Dosti
Author:
AmarkantPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
General-non-fiction1 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
‘दोस्ती’ कथाकार अमरकान्त के संस्मरणों का संग्रह है। इसकी शुरुआत ही एक ऐसे संस्मरण से होती है जिसमें हमें बाद में अत्यन्त प्रतिष्ठित हुए रचनाकारों के शुरुआती दिनों और उनके संघर्षों का विवरण प्राप्त होता है। ‘लेखक की दोस्ती’ शीर्षक इस वृत्तान्त में कमलेश्वर, मार्कण्डेय, भैरवप्रसाद गुप्त, दुष्यन्त कुमार और अन्य समकालीनों की मित्रताओं और निजी व सामाजिक-रचनात्मक द्वन्द्वों का लेखा-जोखा पढ़ते ही बनता है।
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‘मेरा बचपन कब समाप्त हुआ’ शीर्षक लम्बे संस्मरण में अमरकान्त अपने जीवन के उन दिनों को याद करते हैं जब उनकी किशोर चेतना अलग-अलग दिशाओं से समझ और संस्कार ग्रहण कर रही थी। इस आलेख में कई बेहद मनोरंजक घटनाओं के विवरण भी उन्होंने दिए हैं और उस समय के सामाजिक-राजनीतिक हालात के भी।
अमरकान्त और उनके समय को जानने-समझने में उनके ये संस्मरण साहित्य के अध्येताओं और पाठकों, दोनों को रुचिकर तथा सार्थक प्रतीत होंगे।
ISBN: 9789360867096
Pages: 160
Avg Reading Time: 5 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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- Description: 2010 में जब भारत सरकार देश के नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सल विरोधी अभियानों में तेजी ला रही थी, तो उस समय अल्पा शाह गुरिल्ला प्लाटून केसाथ उन्हीं इलाकों की 250 किलोमीटर लंबे सात रातों के सफर पर निकलीं। एक मानव विज्ञानी केरूप में वह समझना चाहती थीं कि एक नए भारत के उदय की पृष्ठभूम में, क्यों देश के गरीबों ने विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र से मुँह मोड़कर क्रांतिकारी विचारधारा के साथ एकजुटता दिखाई? गहरे हरे रंग की छापामारा वर्दी पहने, पुरुष के वेश में अल्पा प्लाटून में एकमात्र महिला और एकमात्र ऐसी इनसान थीं जिसके पास बंदूक नहीं थी। कष्टों से भरी उनकी इस यात्रा ने यह खुलासा किया कि क्यों विभिन्न पृष्ठभूमियों केलोग, दुनिया को बदलने के लिए हथियार उठाकर एक साथ इकट्ठा हो गए थे; और साथ ही किन वजहों से फिर उनमें बिखराव हुआ? अल्पा शाह सालों के शोध के साथ ही नक्सलियों के गढ़ में आदिवासी समुदायों के साथ, उनके रोजमर्रा के जीवन में इतना घुलमिल गई थीं कि उनकी पुस्तक ‘नक्सलियों के बीच मेरे बीते दिनों की रोमांचक गाथा’ में वह गइराई और घनिष्ठता साफ नजर आती है और पुस्तक एक थ्रिलर की तरह हमारी आँखों के सामने से गुजरती है। इसी गहन अध्ययन और शोध से पुस्तक में आदिवासी जीवन और उसका संघर्ष जीवंत हो उठता है। यह कृति समकालीन भारत के बीचोबीच आर्थिक वृद्धि, बढ़ती असमानता, विस्थापन और संघर्ष का प्रतिबिंम्ब प्रस्तुत करती है।
Vishamta : Ek Punarvivechan
- Author Name:
Amartya Sen
- Book Type:

-
Description:
नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री प्रोफेसर अमर्त्य सेन की एक दार्शनिक रचना है—‘विषमता’। उनकी कई एक विश्व-प्रसिद्ध पुस्तकों के बीच इस रचना का शुमार उनकी सोच की कुंजी के बतौर होता है। निस्संदेह यह प्रोफेसर सेन की कुछ सर्वाधिक कठिन पुस्तकों में से भी एक है। कठिन यह इस अर्थ में नहीं है कि कोई लंबी-चौड़ी उलझी हुई लफ़्फ़ाज़ी इसमें की गई है, बल्कि इस अर्थ में कि स्वतंत्रता, समानता, विविधता आदि अवधारणाओं का प्रयोग यहाँ इतने व्यापक संदर्भों में हुआ है कि उनका आदी होने में किसी को भी काफी मेहनत करनी पड़ेगी।
समानता और स्वतंत्रता के बीच का विवाद इस सदी का एक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक विवाद रहा है। शीतयुद्ध के चार दशकों ने तो इसे विश्व राजनीति के केंद्रीय विवाद का ही रूप दे दिया था। इस पुस्तक में प्रोफेसर सेन इस विवाद की तह में जाते हैं। समानतावादियों और स्वतंत्रतावादियों के मतों का विश्लेषण करते हुए प्रोफेसर सेन यह सिद्ध करते हैं कि इन दोनों के बीच विवाद दरअसल इस बात पर है ही नहीं कि मनुष्यों के बीच समानता होनी चाहिए या नहीं। विवाद तो इस बात पर है कि मनुष्यों के बीच समानता किस चीज की होनी चाहिए।
इस केंद्रीय प्रश्न ‘समानता किस चीज की?’ का जवाब खोजने के क्रम में प्रोफेसर सेन मनुष्यों के बीच मौजूद भारी विविधताओं को केंद्र में रखते हैं। अपंग व्यक्ति, गर्भवती स्त्री, कालाजार प्रभावित इलाकों में रहनेवाले आदिवासी या स्वेच्छया सारी सुख-सुविधाओं का त्याग कर जनता की सेवा करनेवाले सामाजिक कार्यकर्ता–सभी उनकी नजर में रहते हैं और मनुष्य की किसी भी गढ़ी-गढ़ाई परिभाषा से वे ठोस रूपाकार वाले मनुष्यों का कुछ खास भला होते नहीं देखते। उनका केंद्रीकरण आमतौर पर भिन्न-भिन्न लक्ष्यों के लिए प्रयास करने की मानवीय स्वतंत्रता पर और खासतौर पर विविध मूल्यों को अर्जित करने की अलग-अलग व्यक्तियों के सामर्थ्य पर है।
स्वतंत्रता और समानता को लेकर आपके विचार चाहे जो भी हों और प्रोफेसर सेन के विचारों से उनकी कोई संगति बैठती हो या न बैठती हो पर इसमें कोई संदेह नहीं कि इस विश्लेषण से गुजरने के बाद आपकी सोच का दायरा पहले से बढ़ चुका होगा।
1000 Bharat Gyan Prashanottari
- Author Name:
Sanjay Kumar Dwivedi
- Book Type:

- Description: "1000 भारत ज्ञान प्रश्नोत्तरी—संजय कुमार द्विवेदी किसी भी विषय की बढ़िया-से-बढ़िया पठन-सामग्री को उसके विस्तृत कलेवर के साथ पढ़ना और उसे याद करना कठिन होता है, परंतु यदि उसी सामग्री को प्रश्नोत्तर रूप में प्रस्तुत किया जाए तो वह अत्यंत रुचिकर हो जाती है और उसे सहजता से याद भी किया जा सकता है। भारत जैसे विशाल एवं विविधतापूर्ण देश को 1000 प्रश्नों में समेट पाना निश्चय ही जोखिम भरा काम है। वस्तुनिष्ठ प्रश्नों का अपना एक दायरा होता है। इस स्थिति का आकलन करते हुए इस पुस्तक में प्रश्नों का चयन एवं प्रस्तुतीकरण इस तरह किया गया है कि पाठकों के समक्ष अधिक-से-अधिक जानकारी पहुँचाई जा सके। पुस्तक में शामिल किए गए अधिकतर प्रश्न ऐसे हैं, जिनमें कई उप-प्रश्न और उनके उत्तर छिपे हुए हैं। प्रस्तुत पुस्तक को यथासंभव ज्ञानवर्धक एवं रोचक बनाने की कोशिश की गई है। प्रश्नों का चयन करते समय प्रत्येक विषय के हर पहलू को छूने की कोशिश की गई है। पुस्तक संतुलित हो, इसका भी हर संभव प्रयास किया गया है। आशा है, भारत को भलीभाँति समझने में पुस्तक पाठकों की भरपूर मदद तो करेगी ही, भरपूर ज्ञानवर्द्धन भी करेगी। "
Vyakaran Pravesh
- Author Name:
Shyam Chandra Kapoor
- Book Type:

- Description: व्याकरण उस विद्या को कहते है, जिससे हम भाषा को शुद्ध बोलना तथा लिखना सीखते है।भाषा— भाषा उस साधन का नाम है, जिससे हम बोलकर या लिखकर अपने विचार प्रकट करते है। जैसे— हिंदी भाषा, अंग्रेजी भाषा, मलयालम भाषा, पंजाबी भाषा, तमिल भाषा आदि।
kothigalu
- Author Name:
Vasudhendra
- Book Type:

- Description: ವಸುಧೇಂದ್ರರ ಆರಂಭದ ಸುಲಲಿತ ಪ್ರಬಂಧಗಳ ಗುಚ್ಛ.
Kavita Mein Jantantra
- Author Name:
Apoorvanand
- Book Type:

- Description: कविता स्वभावतः ही लोकतांत्रिक मूल्यों की पैरोकार होती है, वह उनकी तरफ़ हमारा ध्यान भी खींचती है, उनकी कमी को रेखांकित भी करती है, और कई बार नए मूल्यों, नई समझदारी, एक ज़्यादा महीन संवेदना की ओर भी लेकर जाती है। कविता उन परिस्थितियों की गहरी आलोचना भी करती है, जो व्यक्ति की, मनुष्य की स्वतंत्रता के विरुद्ध हैं, और इस तरह लोकतंत्र के भविष्य के लिए ख़तरा पैदा करती है। ‘कविता में जनतंत्र’ पुस्तक में कुछ कविताओं के पाठ के साथ भारतीय जनतंत्र की वर्तमान दशा और दिशा पर चिन्तन किया गया है, यह समझने की कोशिश की गई है कि एक देश और एक समाज के रूप में बहैसियत एक जनतंत्र हमने क्या खोया और क्या पाया है, और इस समय हम कहाँ हैं? ग़ौरतलब है कि इन टिप्पणियों की पृष्ठभूमि में 2024 का लोकसभा चुनाव है, यह वह समय था जब हम जनतंत्र और बहुमत को आमने-सामने खड़ा पा रहे थे; स्वतंत्रता और सर्वसमावेशी उदारता के पक्षधर आशंकित थे, और अल्पसंख्यक भयभीत। जिन कविताओं के बहाने यह गहन जनतंत्र-चर्चा संभव हुई है उनमें नागार्जुन, रघुवीर सहाय, धूमिल, श्रीकान्त वर्मा, विजयदेव नारायण साही, केदारनाथ सिंह, जैसे वरिष्ठों से लेकर अनुज लुगुन, अदनान कफ़ील दरवेश और जसिंता केरकेट्टा तक कई महत्त्वपूर्ण रचनाकारों की कविताएँ शामिल हैं। अत्यन्त समीचीन यह पुस्तक कविता को पढ़ने की एक नई पद्धति तो हमें देती ही है, एक विचार, एक शासन-पद्धति और एक सम्भावना के रूप में जनतंत्र की परिभाषा, उसकी आधारभूत शर्तों, चुनौतियों और प्रतिबद्धताओं पर सोचना भी सिखाती है।
Alochak Aur Alochana
- Author Name:
Bachchan Singh
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- Description: पूर्व और पश्चिम के आलोचना सिद्धान्तों के बृहद् विवेचन के लिए ख्यात डॉ. बच्चन सिंह की यह कृति उनकी अपनी कुछ मूल्यवान स्थापनाओं के लिए भी पढ़ी जाती रही है। उनका मानना है कि पाश्चात्य समीक्षा-सिद्धान्तों से हम अपनी समीक्षा-पद्धति का निर्माण नहीं कर सकते, लेकिन उनके सम्यक अध्ययन के बिना हम कुछ नवीन भी नहीं बना सकते। ‘आलोचक और आलोचना’ का उद्देश्य इसी अध्ययन को प्रस्तुत करना है। लेकिन केवल पश्चिमी सिद्धान्तों का अध्ययन नहीं, भारतीय आलोचना-पद्धतियों और अवधारणाओं का भी। वे आरम्भ में ही स्पष्ट करते हैं कि किसी भी रचना को आप बाह्य उपकरणों या फार्मूलों से नहीं समझ सकते, न ही ऐसा करना उपादेय होगा। न तो अलंकारों की गणना को आलोचना कह सकते हैं और न ही सूरदास को पुष्टिमार्गी सिद्ध करना आलोचना है। उनके मुताबिक अपने समय की मानव-स्थितियों के सन्दर्भ में भाषा-संरचना का विश्लेषण करना ही आलोचना का काम है। ऐसी ही आधारभूत मान्यताओं के साथ चलते हुए लेखक ने इस कृति में पश्चिम के प्लेटो, अरस्तू, लोंगिनुस, आई.ए. रिचर्ड्स, क्रोचे आदि के साथ अलंकार, रस, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति आदि भारतीय आलोचना-सिद्धान्तों की सुग्राह्य विवेचना की है जो आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी व आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना दृष्टि के विश्लेषण तक जाती है। साहित्य के अध्येताओं और छात्रों के लिए विशेष रूप से उपयोगी।
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