Sansmarnon Ka Alok
Author:
Kanhaiya SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Biographies-and-autobiographies0 Reviews
Price: ₹ 476
₹
595
Available
वैसे तो साहित्य की सभी विधाओं का महत्त्व है, पर उनमें प्रत्यक्ष अनुभूति के साथ ही कल्पना की उड़ान भी सम्मिलित होती है। इसके विपरीत संस्मरण में वास्तविक अनुभव और सत्यानुभूतियों का ही समुच्चय होता है। इसलिए यह विधा अधिक विश्वसनीय होने के कारण प्रेरणादायी भी होती है।</p>
<p>बहुत से प्रतिष्ठित संस्मरण-लेखक कुर्सी उछालने और दाग ढूँढ़कर अपने संस्मरणों को मसालेदार बनाते हैं। लेखक ने अपने इन संस्मरणों में इस प्रवृत्ति से बचने का प्रयास किया है। महापुरुषों और महान साहित्यकारों के गुणों और प्रेरणादायी प्रसंगों की ही चर्चा इस पुस्तक में की गई है। संस्मरण प्रायः उन्हीं व्यक्तियों के हैं जिनका प्रत्यक्ष दर्शन और साक्षात्कार लेखक को हुआ। अपवादस्वरूप रामचन्द्र शुक्ल और अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' के संस्मरण सुने और लिखे प्रसंगों से लिए गए हैं। इन संस्मरणों में जीवन्तता और बड़े लोगों के उदार, निरहंकार और उदात्त जीवन की झलकियाँ हैं। प्रेरणादायी तीन सन्तों, कई साहित्यकारों और समाजसेवी महानुभावों के संस्मरण इस पुस्तक में सम्मिलित किए गए हैं जो इतिहास की अमूल्य धरोहर बन सकते हैं।
ISBN: 9789389742725
Pages: 182
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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और यही इस डायरी की बहुत सादा, लेकिन निर्णायक उपलब्धि है। इस डायरी के पन्नों से गुजरते हुए आप अनायास ही अपने आपको एक आश्चर्य की दुनिया में पाते हैं, कि क्या राजनेता भी ऐसा होता है ! क्या राजनीति में सक्रिय कोई व्यक्ति गिलहरियों, चींटियों और चिड़ियाओं के दुख-दर्द के बारे में भी सोच सकता है ?और न सिर्फ सोचता ही है, बल्कि बाकायदा चिंतित होकर उनके दुख-दर्दों को अपनी डायरी के पन्नों पर अंकित भी करता है।
जो लोग रोज मन लगाकर अखबार पढ़ते हैं और जो ऊबकर मात्र हेडलाइनों तक सिमट गए हैं, वे दोनों ही यह जानकर आश्चर्यचकित हो सकते हैं कि इस डायरी का लेखक जेल में रहते हुए भी राजनीतिक सक्रियता को ‘मिस’ नहीं कर रहा है, बल्कि अपने विद्रोही तेवरों से मुख्यधारा में उल्लेखनीय लहरें पैदा कर चुकने के बावजूद जेल के अपने कमरे में वह एक चित्रकार होना चाहता है। वह चाहता है कि काश, तूलिका उसका औजार होती ! उसी कमरे में बैठकर वह फाँसी की क्रूर प्रथा पर सिहरता है, कैदियों की विवशता पर शोकाकुल होता है, और होता है वक्त के साथ मुखौटा बदल लेने वाले दोस्तों पर क्रोधित और उदास भी।
यह सब एक अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति के पोट्रेट की रेखाएँ हैं, जो अपने शारीरिक कष्ट को इसलिए भी छिपाता रहता है कि कहीं जेल-कर्मचारी परेशान न हों ! ऐसा संवेदनशील व्यक्ति ‘नेता’ के उस फ्रेम में फिट नहीं बैठता, जो इधर जनमानस में नेता की ‘छवि’ बनी है। लेकिन इस डायरी के पन्नों में वह व्यक्ति सुरक्षित है–अपनी पूरी संवेदनाओं के साथ, जिसमें दर्द है, पीड़ा है–उन पीड़ितों के प्रति, जो देश में प्रचुर संसाधनों के बावजूद कष्टमय जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं, और इसीलिए यह डायरी एक विशेष कृति के रूप में पठनीय और संग्रहणीय है।
Rameswaram Se Rashtrapati Bhavan Tak
