
Jartushtra Ne Yah Kaha
Author:
Friedrich NietzschePublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
General-non-fiction0 Reviews
Price: ₹ 1036
₹
1295
Unavailable
यूनानियों के अनुसार विकास के प्रत्येक चरण का अपना पैग़म्बर हुआ है जिसने अपने समय के लोगों का पथ-प्रदर्शन किया है। हर पैग़म्बर का अपना समय होता है। ‘ज़रतुष्ट्र’ ही वह पहला विचारक था जिसने व्यवहार-चक्र में अच्छाई और बुराई, नेकी और बदी के अन्तर को समझा, नैतिकता के तात्त्विक रूप को पहचाना और कहा कि सच्चाई ही सर्वोत्तम सद्गुण है, कार्य-प्रेरक है और है अपने आप में पूर्ण अर्थात् स्वयंभू।</p>
<p>‘ज़रतुष्ट्र ने यह कहा’ नामक पुस्तक के लेखक विश्व-विख्यात विचारक, दार्शनिक और साहित्यकार फ़्रीडरिश नीत्शे हैं। इनकी विचारधारा एवं लेखन ने अपने समय के विचारशील लोगों को जितना प्रभावित किया। उतना दार्शनिक इमेनुअल कांट को छोड़कर अन्य कोई नहीं कर पाया था, शोपनहार भी नहीं जिनके सिद्धान्तों का प्रभाव यूरोप के अधिकांश भागों में छाया हुआ था। नीत्शे की लेखनी का क्षेत्र बहुत विस्तृत था, उसमें नीतिशास्त्र के अतिरिक्त साहित्य, राजनीति, दर्शन और धार्मिक निष्ठाओं एवं विचारों का मंथन तथा समालोचना सभी सम्मिलित थे।</p>
<p>नीत्शे ने हमारे सम्मुख ऐसे नए और उच्च मूल्यों को रखा जो उत्साहवर्धक हैं और जीवन में ‘आशा और विश्वास’ पैदा करते हैं। मूल्यों की पुरानी सारिणी में उन मूल्यों पर बल दिया गया है जो मनुष्य को कमज़ोर, निरुत्साही और निष्प्रभ बनाते हैं। ऐसे मूल्यों वाले व्यक्ति को ‘माडर्न मैन’ की संज्ञा दी गई। इसके विपरीत, मूल्यों की नई सारिणी में, उन मूल्यों को प्राथमिकता दी गई है जो कौम को स्वस्थ, सबल, शक्तिवान, उत्साही और साहसी बनाते हैं। या यूँ कहिए कि नई मूल्य सारिणी के अनुसार ‘जो गुण शक्ति से विकसित होते हैं, वे अच्छे हैं, और जो कमज़ोरी के परिणाम से उपजते हैं, वे बुरे हैं।’</p>
<p>उम्मीद है, यह महत्त्वपूर्ण कृति हिन्दी के पाठकों, ख़ासकर दर्शन में रुचि रखनेवालों को बेहद पसन्द आएगी।
ISBN: 9788183610322
Pages: 358
Avg Reading Time: 12 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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स्व. धर्माराव जी की तीन रचनाएँ ‘पेल्लिदानि पुट्टुपूर्वोत्तरालु’, सन् 1960 (विवाह-संस्कार : स्वरूप एवं विकास), ‘देवालयालमीद बूतु बोम्मल्य ऐंदुकु’, सन् 1936 (देवालयों पर मिथुन-मूर्तियाँ क्यों?) तथा ‘इनप कच्चडालु’, सन् 1940 (लोहे की कमरपेटियाँ) तेलगू-जगत में प्रसिद्ध हैं। इन रचनाओं में प्रस्तुत किए गए विषयों में बीते युगों की सच्चाइयाँ हैं। इतिहास में इन सच्चाइयों का महत्त्व कम नहीं है। तीनों रचनाओं के विषय यौन-नैतिकता से सम्बन्धित हैं। इन रचनाओं में समाज मनोविज्ञान का विश्लेषण हुआ है।
