Auron Ke Bahane
Author:
Rajendra YadavPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Biographies-and-autobiographies0 Reviews
Price: ₹ 556
₹
695
Available
यदि डॉ. रामविलास शर्मा के एक वाक्य का संशोधित इस्तेमाल करें तो कह सकते हैं, ‘राजेन्द्र यादव सीमित अर्थ में साहित्यकार न थे। अपने लम्बे रचनात्मक जीवन में राजेन्द्र यादव ने कहानी व उपन्यास के अतिरिक्त अन्य विधाओं में भी अपनी छाप छोड़ी। विमर्श, आलोचना, संस्मरण आदि के क्ष्रेत्र में उनकी मौलिकता का अनुभव किया जा सकता है।</p>
<p>‘औरों के बहाने’ संस्मरण और संश्लेषण की पुस्तक है। रांगेय राघव, अश्क, कृष्णा सोबती, कमलेश्वर, मन्नू भंडारी, अमरकान्त, पदमसिंह शर्मा कमलेश, ओमप्रकाश जी पर राजेन्द्र यादव के संस्मरण हैं। प्रेमचन्द व काफ़्का की आत्मीय चर्चा हैं। चेख़व का ऐसा काल्पनिक साक्षात्कार है, जिसको पढ़कर चेख़व के व्यक्तित्व-कृतित्व को देखने की दृष्टि बदल जाती है। पुस्तक में एक विशेष आलेख है ‘डार्करूम में बन्द आदमी : राजेन्द्र यादव’। इसे राजेन्द्र यादव की पत्नी और सुप्रतिष्ठित कथाकार मन्नू भंडारी ने ‘आलोचनात्मक आत्मीयता’ के साथ लिखा है।</p>
<p>‘औरों के बहाने’ की पृष्ठभूमि स्पष्ट करते हुए राजेन्द्र यादव ने लिखा है, “मेरी चेतना और मानसिकता के हिस्से बनकर भी कुछ लोग बढ़े और उगे हैं, कुछ समकालीनता की नियति से बँधे हैं और कुछ को देशकाल की सरहदों से खींचकर मैंने अपने बोध का हिस्सा बनाया है। वे भी मेरे अपने ‘होने’ के साथ ही हैं। इन सबको ‘देखना’ मुझे ‘आत्मसाक्षात्कार’ का ही एक आयाम लगता है।”</p>
<p>संस्मरण, विश्लेषण और संश्लेषण की एक अनूठी पुस्तक।
ISBN: 9788183616485
Pages: 204
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: ‘ज्योति कलश’ उपन्यास महात्मा जोतिबा फुले के असाधारण जीवन-संघर्ष और प्रेरणास्पद कार्यों का वृत्तान्त है। जहाँ श्रेष्ठता जाति और कुल से तय करने की परिपाटी हो, जहाँ पाखंड को ही धर्म समझा जाता हो और जड़ता को ही संस्कृति, वैसे देश और समाज में जोतिबा जैसे व्यक्ति का उदित होना आसान नहीं था। लेकिन ऐसा हुआ, और जोतिबा ने सदियों से जमे घटाटोप को भेद कर लोगों को उस उजाले का साक्षात्कार कराया, जो उन्हें वास्तविक प्रगति की राह दिखाने वाला था। निस्सन्देह यह एक नव-प्रवर्तन था, नवजागरण का एक उन्मेष, जिसकी कहानी कथाकार संजीव इस उपन्यास में कहते हैं। इसमें उन्नीसवीं सदी के भारत के इतिहास, खासकर सामाजिक इतिहास की अनेक उथल-पुथल भी दर्ज हैं—एक तरफ जड़ प्रवृतियों, परम्पराओं के पोषकों का समाज को सत्य से दूर रखकर वर्चस्व बनाए रखने की जिद; और दूसरी तरफ, हर तरह के झूठ और पाखंड को नकारकर समाज में बराबरी और मनुष्यता को स्थापित करने का प्रयास। उनसे रूबरू होना वास्तव में उस आधार से वाकिफ होना है जिस पर वर्तमान भारत खड़ा है। एक सच्चे समाज-सुधारक, एक वास्तविक नायक और एक अनन्य स्वप्नद्रष्टा की जीवन-कथा!
