Krantikari Shaheed Chandrashekhar Azad Ki Jeevan-Katha
Author:
Sudhir VidyarthiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Biographies-and-autobiographies0 Reviews
Price: ₹ 319.2
₹
399
Available
असहयोग आन्दोलन’ गांधीजी का बिल्कुल अनूठा और नया प्रयोग था। असहयोग की लहर में पूरा देश बह गया था। एक 14 वर्षीय छात्र ने भी इसमें अपनी आहुति दी। चन्द्रशेखर नाम के इस किशोर ने अदालत में अपना नाम ‘आज़ाद’ बताया। तब से वह आज़ाद ही रहा। एक किशोर असहयोगी से भारतीय क्रान्तिकारी दल के अजेय सेनापति बनने तक की आज़ाद की महागाथा अत्यन्त रोमांचकारी है। वे बहुत ग़रीब और रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में जन्मे मगर विद्रोही व्यक्तित्व के कारण उससे जल्दी ही मुक्ति पा ली। शुरुआती दौर में वे असहयोगी बने, लेकिन तेज़ी से छलाँग लगाकर क्रान्तिकारी पार्टी की सदस्यता ले ली और थोड़े ही समय बाद उसके ‘कमांडर-इन-चीफ’ नियुक्त हो गए। वे पुलिस की आँखों में लगातार धूल झोंककर बड़े करतब करते रहे। आज़ाद जीते-जी किंवदन्ती बन गए थे। जनता में वे बेहद लोकप्रिय थे। उन पर अनेक लोकगीत रचे और गाए गए। मगर आज़ाद की स्मृति-रक्षा के लिए सरकार की ओर से कोई प्रयास नहीं किया गया। उनका जन्मस्थान भावरा (मध्य प्रदेश) तथा पैतृक घर बदरका (उन्नाव) आज भी उनकी यादों को सँजोए ख़ामोश हैं। उनकी माताजी श्रीमती जगरानी देवी ने स्वतंत्र भारत में अपने अन्तिम दिन अत्यन्त दयनीय स्थितियों में गुज़ारे। हम उन्हें एक राष्ट्रीय शहीद की माँ का दर्जा और सम्मान नहीं दे पाए। आज आज़ाद का कोई क्रान्तिकारी साथी जीवित नहीं है। स्वतंत्र भारत में उनके सारे साथियों की एक-एक कर मौत होती रही और किसी ने नहीं जाना। वे सब गुमनाम चले गए जिनके न रहने पर किसी ने आँसू नहीं बहाए, न कोई मातमी धुन बजी। किसी को पता ही न लगा कि ज़मीं उन आस्माओं को कब कहाँ निगल गई...। यह पुस्तक आज़ाद की संस्मृतियों से रची गई है जो न केवल उनकी कहानी से हमें रू-ब-रू कराती है, बल्कि उनके दौर की राजनीतिक हलचलों और अनेक गुमनाम क्रान्तिकारियों की याद दिलाती है, जिन्होंने आज़ादी के संग्राम में अपनी आहुति दी।
ISBN: 9788126725113
Pages: 331
Avg Reading Time: 11 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Jairam Mishra
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- Description: v data-content-type="html" data-appearance="default" data-element="main"><p>आठवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में जैन धर्म, बौद्ध धर्म तथा अन्य अनेक सम्प्रदायों और मत-मतान्तरों का बोलबाला था। जैन धर्म की अपेक्षा बौद्ध धर्म अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुआ। जैन धर्म को खुलकर चुनौती दी। जैन धर्म भी वैदिक धर्म का कम विरोधी नहीं था। बौद्ध और जैन धर्मों के अतिरिक्त सातवीं-आठवीं शताब्दी में अन्य धार्मिक सम्प्रदाय भी प्रचलित हो गए थे। उनमें भागवत, कपिल, लोकायतिक (चार्वाक), काणाडी, पौराणिक, ऐश्वर, कारणिक, कारंधमिन (धातुवादी), सप्ततान्त्व (मीमांसक), शाब्दिक (वैयाकरण), पांचेरात्रिक प्रमुख थे। ये सभी सम्प्रदाय वेद-विरोधक और श्रुति-निन्दक थे। ऐसी विषम और भयावह स्थिति में धार्मिक जगत में किसी ऐसे उत्कट त्यागी, निस्पृह, वीतराग, धुरंधर विद्वान, तपोनिष्ठ, उदार, सर्वगुण-संपन्न अवतारी पुरुष की महान आवश्यकता थी जो धर्म की विशृंखलित कड़ियों को एकाकार करके उसे सुदृढ़ बनाता और धर्म का वास्तविक स्वरूप सबके सम्मुख प्रस्तुत करता। मध्वाचार्य ने शंकराचार्य के अवतार का वर्णन विस्तार के साथ किया है। उसका सारांश इस प्रकार है—"भगवती भूदेवी और समस्त देवताओं ने जगत-सृष्टा ब्रह्मा के साथ कैलाश पर्वत पर जाकर पिनाकपाणी आशुतोष भगवान शंकर की आर्त्त वाणी में करबद्ध स्तुति की। तब भगवान शंकर उन लोगों के सम्मुख अत्यन्त तेजस्वी रूप में प्रकट हुए और उन्हें इस प्रकार आश्वासन दिया—‘हे देवगण, मैं समस्त घटनाओं से भली-भाँति विज्ञ हूँ। अतः मैं मनुष्य का रूप धारण कर आप लोगों की मनोकामना पूर्ण करूँगा। दुष्टाचार विनाश के लिए तथा धर्म के स्थापन के लिए, ब्रह्मसूत्र के तात्पर्य निर्णायक भाष्य की रचना कर, अज्ञानमूलक द्वैतरूपी अन्धकार को दूर करने के लिए मध्यकालीन सूर्य की भाँति चार शिष्यों के साथ चार भुजाओं से युक्त विष्णु के समान इस भूतल पर यतियों में श्रेष्ठ शंकर नाम से अवतरित होऊँगा। मेरे समान ही आप लोग भी मनुष्य-शरीर धारण कर मेरे कार्य में हाथ बँटाइए।’ इतना कहकर और देवताओं को अन्य आवश्यक निर्देश देकर भगवान शंकर अन्तर्धान हो गए!" आचार्य शंकर का भारतीय दार्शनिकों में अप्रतिम स्थान है। पाश्चात्य दार्शनिक भी उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं और उनकी प्रतिभा के सम्मुख नतमस्तक हैं। उनके बाल्यकाल से देहलीला सँवरण तक की घटनाएँ चमत्कारिक एवं दैवी शक्ति से परिपूर्ण हैं। इसलिए उन्हें भगवान आशुतोष शंकर का अवतार माना जाता है। उन्होंने वैदिक धर्म का पुनरुद्धार किया और उसके वास्तविक स्वरूप को सही अर्थ में समझाने की चेष्टा की। इस महान प्रयास में उन्हें तत्कालीन धर्मों और सम्प्रदायों से लोहा लेना पड़ा। शैवों, शाक्तों, वैष्णवों, बौद्धों, जैनों एवं कापालिकों आदि से शास्त्रार्थ करना पड़ा। अपनी असाधारण प्रतिभा और अकाट्य तर्कों द्वारा उन्हें पराजित किया। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण में चार शंकराचार्य को अभिषिक्त कर भारतीय वैदिक संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन का उत्तरदायित्व उन्हें सौंपा। उन्होंने शैवों, शाक्तों एवं वैष्णवों को एक सूत्र में बाँधा। इससे वैदिक धर्म अत्यन्त शक्तिशाली हो गया। मात्र बत्तीस वर्ष की अल्पायु में उन्होंने अद्वितीय आश्चर्यजनक कार्य किए।</p>
Alap aur Antrang
- Author Name:
Govind Prasad
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Description:
संवाद-संलाप—समाज से, अपने बीते हुए से, अपने आज से और अन्ततः अपने आप से—अपने के भी अपने से। उस अपने से जो दिन-रात समय की गर्दिश में तिल-तिल मिटता है, बनता है और इसी मिटने-बनने की प्रक्रिया में कहीं अपने समय और अपने समाज की धड़कनों को कुछ और क़रीब से सुन पाता है—यही गोचर-अगोचर सृष्टि का भीतर से सुनना—आलाप और अन्तरंग है। संवाद-संलाप में गुँथे होने के बावजूद विच्छिन्न चिन्तन से भरा यह स्वर-आलाप। स्वगत संवाद और एकालाप से लेकर संवाद-संलाप की व्याकुलता-भरी बहुवर्णी छवियाँ और भंगिमाएँ इसी आलाप की संस्कृति का आईना हैं। एक प्रकार से आलाप में आकार लेता राग का अन्तरंग...। इसी दुनिया में रहते हुए कब किसी और दुनिया(यह ‘और’ दुनिया दूसरी अथवा पराई नहीं बल्कि यह ‘और’ तो कहीं ज़्यादा अपनी है...अपने से भी ज़्यादा अपनी) में चला जाता हूँ; कोई है मुझ में जो मुझसे सवाल-दर-सवाल करता चला जाता है, कोई है मुझमें जो टूट-टूट कर अपने को फिर-फिर गढ़ता जाता है..., कोई है मुझमें जो रक्तस्नात-सा मेरी आँखों के सामने हर घड़ी मूर्तिवत् छाया रहता है...उसकी और उसमें समाई न जाने किस-किस की आर्त पुकार लगातार मेरा पीछा करती है—इसी आर्त पुकार से उपजे कुछ भाव-विचारों के अग्नि-स्फुलिंग चटक कर बिखर गए हैं—किसी टूटे हुए तारे की तरह। गोया टूटे हुए तारों का आलाप...टूटे हुए तारों की क्षणिक कौंध का यह बिखरा-बिखरा सिमटा हुआ-सा हुजूम...इस कौंध में जो जितना रोशन हो गया मेरे अघाए मन ने अधीत भाव से उसे प्रसादवत् ग्रहण कर लिया।
—इसी पुस्तक से
Rajendra Yadav
- Author Name:
Manmohan Thakore
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Description:
मेरे अनन्य आत्मीय और बड़े भाई मनमोहन ठाकौर आज पंद्रह अगस्त को जीवन-मुक्त हो गए। उनके बिना अपने पिछले पैंतालीस वर्षों को सोच पाना असंभव है। मैं जो कुछ हूँ उसका बहुत महत्त्वपूर्ण हिस्सा उन्हीं का बनाया हुआ है। परिवार क्या होता है, यह मैंने मनमोहन ठाकौर और कमला भाभी के माध्यम से ही जाना है। हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती, उर्दू, बंगाली, ब्रज, राजस्थानी में समान अधिकार से लिखने-बोलने वाले ‘ठाकुर साहब’ इतिहास, साहित्य, मार्क्सवाद, ट्रेड यूनियन, विद्यार्थी आंदोलन-सभी से गहराई के साथ जुड़े रहे—भारत का तो शायद ही कोई कोना हो जहाँ वे अनेक बार नहीं गए, महफिलबाज़ और जीवंत साथ घनघोर पढ़ाकू और बुद्धिजीवी एक ऐसा यात्री जो दुनिया भर की भौगोलिक और बौद्धिक यात्राएँ करने के बाद वापस अपने अड्डे पर लौट आता है। कल्पना कर सकना मुश्किल है कि कलकत्ता में उनसे परिचय न हुआ होता तो मेरी जिंदगी क्या होती। मेरा भौतिक और भावनात्मक पता उन्हीं की मार्फ़त था। काश, वे दस-बारह दिन रुक जाते तो अपनी नवीनतम पुस्तक 'राजेन्द्र यादव मार्फत मनमोहन ठाकौर' को भी देख लेते। अब तो इस पुस्तक के अलावा ‘पप्पू’, ‘आवाजें बल्का बस्ती की’, ‘अंतरंग’, ‘एक नास्तिक की तीर्थ यात्रा’, ‘काले पानी का गहराव’ जैसी गद्य-रचनाएँ, ‘सौमित्र संकल्प’ और ‘सेलैक्टेड सौलिलॉकीज़’ जैसी काव्य पुस्तकें ही उनके नाम से जानी जाएँगी।
अजस्र ऊर्जा और उत्साह से भरे रहने वाले ठाकुर साहब अंतिम दो महीनों में बार-बार मृत्यु के हाथों से छूटकर वापस लौट आते थे—मगर अंततः कौन छूटा है उस पकड़ से।
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