लेखक ने इन पुस्तकों द्वारा अतीत के एक महत्त्वपूर्ण चित्र को हमारे सामने रखने का प्रयत्न किया है। एक समय में देवालयों में मिथुन-पूजा की जाती थी, कहने का मतलब यह कदापि नहीं कि आज भी देवालयों को उसी रूप में देखें। लेखक का उद्देश्य देवालय के उस आरम्भिक रूप तथा एक ऐतिहासिक सत्य की जानकारी देना है। आधुनिक देवालय दैवी-भक्ति तथा आध्यात्मिक चिन्तन के साथ जुड़े हुए हैं। आज देवालय जिस रूप में हैं, उसी रूप में रहें। आज हमें आध्यात्मिक चिन्तन की सख़्त ज़रूरत है।
पुस्तक साधारण पाठक हों या विज्ञ पाठक, दोनों पर समान प्रभाव डालती है। जिज्ञासु पाठक इस प्रश्नचिह्न का उत्तर ढूँढ़़ने का प्रयास भी करते हैं। इस रचना में सारी दुनिया की सभ्यताओं की यौन-नैतिकता का चित्रण हमें मिलता है। देवालय तथा प्रजनन-तंत्रों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है। जब यह सम्बन्ध टूट जाएगा तब देवालयों का महत्त्व कम हो जाएगा। देवालय केवल प्राचीन अवशेषों के रूप में रह जाएँगे। प्रजनन-तंत्रों के साथ दैवी भावना जुड़ी हुई है। देवालयों में मिथुन-मूर्तियाँ रखने के पीछे मिथुन-पूजा की भावना झलकती है। लेखक ने ऐसे कई उदाहरण देकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि पूजा के कई उपकरण स्त्री-पुरुष गुप्तांगों के ही प्रतीक हैं। देवालयों का निर्माण क्यों हुआ? इनमें मिथुन-मूर्तियाँ क्यों रखी जाती हैं? लिंग-पूजा का महत्त्व क्या है? पुरुष तथा स्त्री देवदासियों की आवश्यकता क्यों पड़ी? वीर्य-शक्ति का अर्पण कैसे होता है? फिनीशिया, बेबिलोनिया, अस्सीरिया, अमेरिका, न्यूगिनी आदि देशों की कई प्रथाओं में मिथुन-पूजा की भावना क्यों झलक पड़ती है? पंडा शब्द का अर्थ क्या है? पंडाओं का देवालयों के साथ किस प्रकार का सम्बन्ध है? आन्ध्र के कुछ त्योहारों में तथा श्राद्ध में बनाए जानेवाले कुछ व्यंजनों के आकारों के पीछे की भावना क्या है? कुछ उत्सवों में लोग स्त्री-पुरुष गुप्तांगों से सम्बन्धित अश्लील गालियाँ क्यों देते हैं? मंत्रपूत सम्भोग क्या है? क्यों किया जाता है? अश्वमेध यज्ञ, काम-दहन, चोली-त्योहार आदि क्यों मनाए जाते हैं? समाजशास्त्र की दृष्टि से तथा स्त्री-पुरुषों के मनोविज्ञान की दृष्टि से इनका महत्त्व क्या है? आदि विषयों का प्रमाण सहित विश्लेषण यहाँ किया गया है और इन प्रश्नों का समाधान सामाजिक मनोविज्ञान की दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है।
जिज्ञासु पाठकों के लिए ‘देवालयों पर मिथुन-मूर्तियाँ क्यों?’ एक महत्त्वपूर्ण जानकारी देनेवाली रचना है।
Nootan Sadi Ke Navneet Shriguruji
- Author Name:
Dr. Dhananjay Giri
- Book Type:
- Description: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्रीगुरुजी द्वैत भी हैं, अद्वैत भी हैं। शैव भी हैं, शाक्त भी हैं। करुणा भी हैं और क्रांति भी हैं। ज्ञान भी हैं और कर्म भी हैं। साधना भी हैं और संघर्ष भी हैं। सपने भी हैं और सत्य भी हैं। श्रीगुरुजी धर्म और अध्यात्म की सामासिक अभिव्यक्ति हैं। परंपरा और प्रगति के प्रेरणापुंज हैं। उनका धर्म-कर्म, पूजा-पाठ केवल पौरोहित-प्रकल्प नहीं, बल्कि राष्ट्र-यज्ञ में जीवन को समिधा बना देने की संकल्प-साधना है। उनकी