- Author Name:
Dr. Ranjit Kumar Singh
- Book Type:

- Description: यह पुस्तक भारत के राष्ट्रपति के रूप में कलाम के समय पर भी प्रकाश डालती है, एक ऐसी अवधि, जिसके दौरान उन्होंने एक विकसित और समृद्ध भारत के अपने दृष्टिकोण से राष्ट्र को प्रेरित करना जारी रखा। पूरी पुस्तक द्वारा पाठकों को कलाम के व्यक्तित्व, उनके मूल्यों और उनकी मान्यताओं के बारे में अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है। यह पुस्तक उन लोगों के व्यापक शोध और साक्षात्कार पर आधारित है, जो कलाम को व्यक्तिगत रूप से जानते थे, जिनमें उनके परिवार, दोस्तों और सहयोगियों को शामिल किया गया था। हमें आशा है कि यह पुस्तक पाठकों को कलाम के पदचिन्हों पर चलने और एक बेहतर, अधिक समृद्ध और अधिक समावेशी भारत बनाने की दिशा में काम करने के लिए प्रेरित करेगी। हम यह भी उम्मीद करते हैं कि यह भारत के महानतम सपूतों में से एक और एक सच्चेदूरदर्शी के लिए उपयुक्त श्रद्धांजलि होगी।
Rajkapoor : Srijan Prakriya
- Author Name:
Jayprakash Chowksey
- Book Type:

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Description:
भारतीय आम आदमी का व्यक्तिगत गीत है भारतीय सिनेमा और राजकपूर इसके श्रेष्ठतम गायकों में से एक हैं। आज़ादी के चालीस वर्षों में आम आदमी के दिल पर जो कुछ बीता, वह राजकपूर ने अपने सिनेमा में प्रस्तुत किया। भविष्य में जब इन चालीस वर्षों का इतिहास लिखा जाएगा तब राजकपूर का सिनेमा अपने वक़्त का बड़ा प्रामाणिक दस्तावेज़ होगा और इतिहासकार उसे नकार नहीं पाएगा।
राजकपूर, नेहरू युग के प्रतिनिधि फ़िल्मकार माने जाते हैं, जैसे कि शास्त्री-युग के मनोज कुमार। इन्दिरा गांधी के युग के मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा।
आज़ाद भारत के साथ ही राजकपूर की सृजन-यात्रा भी शुरू होती है। उन्होंने 6 जुलाई, 1947 को ‘आग’ का मुहूर्त किया था और 6 जुलाई, 1948 को ‘आग’ प्रदर्शित हुई थी। भारत की आज़ादी जब उफक पर खड़ी थी और सहर होने को थी, तब राजकपूर ने अपनी पहली फ़िल्म बनाई थी। ‘आग’ आज़ादी की अलसभोर की फ़िल्म थी, जब ग़ुलामी का अँधेरा हटने को था और आज़ादी की पहली किरण आने को थी। ‘आग’ में भारत की व्याकुलता है, जो सदियों की ग़ुलामी तोड़कर अपने सपनों को साकार करना चाहता है। राजकपूर की आख़िर फ़िल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ 15 अगस्त, 1985 को प्रदर्शित हुई। इस फ़िल्म में राजकपूर ने उस कुचक्र को उजागर किया है, जो कहता है कि पैसे से सत्ता मिलती है और सत्ता से पैसा पैदा होता है। इस तरह राजकपूर ने अपनी पहली फ़िल्म ‘आग’ से लेकर अन्तिम फ़िल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ तक भारत के जनमानस के प्रतिनिधि फ़िल्मकार की भूमिका निभाई है।
यह राजकपूर जैसे जागरूक फ़िल्मकार का ही काम था कि सन् 1954 और 56 में उसने भारतीय समाज का पूर्वानुमान लगा लिया था और भ्रष्टाचार के नंगे नाच के लिए लोगों को तैयार कर दिया था। ‘जागते रहो’ के समय उनके साथियों ने इस शुष्क विषय से बचने की सलाह दी थी और स्वयं राजकपूर भी परिणाम के प्रति शंकित थे। परन्तु सिनेमा के इस प्रेमी का दिल उस गम्भीर विषय पर आ गया था। जो लोग राजकपूर को काइयाँ व्यापारी मात्र मानते रहे हैं, उन्हें सोचना चाहिए कि बिना नायिका और रोमांटिक एंगल की फ़िल्म ‘जागते रहो’ राजकपूर ने क्यों बनाई?
