमंचीय इतिहासकारों व अध्येताओं ने नहीं के बराबर ही किया है। चाहे नाट्य-कृतियों का साहित्यिक इतिहास हो अथवा नाट्य-प्रदर्शन का रंगमंचीय इतिहास, महिला कलाकारों के योगदान को प्रायः हाशिए पर डाल दिया गया दिखाई देता है।
ISBN: 9788119133109
Pages: 128
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Author Name:
Saiyad Athar Abbas Rizvi
- Book Type:

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Description:
इस पुस्तक में 1399 से 1526 ई. तक के देहली के सुल्तानों के इतिहास से सम्बन्धित समस्त प्रमुख समकालीन एवं बाद के फ़ारसी के ऐतिहासिक ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया गया है। पहला भाग देहली के सुल्तानों के राज्य से सम्बन्धित है और दूसरा भाग उन प्रान्तीय राज्यों से जिनका प्रादुर्भाव फ़ीरोज़ तुग़लक़ की मृत्यु के उपरान्त ही धीरे-धीरे होने लगा था और जो तैमूर के आक्रमण के उपरान्त पूर्णतः स्वतंत्र हो गए।
सैयद वंश के इतिहास से सम्बन्धित यहया बिन अहमद बिन अब्दुल्लाह सिहरिन्दी की ‘तारीख़े मुबारकशाही’ एवं ख़्वाजा निज़ामुद्दीन अहमद की ‘तबक़ाते अक़बरी’ भाग-1 के उद्धरणों का अनुवाद किया गया है। दूसरे भाग में अफ़ग़ानों के सुल्तानों के इतिहास के अनुवाद सम्मिलित किए गए हैं। इनमें शेख़ रिज़्कुल्लाह मुश्ताक़ी की ‘वाक़ेआते मुश्ताक़ी’, ख़्वाजा निज़ामुद्दीन अहमद की ‘तबक़ाते अकबरी’, अब्दुल्लाह की ‘तारीख़े दाऊदी’, अहमद यादगार की ‘तारीख़े शाही’ एवं मुहम्मद कबीर बिन शेख़ इस्माइल की ‘अफ़सानए-शाहाने हिन्द’ के उद्धरण शामिल हैं।
भाग-2 के इतिहासकारों में ख़्वाजा निज़ामुद्दीन अहमद के अतिरिक्त सभी अफ़ग़ान इतिहासकार हैं। अहमद यादगार का इतिहास 1930 ई. में प्रकाशित हुआ था और ‘तारीख़े दाऊदी’ 1954 ई. में। इनके अतिरिक्त ‘वाक़ेआते मुश्ताक़ी’ और ‘अफ़सानए-शाहाने हिन्द’ अभी तक प्रकाशित नहीं हुए हैं और इनकी हस्तलिखित प्रतियाँ भी भारतवर्ष में उपलब्ध नहीं हैं, अतः आवश्यक अंशों का अनुवाद करते समय तत्सम्बन्धी पूरे-पूरे इतिहासों का अनुवाद कर दिया गया है। इस कारण एक ही घटना की कई बार पुनरावृत्ति अनुपेक्षणीय हो गई है। इतिहासकारों तथा उनकी कृतियों का परिचय अनुवाद के प्रारम्भ में प्रस्तुत किया गया है।
Marang Gomke Jaipal Singh Munda
- Author Name:
Ashwani Kumar 'Pankaj'
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- Description: कौन थे जयपाल सिंह मुंडा? इनका भारतीय स्वतंत्रता और नए भारत के निर्माण में राजनीतिक-बौद्धिक योगदान क्या था? वे जिस आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, उसकी आकांक्षाएँ क्या थीं? इस बारे में आजादी के सत्तर साल बाद भी इतिहास चुप है। एक तरफ गांधी-नेहरू, जिन्ना, अंबेडकर सहित अनेक राजनीतिज्ञों पर सैंकड़ों पुस्तकें हैं, पर जयपाल सिंह मुंडा पर एक भी नहीं है। यह कितनी हैरत की बात है कि झारखंड आंदोलन में कूदने से पहले और देश के संविधान निर्माण सभा में लाखों आदिवासियों के लिए निडरता से दहाड़नेवाले जिस आदिवासी ने देश के लिए आई.सी.एस. छोड़ी, जिसकी कप्तानी में भारत ने पहला हॉकी का ओलंपिक स्वर्ण जीता, जिसने अफ्रीका और भारत के कॉलेजों में अध्यापन के दौरान अपनी शिक्षकीय योग्यता से प्रभु वर्ग को प्रभावित किया, जो गुलाम भारत में किसी ब्रिटिश कंपनी में सर्वोच्च पद पर काम करनेवाला पहला भारतीय (वह भी आदिवासी) था, जिससे पढ़ने के लिए भारत के राजा-रजवाड़े लालायित रहते थे, जो ऑक्सफोर्ड से अर्थशास्त्र में गोल्डमेडलिस्ट था, हॉकी में एकमात्र भारतीय ‘ऑक्सफोर्ड ब्लू’ खिलाड़ी था और जो कॉलेज के दिनों में विभिन्न सभा-सोसायटियों का नेतृत्वकर्ता संयोजक-अध्यक्ष था, उसे इस लायक भी नहीं समझा गया कि उसकी चर्चा हो। —इसी पुस्तक से
Bharat Mein Rashtrapati Pranali
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Bhanu Dhamija
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Das Saal : Jinse Desh Ki Siyasat Badal Gai
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Sudeep Thakur
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Description:
भारत ने 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेज़ी राज से मुक्त होने के बाद संसदीय लोकतंत्र का रास्ता चुना और 1970 का दशक इस यात्रा का एक अहम पड़ाव था जिसका दूरगामी असर देश की सियासत, शासन पद्धति और कुल मिलाकर देश की जनता पर पड़ा।
सत्तर के दशक को ‘इन्दिरा का दशक’ भी कहा जा सकता है। वह 1971 में गरीबी हटाओ के सियासी नारे के साथ पूरे दमखम सत्ता में लौटीं थीं। बांग्लादेश युद्ध में मिली कामयाबी ने इन्दिरा गांधी को लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचा दिया और फिर वह एक-एक कर साहसिक फैसले करती चली गईं, जिनमें प्रिवी पर्स की समाप्ति और कोयले का राष्ट्रीयकरण शामिल हैं। इसी दौर में जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई की अगुआई में हुए छात्र आन्दोलन ने इन्दिरा के लिए अभूतपूर्व चुनौतियाँ पेश की, जिसकी परिणति देश ने आपातकाल के रूप में देखी। आपातकाल ने नागरिक आजादी को संकट में डाल दिया था। इसी दौर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नए सिरे से उभार भी दिखा।
आजादी के पचहत्तरवें साल में प्रकाशित यह किताब सत्तर के दशक के ऐसे ही पन्नों को खोलती है और उन पर नई रोशनी डालती है। अनुभवी पत्रकार सुदीप ठाकुर की यह शोधपरक किताब रोचकता से भरपूर है; और निष्पक्षता से हमारे लोकतंत्र के एक अहम दशक की पड़ताल करती है, जब कमोबेश वैसे ही सवाल आज हमारे सामने खड़े हैं।
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