Aise Kaise Panpe Pakhandi
Author:
Narendra DabholkarPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Society-social-sciences0 Reviews
Price: ₹ 239.2
₹
299
Available
अन्धविश्वासों की मानव-समाजों में एक समानान्तर सत्ता चली आई है। शिक्षा, विज्ञान और सामाजिक चेतना के विस्तार के साथ इसके औचित्य पर लगातार प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं और लम्बे समय तक इसका शिकार बनते रहे लोगों ने एक समय पर आकर अन्धविश्वासों की जड़ों को मज़बूत करके अपना कारोबार चलानेवाले पाखंडी बाबाओं से मुक्ति भी पाई है, लेकिन वे नए-नए रूपों में आकर वापस लोगों के मानस पर अपना अधिकार जमा लेते हैं।</p>
<p>आज इक्कीसवीं सदी के इस दौर में भी जब तकनीक और संचार के साधनों ने बहुत सारी चीज़ों को समझना आसान कर दिया है, ऐसे बाबाओं की कमी नहीं है जो किसी मनोशारीरिक कमज़ोरी के किसी क्षण में अच्छे-खासे शिक्षित लोगों को भी अपनी तरफ़ खींचने में कामयाब हो जाते हैं। डॉ. नरेंद्र दाभोलकर और उनकी 'अन्धश्रद्धा निर्मूलन समिति' ने महाराष्ट्र में इन बाबाओं और जनसाधारण की सहज अन्धानुकरण वृत्ति को लेकर लगातार संघर्ष किया। लोगों से सीधे सम्पर्क करके, आन्दोलन करके और लगातार लेखन के द्वारा उन्होंने कोशिश की कि तर्क और ज्ञान से अन्धविश्वास की जड़ें काटी जाएँ ताकि भोले-भाले लोग चालाक और चरित्रहीन बाबाओं के चंगुल में फँसकर अपनी ख़ून-पसीने की कमाई और जीवन तथा स्वास्थ्य को ख़तरे में न डालें।</p>
<p>इस पुस्तक में उन्होंने क़िस्म-क़िस्म के बाबाओं, गुरुओं, अपने आप को भगवान या भगवान का अवतार कहकर भ्रम फैलानेवालों का नाम ले-लेकर उनकी चालाकियों का पर्दाफाश किया है। इनमें भगवान रजनीश और साईं बाबा जैसे नाम भी शामिल हैं जो इधर शिक्षित लोगों में भी ख़ासे लोकप्रिय हैं। बाबाओं की ठगी का शिकार होनेवाले अनेक लोगों की कहानियाँ भी उन्होंने यहाँ दी हैं।
ISBN: 9789389598490
Pages: 296
Avg Reading Time: 10 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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‘भूले-बिसरे दिन’ अरुण खोरे की आत्मकथात्मक पुस्तक है जिसमें रिमांड होम की सख़्त दीवारों के पीछे लाखों बच्चों की वेदना को मार्मिक स्पर्श दिया गया है। उन वेदनाओं का स्वयं लेखक भी साक्षी रहा है, जहाँ उसके बचपन के नौ वर्ष उन्हीं यातनाओं में गुज़रे।
बकौल लेखक : “रिमांड होम में आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति और इस संस्था के बारे में कई ग़लतफ़हमियाँ हैं—चोरी, ख़ून-ख़राबा कर आए हुए, ग़लत राहों पर भटके हुए बच्चे रिमांड होम में आते हैं, यह पहली बड़ी ग़लतफ़हमी है। पिछले कुछ वर्षों में भारत में इस सन्दर्भ में जो अध्ययन किया गया और जो निष्कर्ष सामने आए, उससे स्पष्ट होता है कि भारत में रिमांड होम और अनाथाश्रम में आनेवाले अस्सी प्रतिशत बच्चे पालकों की पारिवारिक समस्याओं के कारण आते हैं। सौतेली माँ का छल, माँ या पिता में से किसी एक का ही पालक के रूप में रहना, बहुत ग़रीबी, रोटी का यक्षप्रश्न जैसे अनेक कारणों से बच्चे ऐसी संस्थाओं में आते हैं।
पुलिस केस से आनेवाले सभी बच्चे ‘बाल अपराधी’ नहीं होते। कई बार ग़रीबी से तंग आकर माँ-बाप डाँट-डपटकर छह-सात वर्ष के अपने बच्चों को जबरन भीख माँगने भेजते हैं, पैसों के लिए घर से निकालते हैं; तब, ऐसे में इन बच्चों को रिमांड होम में लाने का काम पुलिस को करना होता है।
अपने जीवन की समस्याओं का जब उत्तर खोज नहीं पाते, तब अपने सवालों के जवाब के लिए पालक अपने अबोध बच्चों को झोंक देते हैं। यह हमारे समाज की एक दर्दनाक सच्चाई है। ये बच्चे अपने व्यक्तित्व के विकास से पहले ही संसार की व्यावहारिकता पर बलि चढ़ाए जाते हैं और यहीं से उनके दुर्दिन की शुरुआत होती है।
पारिवारिक समस्याओं का तनाव तो इससे भी भयानक और क्लेशदायक होता है। माँ है तो असमय पिता गुज़र गए; पिता हैं तो माँ की असमय मृत्यु और कुछ लोगों के भाग्य में तो जन्म से ही अनाथ होना लिखा होता है। हमारे देश के अविभक्त और संयुक्त परिवार का हम कितना ही गौरवगान करें, लेकिन रिमांड होम में अथवा अनाथाश्रम में आनेवाले बच्चे इन्हीं संस्थाओं के दुत्कारे हुए होते हैं तथा अपरिहार्यता से ही आते हैं। कुटुम्ब नामक संस्था के सुरक्षित कवच से छिटककर जब बच्चे रिमांड होम की सख़्त दीवारों के पीछे धकेल दिए जाते हैं, तब उनके बचपन, किशोरावस्था के मुरझाने की शुरुआत होती है।”
‘भूले-बिसरे दिन’ अरुण खोरे की ऐसी आत्मकथात्मक पुस्तक है, जो रिमांड होम और अनाथाश्रमों में व्याप्त भ्रष्टाचारों का पर्दाफ़ाश ही नहीं करती; उन माँ-बाप को भी कठघरे में खड़ा करती है, जिनके कारण ये भोले-भाले, मासूम बच्चे नारकीय जीवन जीने के लिए अभिशप्त होते हैं।
Andhvishwas : Prshnchihn Aur Purnviram
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