Lateefe
Author:
Anuradha SharmaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Satire0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Unavailable
शाइरों और अदीबों की हाज़िरजवाबी, तंज और मजाहिया गुफ़्तगू में भी शाइरी और इल्म की गहरी बातें छिपी होती हैं| ये चीज़ें किसी भाषा के अदब का अनौपचारिक विस्तार ही नहीं होतीं, उस साहित्य और समाज की आत्मा में झाँकने का एक खूबसूरत झरोखा हैं| इस किताब में शामिल लतीफ़ों से लगभग दो सौ सालों के महान शाइरों, संपादको, सियासी शख्शियतों और पत्रकारों का किरदार उभरता है| साथ ही भारतीय उपमहाद्वीप का बौद्धिक परिदृश्य बनता दिखाई पड़ता है|
ISBN: 9789392088117
Pages: 104
Avg Reading Time: 3 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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आलोक पुराणिक हमारे रोज़मर्रा जीवन की विसंगतियों की शल्य-क्रिया करनेवाले व्यंग्यकार हैं।
‘बालम, तू काहे न हुआ एन.आर.आई.’ उनका महत्त्वपूर्ण व्यंग्य-संग्रह है। इसमें उन्होंने देश-विदेश एवं मिथकीय सन्दर्भों से जहाँ आज के सामाजिक जीवन की विद्रूपताओं को रेखांकित किया है, वहीं राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार पर प्रकाश डालने के साथ अपने स्वार्थों में लिप्त धार्मिक पाखंडियों का भी पर्दाफ़ाश किया है।
व्यंग्य के बहाने लेखक हमारे जीवन से जुड़े उन विरोधाभासों को परत-दर-परत खोलता चलता है जिनका सामना हमें जीवन में क़दम-क़दम पर करना पड़ता है और जहाँ हम नाटकीय जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं। स्वार्थों और चालाकियों की भेंट चढ़े रिश्ते हों या बहुराष्ट्रीयता के प्रहसन के सामने अपनी साख बचाती स्थानीयता या फिर स्वतंत्रता बाद के भारत की राजनीति हो, यह सब उनकी लेखनी के दायरे में आते हैं, और इतने स्वाभाविक चुटीलेपन के साथ कि पाठक भावोद्वेलित हुए बिना नहीं रह सकता।
Awara Bheed Ke Khatare
- Author Name:
Harishankar Parsai
- Book Type:

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Description:
‘आवार भीड़ के खतरे’ पुस्तक हिन्दी के अन्यतम व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के निधन के बाद उनके असंकलित और कुछेक अप्रकाशित व्यंग्य-निबन्धों का एकमात्र संकलन है। अपनी कलम से जीवन ही जीवन छलकानेवाले इस लेखक की मृत्यु खुद में एक महत्त्वहीन-सी घटना बन गई लगती है। शायद ही हिन्दी साहित्य की किसी अन्य हस्ती ने साहित्य और समाज में जड़ जमाने की कोशिश करती मरणोन्मुखता पर इतनी सतत, इतनी करारी चोट की हो !
इस संग्रह के व्यंग्य-निबन्धों के रचनाकाल का और उनकी विषय-वस्तु का भी दायरा काफी लम्बा-चौड़ा है। राजनीतिक विषयों पर केन्द्रित निबन्ध कभी-कभी तत्कालीन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए अपने पाठ की माँग करते हैं लेकिन यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो भी परसाई की मर्मभेदी दृष्टि, उनका वॉल्तेयरीय चुटीलापन इन्हें पढ़ा ले जाने का खुद में ही पर्याप्त कारण है। वैसे राजनीतिक व्यंग्य इस संकलन में अपेक्षाकृत कम हैं–सामाजिक और साहित्यिक प्रश्नों पर केन्द्रीकरण ज्यादा है।
हँसने और संजीदा होने की परसाई की यह आखिरी महफिल उनकी बाकी सारी महफिलों की तरह ही आपके लिए यादगार रहेगी।
Sanpon Ki Sabha
- Author Name:
Anoop Mani Tripathi
- Book Type:

- Description: अनूप मणि त्रिपाठी की व्यंग्य रचनाओं को पढ़ने के पहले मुझे लगता था कि हर व्यंग्य का स्वाद एक जैसा होता है। उनके इस संग्रह को आद्योपांत पढ़ने के बाद समझ में आया कि खुद उनकी हर रचना का स्वाद अलग है। राजनीति के विद्रूप, निष्ठुरता और नंगई को जिस तरह गले से पकड़कर वे अनावृत करते और उस पर चोट करते हैं वह अद्वितीय है। उनका व्यंग्य औरों से इस मामले में अलग और मूल्यवान है कि वह पाठक की समझ पर लानत ही नहीं भेजता, उसे समझदार भी बनाता है। जनता का ध्यान कैसे असली और ज्वलन्त मुद्दों से भटकाकर नकली और काल्पनिक मुद्दों में उलझाया जाता है इसके एक से एक नमूने आपको कदम कदम पर मिलते हैं। 'बहती लाशों की कहानियाँ' पढ़कर लगता है व्यंग्य नहीं पढ़ रहे, कोई हॉरर फिल्म देख रहे हैं। भाषा की विदग्धता का उदाहरण देने से इसलिए बच रहा हूँ कि आख़िर कितने उदाहरण देंगे। फिर भी बानगी के लिए एक उदाहरण दे रहा हूँ। शीर्षक है—‘साँपों की सभा’। ‘वह धारा प्रवाह बोलता रहा, ‘बस हमें सपने और भय दोनों साथ-साथ दिखाने होंगे! अच्छे-अच्छे शब्दों के चयन पर ध्यान केन्द्रित करना होगा!’ उसने चूहे की डेड बॉडी पर एक नजर मारी। फिर बोला, ‘देखिए! कैसे हमारे रंग में यह रँगने के लिए तैयार हो गया!’ वह आगे बोला, ‘जहर भरिए, खूब भरिए, मगर उपदेश की शक्ल में...आप देखेंगे कि उपदेश स्वतः उन्माद में बदलता जाएगा...बस फैलकर हर जगह हमें अपना काम लगातार करते रहना है। क्या समझे!’ एक बूढ़ा साँप जोश में बोला, ‘समझ गए! हमें लोकतंत्र को लोकतांत्रिक ढंग से खत्म करना है...’ दरअसल इन रचनाओं की शैलीगत व्याप्ति इतनी अधिक है कि इन्हें केवल व्यंग्य के खाँचे में रखना इनकी मारक क्षमता को कम करके आँकना होगा। यह कोई और विधा है जिसकी तिलमिलाहट अन्दर तक कँपकँपी पैदा कर देती है और जिसे उपयुक्त नाम दिया जाना अभी बाकी है। हाँ, जब तक इसका उपयुक्त नामकरण न हो जाए तब तक व्यंग्य से काम चलाना पड़ेगा। इन रचनाओं से गुजरने के बाद मेरा मानना है कि अनूप मणि त्रिपाठी आज की मारक व्यंग्य विधा के सर्वाधिक सशक्त हस्ताक्षर हैं। —शिवमूर्ति
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