Ramkrishna Pramhans
- Author Name:
Romain Rolland
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Description:
“मुझे एक ऐसे महापुरुष के चरणों में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है जिसका जीवन उसकी समस्त शिक्षाओं व उपदेशों की अपेक्षाकृत हज़ारों गुणा अधिक उपनिषदों की वाणी की एक उत्कृष्ट जीवित व्याख्या है, जो वास्तव में मानवरूप में उपनिषदों की एक जीवित आत्मा है...जो भारत के विभिन्न विचारों का समन्वय है...।” यह महापुरुष और कोई नहीं, रामकृष्ण परमहंस थे।
स्वामी विवेकानन्द आगे लिखते हैं : “भारत-भूमि हमेशा विचारकों और ऋषियों से समृद्ध रही है। शंकर के पास एक महान मस्तिष्क था और चैतन्य के पास एक विशाल हृदय था और अब वह समय आ गया था जब मस्तिष्क और हृदय—इन दोनों के एक समन्वित मूर्तरूप की आवश्यकता थी—एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी, जिसके अन्दर एक ही शरीर में शंकर के चमत्कारिक मस्तिष्क और चैतन्य के आश्चर्यजनक रूप से उदार व विशाल हृदय का समावेश हो; जो प्रत्येक सम्प्रदाय में एक ही आत्मा, एक ही परमात्मा को कार्य करते हुए देखता हो; जो प्रत्येक वस्तु के अन्दर भगवान को देखता हो, जिसका हृदय इस संसार में भारतवर्ष व उसके बाहर सब जगह समस्त दीन-दुखियों, दुर्बलों, पददलितों और पीड़ितों के लिए आर्तनाद करता हो और इसके साथ ही जिसकी विशाल तीव्र बुद्धि परस्पर विरोधी विभिन्न सम्प्रदायों के बीच संगति स्थापित करनेवाले उदार विचारों की कल्पना करती हो...और उनमें संगति स्थापित करके मस्तिष्क और हृदय के एक सार्वभौम धर्म को जन्म देनेवाली हो—ऐसे मनुष्य ने जन्म लिया था।...समय उसके अनुकूल था, यह आवश्यक था कि ऐसे मनुष्य का जन्म हो, और वह आया था, और सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि उसका कर्मक्षेत्र एक ऐसी नगरी के निकट था, जो पाश्चात्य विचारों से पूर्ण थी, जो पश्चिमी विचारों के पीछे पागल हो उठी थी और जिस नगरी ने भारत के अन्य सब नगरों की अपेक्षा कहीं अधिक आचार-विचारों को अपनाया था। ऐसे स्थान में, बिना किसी किताबी ज्ञान के वह रहता था। इस महान मनीषी को अपना नाम तक भी लिखना न आता था, परन्तु हमारे विश्वविद्यालयों के बड़े-बड़े प्रतिभाशाली स्नातक उसकी बुद्धि की विराट शक्ति को देखकर दंग रह जाते थे...वह अपने समय का महान ऋषि था, जिसकी शिक्षाएँ वर्तमान समय के लिए सबसे अधिक लाभदायक हैं।”
...यदि मैं आपको एक भी सत्य बात कहता हूँ तो वह उसकी और केवल उसकी है और यदि मैंने आपसे कोई भ्रान्तिपूर्ण या ग़लत बातें कही हैं, तो वे सब मेरी अपनी हैं, उनका उत्तरदायित्व मेरे ऊपर है।’’
