Kargil
Author:
Rachna Bisht RawatPublisher:
Prabhat PrakashanLanguage:
HindiCategory:
History-and-politics0 Reviews
Price: ₹ 240
₹
300
Available
कारगिल युद्ध की बीसवीं वर्षगाँठ पर इसके वीर सैनिकों की कहानियों के जरिए बेहद ठंडे युद्धक्षेत्र का दोबारा अनुभव कीजिए।
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ISBN: 9789390315185
Pages: 216
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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नई विधाओं जैसे हिन्दी गज़ल, नवगीत, अनुगीत, हाइकू के रचना-शिल्प पर समुचित प्रकाश डाला गया है।
स्वतंत्रता के बाद के ऐसे रचनाकारों की रचनाओं पर विचार किया गया है जो आन्दोलनों से न जुड़कर स्वतंत्र लेखन कर रहे थे। रचनाकारों तथा रचनाओं का मूल्यांकन दुराग्रहमुक्त होकर निष्पक्ष भाव से किया गया है।
हिन्दी और उर्दू का गहरा रिश्ता है, अतः हिन्दी के अध्येताओं को उर्दू साहित्य से भी परिचित होना चाहिए, इसी दृष्टि से उर्दू साहित्य का अति संक्षिप्त इतिहास दर्शाया गया हैं। समकालीन अनेक रचनाओं को शामिल किया गया है जो साहित्यिक दृष्टि से उत्कृष्ट हैं किन्तु साहित्येतिहासों में जिनकी उपेक्षा की गई है। आधुनिक युग में ब्रज तथा अवधी साहित्य की प्रवृत्तियों पर प्रकाश डाला गया है। विवेचन की भाषा-शैली स्पष्ट, सुबोध तथा निष्पक्ष है। हिन्दी साहित्य के समग्र इतिहास में काव्य-प्रवृतियों का अभिनव दृष्टि से मूल्यांकन किया गया है। नए विमर्शों तथा पुनर्पाठ की दृष्टि से नई सामग्री का समावेश भी किया गया है। हिन्दी ग़ज़ल, हाइकू, बोलियों के साहित्य को भी यथास्थान अंकित किया गया है।
Poorva Madhyakalin Bharat Ka Samanti Samaj Aur Sanskriti
- Author Name:
Ramsharan Sharma
- Book Type:

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Description:
यह पुस्तक पूर्व-मध्यकालीन समाज एवं संस्कृति के स्वरूप पर प्रकाश डालती है। गुप्तोत्तरकाल में सामाजिक संकट के कारण भूमि अनुदानों में वृद्धि हुई और व्यापार और मुद्रा-प्रयोग की कमी तथा प्राचीन नगरों के पतन के कारण यह प्रथा बढ़ चली। इस पुस्तक में इस तथ्य को उजागर किया गया है। इसके साथ ही भारतीय सामन्तवाद की आलोचनाओं पर विचार करते हुए इसमें मध्यकालीन उत्पादन पद्धति एवं उत्पादन सम्बन्धों तथा राज्य-व्यवस्था के सामन्ती पक्ष का उद्घाटन करते हुए प्राचीनकाल तथा मध्यकाल के बीच के अन्तर को स्पष्ट किया गया है। इसके अलावा इसमें जातियों की संख्या के बढ़ने और उनके बीच पैदा होनेवाले नए समीकरणों के कारणों की भी व्याख्या की गई है।
यह पुस्तक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त श्रेणीबद्ध, सोपानबद्ध सामन्ती संघटन के प्रभाव को तो दर्शाती ही है, तांत्रिक पंथ के उदय और प्रसार की आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि को भी प्रस्तुत करती है। इसका मुख्य आकर्षण इस बात में है कि इसमें साहित्यिक तथा अन्य स्रोतों के आधार पर सामन्ती मानसिकता के विश्लेषण के साथ-साथ यह भी स्पष्ट किया गया है कि जब-तब किसान सामन्ती व्यवस्था का विरोध कैसे करते थे। लेखक का विचार है कि सामन्तवाद के मूल में प्रभुतासम्पन्न भूस्वामियों के अधीन बेबस किसानों का बना रहना अत्यावश्यक है। इस अवधारणा के आलोक में मध्यकालीन कला, धर्म, साहित्य और जातिप्रथा को सही ढंग से परखा जा सकता है, साथ ही देश के सामन्ती अवशेषों की पहचान और उनके उन्मूलन द्वारा प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है।
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