साधना इतिहास का एक सुंदरकांड है। संघ-कार्य की नींव संघ के आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार ने डाली, संघ को गढ़ा श्रीगुरुजी ने; डॉ. हेडगेवार ने संघ को सांगठनिक सूत्र दिया, शाखा-पद्धति दी, श्रीगुरुजी ने संघ को सिद्धांत और विस्तार दिया। आज संघ एक विराट् संगठन बन गया है; भारत का एक नियामक तत्त्व बन गया है। इसे नकारकर देश और समाज-जीवन की परिकल्पना नहीं की जा सकती है—संघ के इस स्थिति में पहुँचने में श्रीगुरुजी की दूरदृष्टि और आध्यात्मिकता की विशेष भूमिका है। श्रीगुरुजी भाव के वो सागर हैं, जहाँ भाव की हर नदी आकर विलीन हो जाती है; सारी भावनाएँ जहाँ अभिव्यक्त हो जाना चाहती हैं, जहाँ सारे संपर्क, संबंध और संबोधन आकर मिल जाते हैं। यह पुस्तक ऐसे आध्यात्मिक शिखरपुरुष, समाजधर्मी और पथ-प्रदर्शक श्रीगुरुजी के प्रेरणाप्रद जीवन की एक झलक मात्र है।
Uttar Bharat Mein Chamar Aur Dalit Aandolan Ka Itihas
- Author Name:
Ramnarayan S. Rawat
- Book Type:
- Description: ‘उत्तर भारत में चमार और दलित आन्दोलन का इतिहास’ दलितों के उन संघर्षों का इतिहास है, जो उन्होंने अस्पृश्यता और बेगार-प्रथा के विरुद्ध और अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए किए थे और जिनमें वे सफल हुए थे। यह पहली कृति है जिसमें दलितों के सन्दर्भ में औपनिवेशिक काल से लेकर आज़ादी के समय तक की गहरी छानबीन की गई है। इसमें प्रामाणिक तथ्यों के ज़रिये बतलाया गया है कि अधिकतर चमार हमेशा से किसान रहे हैं। लेकिन औपनिवेशिक इतिहासकारों ने उन्हें खालों के लिए मवेशियों को ज़हर देकर मारने वाला गठित अपराधी गिरोह बताया। इस मिथ्या धारणा को नकारने की ज़रूरत राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने भी नहीं समझी। दरअसल ब्राह्मणों ने सभी शिल्पकार और किसान जातियों के बारे में ऐसी धारणाएँ गढ़ी थीं जो लगभग प्रत्येक दलित जाति के लिए अस्पृश्यता का कारण बनता है। इनके विरुद्ध दलितों की विभिन्न स्तरों पर प्रतिक्रियाएँ और प्रतिरोध हुए लेकिन यह सब इतिहास में प्रायः अनुल्लिखित रहा, जिन्हें सामने लाकर यह पुस्तक एक ज़रूरी सन्दर्भ मुहैया कराती है। डॉ. आंबेडकर से भी एक सदी पहले, उत्तर प्रदेश में शुरू हुए चमारों के अस्मिता-आन्दोलन, उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में पूर्वी उत्तर प्रदेश में शुरू हुए किसान-आन्दोलन में दलितों के प्रतिनिधित्व और तीसरे दशक में चले आदि-हिन्दू महासभा के आन्दोलन पर इसमें विस्तार से विचार किया गया है। आदि-हिन्दू महासभा के आन्दोलन ने राजनीतिक संगठन के लिए सम्पूर्ण दलित जातियों के लिए एक मूल श्रेणी के रूप में ‘अछूत’ पहचान का निर्माण किया, जिसने नया दलित-इतिहास निर्मित किया और वे प्रमुख मुद्दे निर्धारित किए जो बीते आठ दशक से दलित राजनीति को आकार दे रहे हैं। बेशक यह दलित आन्दोलन को उसके मूल परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए एक आवश्यक पुस्तक है। पठनीय, विचारणीय और संग्रहणीय!