“जिस मनुष्य की मूर्ति की मैं यहाँ स्थापना करना चाहता हूँ, वह तीस करोड़ नर-नारियों के दो सहस्र वर्षव्यापी आध्यात्मिक जीवन का परिपूर्ण रूप है। यद्यपि चालीस वर्ष हुए, उसका देहावसान (सन् 1886) हो चुका है, तथापि उसकी आत्मा आधुनिक भारत को प्राणदान कर रही है। वह गांधी के समान कर्मवीर नहीं था, कला या विचार में गेटे व टैगोर के समान प्रतिभाशाली नहीं था। वह बंगाल के एक छोटे से गाँव का रहनेवाला ब्राह्मण था, जिसका बाह्य जीवन संकीर्ण रूढ़ियों की सीमा में आबद्ध था। उसमें उल्लेख योग्य कोई विशेष घटना न थी, और तात्कालिक सामाजिक व राजनीतिक हलचल से वह सर्वथा पृथक् था; परन्तु उसके आन्तरिक जीवन में नाना देवताओं और मानवों का एक विचित्र समावेश था। उसका अभ्यन्तरीय जीवन उस सकल शक्ति की मूलाधार स्वरूपिणी दैवी ‘शक्ति’ का अंशमात्र था, जिस दैवी शक्ति की मिथिला के प्राचीन कवि विद्यापति और बंगाल के कवि रामप्रसाद ने वन्दना की है।
—रोमां रोलां
Rajpath Se Lokpath Par
- Author Name:
Vijayaraje Scindia
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- Description: "मेरे मानस पर अपने जीवनसाथी का ऐसा चित्र उभरता, जो देश की आजादी की लड़ाई लड़ रहे सूरमाओं में सबसे पहली पंक्ति का तेजपुंज हो।...स्वदेशी आग्रह का माहौल कुछ ऐसा बना कि प्रत्येक नागरिक विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार कर देशभक्तों की पंक्ति में आ खड़ा होने लगा। इसी भावना से प्रेरित होकर मैंने प्रतिज्ञा की कि न केवल विदेशी वस्त्र अपितु अन्य कोई विदेशी वस्तु भी प्रयोग में नहीं लाऊँगी। अंग्रेज अधिकारियों के यहाँ जाना-आना रहता था, मैंने निर्णय लिया कि अब उनसे कोई संबंध नहीं रखूँगी। अतः उनके क्लबों, चाय-पार्टियों या भोज-समारोहों में जाना मैं टालने लगी। सफेद घोड़े पर एक लड़का सवार था और काले घोड़े पर एक लड़की। प्राणिउद्यान के एक नौकर ने पूछने पर बताया कि वे जिवाजीराव महाराज और उनकी बहन कमलाराजे थे। अर्थात् स्वयं महाराज सिंधिया अपनी बहन के साथ थे। हम लोगों द्वारा देखे गए उस प्रासाद, किले, उद्यान और उस शेर के भी स्वामी। नानीजी के मानस पर वह दृश्य बिजली की तरह कौंध गया। सहसा उनके मुँह से निकला, ‘‘हमारी नानी (मैं) की उनके साथ कितनी सुंदर जोड़ी लगेगी!’’ इतना सुनते ही मामा और सभी हँस पड़े। किसी के मुँह से निकला, ‘‘कल्पना की उड़ान ऊँची है।’’ मुझे लगा, राजनीतिक जीवन में रहकर सिद्धांतों एवं मूल्यों के संवर्धन के लिए जूझते रहना ही अपना कर्तव्य है। अतः मेरे मन में यह बोध जागा कि सम विचारवाले लोगों के साथ कार्य करना अधिक परिणामकारी होगा। ऐसे लोगों का दल, जिन्हें भ्रष्टाचार की लत नहीं लगी थी, मुझे अपना प्रतीत होने लगा।...वैचारिक दृष्टि से मुझे जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी की रीति-नीति अच्छी लगती थी, अतः दोनों ही दल मुझे करीबी लगते थे। किंतु मैं यह निर्णय नहीं कर पा रही थी कि दल की सदस्य बनूँ। अंततः मैंने दोनों ही दलों के टिकट पर चुनाव लड़ने का निश्चय कर लिया। मध्य प्रदेश विधानसभा के करेरा निर्वाचन क्षेत्र से मैं जनसंघ की प्रत्याशी बन गई। —इसी पुस्तक से तिहाड़ कारागृह नहीं है, यह धरती का नरक-कुंड है। और इस नरक-कुंड में वे लोग धकेल दिए गए थे, जिनके तपोबल से इंदिराजी का सिंहासन डिग रहा था।...