Sagar Yaraa

Sagar Yaraa

Authors(s):

Sagar Sarhadi

Language:

Hindi

Pages:

200

Country of Origin:

India

Age Range:

18-100

Average Reading Time

400 mins

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Book Description

सागर यारा की कहानियाँ हमें बीसवीं सदी के उस दौर में ले जाती हैं जब रूमान की हैसियत एक समाजी ताक़त की होती थी। ज़िन्दगी की हक़ीक़तों से वह बराबर की टक्कर लेता था। किताबें पढ़ना, सपने देखना, ख़ुद के दायरे से निकलकर पूरी दुनिया के भविष्य के बारे में सोचना, पैसे की क़ुदरत को चुनौती देना और ज़िन्दगी के इस तरीक़े पर सवाल उठानेवाली रुकावटों से जान पर खेलकर लड़ना उस दौर के रौशन दिमाग़ों की अपनी जीवन-शैली थी, जो आज के संचार-सम्पन्न इकहरे माहौल में दूर की चीज़ लगती है।</p> <p>लेकिन ऐसा नहीं कि ये आज की कहानियाँ नहीं हैं। वे सवाल, जो इन कहानियों के लिखे जाने की वजह बने, आज भी हमारे सामने हैं। आज भी आख़िरी कहानी के सफ़दर की तरह हर देशी भाषा के लेखक पूछ सकते हैं कि ‘इस मुल्क में हर आदमी, हर पेशेवाला अपना काम कर सकता है, सिर्फ़ लेखक, लेखक नहीं रह सकता। उसे या तो टीचर बनना पड़ता है या क्लर्क या मैकेनिक।’ या फिर मेरे भाईजान&nbsp; की शबनम जो परम्परागत मुस्लिम घर की दीवारों से निकलकर जब दुनिया देखती है तो ज़िन्दगी से वापस प्यार करने लगती है।</p> <p>सागर सरहदी मूलत: नाटककार थे, उन्होंने अनेक सफल फ़िल्मों के संवाद भी लिखे, इसलिए इन कहानियों की दृश्य और संवाद योजना हमें कहानीपन के एक अलग ही आस्वाद तक ले जाती है। ऊपर से उर्दू अफ़सानानिगारी की रवानी और अपने किरदारों से लेखक की मुहब्बत इन कहानियों को एक खास पाठ बना देता है। इस लिहाज से देखें तो डायलॉग लिखवा लो, बाबूजी की बस निकल गई, रामलीला का राम, हर्षद मेहता का सूटकेस आदि कहानियाँ गहरा और देर तक रहनेवाला असर छोड़ती हैं। सरहदी साहब को सन् ’47 के विभाजन और शरणार्थी जीवन का भी निजी तजुर्बा रहा, इस किताब में उसकी भी कुछ झलकें दिखाई देती हैं, और हिन्दी फ़िल्म-संसार की भी जहाँ उनकी रचनात्मकता के कई पहलू उजागर हुए और जिसके विरोधाभासों को भी उन्होंने जिया-झेला।

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