Bhartiya Darshan
- Author Name:
Vachaspati Gairola
- Book Type:
-
Description:
दर्शनशास्त्र समस्त शास्त्रों का सार, मूल, तत्त्व या संग्राहक है। उसमें ब्रह्मविद्या, आत्मविद्या या पराविद्या, अध्यात्मविद्या, चित्तविद्या या अन्त:करणशास्त्र, तर्क या न्याय आचारशास्त्र या धर्म-मीमांसा, सौन्दर्यशास्त्र या कलाशास्त्र आदि सभी विषयों का परिपूर्ण शिक्षण-परीक्षण प्रस्तुत किया गया है।
दर्शनशास्त्र आत्मविद्या, अध्यात्मविद्या, आन्वीक्षिकी, सब शास्त्रों का शास्त्र, सब विद्याओं का प्रदीप, सब व्यावहारिक सत्कर्मों का उपाय, दुष्कर्मों का उपाय और नैष्कर्म्य, अर्थात् अफलप्रेप्सु कर्म का साधक और इसी कारण से सब सद्-धर्मों का आश्रय और अन्तत: समूल दु:ख से मोक्ष देनेवाला है; क्योंकि सब पदार्थों के मूल हेतु को, आत्मा के स्वभाव को, पुरुष की प्रकृति को बताता है; और आत्मा, जीवात्मा तथा दोनों की एकता का, तौहीद का दर्शन कराता है।
दर्शनशास्त्र का जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है। ‘जीवन’ और ‘दर्शन’ एक ही उद्देश्य के दो परिणाम हैं। दोनों का चरम लक्ष्य एक ही है; परम श्रेय (नि:श्रेयस) की खोज करना। उसी का सैद्धान्तिक रूप दर्शन है और व्यावहारिक रूप जीवन। जीवन की सर्वांगीणता के निर्माणक जो सूत्र, तन्तु या तत्त्व हैं, उन्हीं की व्याख्या करना दर्शन का अभिप्रेय है। दार्शनिक दृष्टि से जीवन पर विचार करने की एक निजी पद्धति है, अपने विशेष नियम हैं। इन नियमों और पद्धतियों के माध्यम से जीवन का वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत करना ही दर्शन का ध्येय है।
सम्प्रति मुख्यत: छह आस्तिक दर्शनों—न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त तथा तीन नास्तिक दर्शनों—चार्वाक, बौद्ध और जैन को ही लिया जाता है। भारतीय दर्शन का जिन विभिन्न शाखाओं या सम्प्रदायों में विकास हुआ, यदि उनके आधार पर यह निश्चित किया जाए कि वे संख्या में कितने हैं तो इसका एक निश्चित उत्तर नहीं मिलेगा। प्राय: खंड दर्शन के आधार पर दर्शनों की संख्या छह मानी जाती है। भारतीय दर्शन की विभिन्न ज्ञान धाराओं का एक ही उद्गम और एक ही पर्यवसन है। उनकी अनेकता में एकता और उनकी विभिन्न दृष्टियाँ एक ही लक्ष्य का अनुसन्धान करती हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में वेद दर्शन, उपनिषद दर्शन, गीता दर्शन, चार्वाक दर्शन, जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन, न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन, सांख्य दर्शन, योग दर्शन, मीमांसा दर्शन, अद्वैत दर्शन तथा रामानुज दर्शन का विस्तृत विवेचन किया गया है।
आशा है, पुस्तक दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियों, शोधार्थियों और पाठकों का मार्गदर्शन करने में सहायक सिद्ध होगी।
Kyon Papa Kyon
- Author Name:
Chitra Manglik Kumar
- Book Type:
- Description: ‘क्यों पापा क्यों?’ एक कहानी-संग्रह है। यह पुस्तक मनगढ़ंत कल्पनाओं पर आधारित अथवा मात्र मनोरंजन के लिए लिखी गई हो, ऐसा नहीं है। वास्तविक लोग, संयुक्त परिवार, प्रामाणिक जीवन, भूतकाल से वर्तमान समय की कड़ी-से-कड़ी जोड़ती हुई स्वतंत्र नदिया की बहती धारा के रूप में सबको लेकर,समेटते निरंतर आगे बढ़ती जीवंत सदस्यों की जीवनी में बद्ध कहानियाँ हैं । परिवर्तन संसार का नियम है। समाज में निरंतर परिवर्तन होता रहता है। इन कहानियों में समाज का बदलता रूप, पारिवारिक संबंधों में तनाव, अलगाव, आधुनिक जीवन-शैली, व्यक्तिगत अहं वाली मानसिकता के साथ-साथ परंपरागत संगठित परिवारों का जीवन झलकता है। इन कहानियों में पुरानी पीढ़ी और वर्तमान पीढ़ी, दोनों का चित्रण है, जो समय और समाज के बदलते दौर पर मंथन करने के लिए प्रेरित करती हैं। दोनों पीढ़ी की सार्थक सोच के समन्वय से संभवतः समाज को अधिक सशक्त, सुखद और सभ्य बनाया जा सकता है।
Charles Darwin
- Author Name:
Vinod Kumar Mishra
- Book Type:
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