तिहाड़ जेल में स्थान-स्थान पर गंदगी का ढेर जमा रहता। दुर्गंधयुक्त वायु में घुटन महसूस होती। भोजन के समय थाली पर से भिनभिनाती मक्खियों को लगातार दूसरे हाथ से उड़ाना पड़ता। कानों में कीट-पतंगों की आवाजें गूँजती रहतीं। अँधेरे में जुगनू का प्रकाश और कानों में झींगुर की झनकार। जीना दूभर था। इन सबके बावजूद हम चैन से थे। किंतु खुली हवा में साँस लेनेवाली इंदिराजी क्या चैन से थीं! उन्हें तो दिन में भी तारे नजर आ रहे थे। अयोध्या ईंट और पत्थर की बनी नगरी नहीं है। यह भारत की आत्मा और राष्ट्र की अस्मिता का प्रतीक है। इसीलिए जब रथयात्रा निकली तो हिंदू और मुसलमान दोनों इसमें समान रूप से शरीक हुए। राम और रहीम संग-संग चलते रहे। जनसभाओं में भी मुसलमान शिरकत करते रहे। न राग, न द्वेष; एक प्राण दो देह जैसी स्थिति थी। इस राष्ट्र-मिलन से उन मुट्ठी भर लोगों में खलबली मच गई, जो राजनीति की अँगीठी पर स्वार्थ की रोटियाँ सेंका करते थे। बाबरी ढाँचा टूटने का उनका भय और विरोध केवल इसी मात्र के लिए था। एक छोटे परिवार के दायरे से निकलकर विराट् में समाहित होने का सुख, वसुधैव कुटुंबकम् के आदर्श को जीने का प्रतीक था वह आयोजन। मुझसे छोटे से बने सुंदर, किंतु अति विशिष्ट मंदिर की सीढि़यों पर पैर का अँगूठा लगाने के लिए कहा गया। पर करती भी क्या! मजबूरी थी। उस मंदिर में एक ओर मेरे पति स्वर्गीय महाराज की मूर्ति रखी थी तो दूसरी ओर गुरुजी की। बीच में थे मेरे इष्टदेव श्रीकृष्ण। मैंने पाँव का अँगूठा नहीं, अपना माथा उस मंदिर से लगा दिया। इस प्रकार परदादी बनने का सुख मैंने संपूर्ण संघ परिवार के साथ जीया। ईश्वर से संपूर्ण भारतीय समाज के शुभ की कामना करती हूँ। —इसी पुस्तक से "
Manavputra Isa : Jeewan Aur Darshan
- Author Name:
Raghuvansh
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Description:
विश्वविख्यात चरितावली में मानवपुत्र ईसा का नाम प्रथम पंक्ति में है। उनका जीवन एक स्तर पर जितना सुस्पष्ट और सुलिखित है, उतना ही उसके विविध पक्षों की व्याख्या को लेकर विद्वानों और विचारकों में मतभेद रहा है। वे ईश्वर के बेटे हैं पर मानवपुत्र कहे जाते हैं। इस रूप में लौकिक और अलौकिक संसार को वे बड़ी ख़ूबी से जोड़ते हैं। उनके सीधे-सादे जीवनवृत्त में सृष्टि के अनेक रहस्य अन्तर्निहित हैं। इस स्थिति में ईसा का जीवन आरम्भ से ही बड़े-बड़े जीवनीकारों, दार्शनिकों और कलाकारों के लिए सूक्ष्म जिज्ञासा का विषय रहा है। पश्चिमी संसार की कलाओं का एक बहुत बड़ा भाग ईसा के जीवन-चरित से प्रेरित और प्रभावित है। भारत के बड़े-बड़े मनीषी भी उनके व्यक्तित्व से सीखते हैं। महात्मा गांधी के लिए अत्यन्त प्रेरक प्रसंगों में से एक पर्वत-प्रवचन का रहा है।
ऐसे सरल पर उलझे हुए चरित को लिखना किसी भी लेखक के लिए योग्य चुनौती है। डॉ. रघुवंश ने केवल ईसा की कहानी नहीं कह दी है, वरन् अपनी भाषा में उसका पुनःसृजन किया है। वृत्त, चरित और जीवनी से आगे वह रचनात्मक साहित्य बनने के लिए प्रस्तुत है। इलाहाबाद कैथलिक सैमिनरी के कई विद्वानों ने उसे पढ़ा और देखा है। इस रूप में जहाँ एक ओर उसका साहित्यिक पक्ष विकसित है, वहीं उसका वृत्ताधार प्रामाणिक और परीक्षित, और इन दोनों स्तरों पर वह आकर्षक पाठ्य-सामग्री सिद्ध होगी।
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