राजकपूर और आम आदमी का रिश्ता सभी परिभाषाओं से परे एक प्रेमकथा है, जिसमें आज़ाद भारत की दास्तान है। राजकपूर की साढ़े अठारह फ़िल्में आम आदमी के नाम लिखे प्रेम-पत्र हैं। सारा जीवन राजकपूर ने प्रेम के ‘ढाई आखर’ को समझने और समझाने की कोशिश की। राजकपूर भारतीय सिनेमा के कबीर हैं।
राजकपूर का पहला प्यार औरत से था या सिनेमा से—यह प्रश्न उतना ही उलझा हुआ है, जितना कि पहले मुर्ग़ी हुई या अंडा।
उनके लिए प्रेम करना कविता लिखने की तरह था। प्रेम, औरत और प्रकृति के प्रति राजकपूर का दृष्टिकोण छायावादी कवियों की तरह था। औरत के जिस्म के रहस्य से ज़्यादा रुचि राजकपूर को उसके मन की थी। वह यह भी जानते थे कि कन्दराओं की तरह गहन औरत के मन की थाह पाना मुश्किल है, परन्तु प्रयत्न परिणाम से ज़्यादा आनन्ददायी था।
प्रेम और प्रेम में हँसना-रोना, राजकपूर की प्रथम प्रेरणा थी, तो सृजन-शक्ति का दूसरा स्रोत उनकी अदम्य महत्त्वाकांक्षा थी। ‘आग’ के नायक की तरह राजकपूर जीवन में कुछ असाधारण कर गुज़रना चाहते थे। जलती हुई-सी महत्त्वाकांक्षा उनका ईंधन बनी।
पृथ्वीराज उनकी प्रेरणा के तीसरे स्रोत रहे हैं। उन्हें अपने पिता के प्रति असीम श्रद्धा थी और वे हमेशा ऐसे कार्य करना चाहते थे, जिनसे उनके पिता की गरिमा बढ़े।
ऐसे थे राजकपूर और यह है उनकी प्रामाणिक और सम्पूर्ण जीवनगाथा।
Name Not Known
- Author Name:
Sunilkumar Lawate
- Book Type:

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Description:
आप विश्वास करें या न करें, लेकिन है यह हक़ीक़त। एक बालक अनाथाश्रम में जन्मा, पला और बड़ा हुआ। उसके माँ-बाप, रिश्तेदार कोई नहीं था। उसका जाति-धर्म, वंश, गोत्र कुछ नहीं था। सिर्फ़ था एक नम्बर, जैसे कारावास में क़ैदी का होता है। वह ‘नेम नॉट नोन’ था।
प्रश्नों से घिरी उसकी ज़िन्दगी में प्रश्नों ने ही उसे पाला-पोसा। प्रश्नों ने ही उसे वयस्क बनाया, समझदार बनाया।
आज वह एक ‘वेलनोन’ सामाजिक कार्यकर्ता, साहित्यकार, समीक्षक, वक्ता, अनुवादक, सम्पादक और प्राचार्य के रूप में सुविख्यात है। एक सामाजिक ‘आयडॉल’ बना है।
प्रस्तुत पुस्तक ‘नेम नॉट नोन’ सुनीलकुमार लवटे की आत्मकथा है। सब कुछ होने पर भी कुछ न करने वालों को यह आत्मकथा न सिर्फ़ सक्रिय करती है, अपितु सोचने को भी प्रेरित करती है कि आख़िर मनुष्य में वह कौन-सा रसायन होता है जो उसे सारी प्रतिकूलताओं को परास्त करने की ऊर्जा देता है, जीते-जी मृत्युंजय बनाता है।
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