Ghav Karen Gambhir
Author:
Sharad JoshiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Satire0 Reviews
Price: ₹ 120
₹
150
Available
‘घाव करें गम्भीर’ शरद जोशी की व्यंग्यधर्मिता का एक अद्भुत आयाम है। एक उक्ति है ‘जहाँ काम आवै सुई, काह करै तरवारि।’ शरद जोशी लम्बे व्यंग्यालेख लिखने में जितने सिद्धहस्त हैं, उतनी ही निपुणता उन्हें ‘संक्षिप्त व्यंग्य’ लिखने में प्राप्त है। प्रस्तुत संग्रह में आकार की दृष्टि से ‘लघु व्यंग्य’ और ‘लघु कहानियाँ’ संगृहीत हैं। यह लेखक का शब्द संयम ही है कि उसने ‘गागर में सागर’ भरने का चमत्कार कर दिखाया है।</p>
<p>शरद जोशी के सरोकार प्रशस्त हैं। इन व्यंग्यों और लघु कहानियों में शिल्प की तीक्ष्णता सरोकारों को और पैना कर देती है। ‘जिसके हम मामा हैं’ में वे लिखते हैं, ‘आप प्रजातंत्र की गंगा में डुबकी लगाते हैं। बाहर निकलने पर देखते हैं कि वह शख़्स जो कल आपके चरण छूता था, आपका वोट लेकर ग़ायब हो गया। वोटों की पूरी पेटी लेकर भाग गया।’</p>
<p>‘घाव करें गम्भीर’ के व्यंग्य की धार दुहरी है। पाठक जहाँ परिवेश की विसंगतियों के प्रति सचेत होता है, वहीं अपने अन्तर्विरोधों के प्रति उसमें सजगता जाग्रत होती है। छोटे-छोटे अनुभव, लोककथाओं सरीखा स्वाद, व्यंजनाओं का समारोह और शिल्प की नवीनता प्रस्तुत पुस्तक की रेखांकित करने योग्य विशेषताएँ हैं।</p>
<p>शरद जोशी के असंख्य पाठकों के लिए एक उपहार है यह।
ISBN: 9788126729340
Pages: 107
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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बैंकों के इसी ‘भरपाई-कर्म’ के तहत इन दिनों हमारा बैंक खाता भी क्या खूब खाता है। यदि कोई राहगीर किसी व्यक्ति से गन्तव्य का रास्ता पूछते वक्त यह भर और जानना चाहे कि भैया रास्ते में कोई बैंक-वैंक तो नहीं पड़ेगा तो वाक्य खत्म होने से पहले ही उसके मोबाइल फोन पर उसके खाते से पाँच रुपये कटने का सन्देश आ टपकता है। इन्क्वारी चार्ज।
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शरद जोशी हिन्दी व्यंग्य के ‘आइकॉन’ हैं। व्यंग्य की तीव्रता को उन्होंने जिस भाषा और तेवर के साथ सम्भव किया, और जो मानक निर्मित किया, उनके बाद कोई भी व्यंग्यकार उसे पार नहीं कर सका। उनके व्यंग्य-लेख वर्तमान हालात पर भी आज के व्यंग्यकारों से ज़्यादा सार्थक, प्रासंगिक और बेधक लगते हैं। गहरे सामाजिक सरोकार, समाज और राजनीति की परिपक्व समझ, खुली दृष्टि और तीखे ‘ऑब्ज़र्वेशन’ ने उन्हें जो अलग जगह दी, वह हिन्दी में आज भी उन्हीं की है।
इस पुस्तक में उनके राजनीतिकेन्द्रित लेखों को संकलित किया गया है, और उनमें भी ज़ोर चुनाव-विषयक टिप्पणियों पर है, इसीलिए इसका शीर्षक ‘वोट ले, दरिया में डाल’ पड़ा जो भारतीय लोकतंत्र पर एक टिप्पणी है।
पुस्तक में शामिल पचास से अधिक इन आलेखों में, जैसे हमारे देश की राजनीति की एक-एक कमज़ोर कड़ी का पोस्टमार्टम किया गया है। चुनाव में खड़े आदमी की छवि से शुरू करके शरद जोशी यहाँ ‘चुनाव गीतिका : सरलार्थ’ तक जाते हैं और लिखते हैं : ‘निशि व्यतीत हुई। ओ कज्जल-मलिन नयनोंवाली कामिनी, उठ। पोलिंग बूथों से राजनीति का कन्त तुझे टेर रहा है। चुनाव के कटे-कटे पोस्टरों से गृहों की दीवारें ऐसी प्रतीत हो रही हैं मानो किसी सुन्दरी के तन पर नख-क्षत हैं। प्रचार बन्द हो गया है। सभी जन मतदान हेतु केन्द्रों की ओर सत्वर गति से जा रहे हैं। ऐसे में हे गजगामिनी, तू गमन-विलम्बिनी होने की कलंकिनी मत बन।’ कहने की ज़रूरत नहीं कि भाषा का यह तत्सम ठाठ एक गहरे और सतह पर शान्त क्रोध की हुंकार है।
आशा है, शरद जोशी के ये लेख पाठकों को पुनः प्रतिरोध व अस्वीकार की उसी तमतमाती दुनिया में ले चलेंगे।
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