Kahat Kabeer
Author:
Harishankar ParsaiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Satire0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
हरिशंकर परसाई के व्यंग्य को श्रेष्ठतम इसलिए कहा जाता है कि उनका उद् देश्य कभी पाठक को हँसाना भी नहीं रहा। न उन्होंने हवाई कहानियाँ बुनीं, न ही तथ्यहीन विद्रूप का सहारा लिया। अपने दौर की राजनीतिक उठापटक को भी वे उतनी ही ज़िम्मेदारी और नज़दीकी से देखते थे जैसे साहित्यकार होने के नाते आदमी के चरित्र को। यही वजह है कि समाचार-पत्रों में उनके स्तम्भों को भी उतने ही भरोसे के साथ, बहैसियत एक राजनीतिक टिप्पणी पढ़ा जाता था जितने उम्मीद के साथ उनके अन्य व्यंग्य-निबन्धों को।</p>
<p>इस पुस्तक में उनके चर्चित स्तम्भ 'सुनो भई साधो' में प्रकाशित 1983-84 के दौर की टिप्पणियाँ शामिल हैं। यह वह दौर था जब देश खालिस्तानी आतंकवाद से जूझ रहा था। ये टिप्पणियाँ उस पूरे दौर पर एक अलग कोण से प्रकाश डालती हैं, साथ ही अन्य कई राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं का उल्लेख भी इनमें होता है। ज़ाहिर है ख़ास परसाई-अन्दाज़ में। मसलन, 21 नवम्बर, 83 को प्रकाशित ‘चर्बी, गंगाजल और एकात्मता यज्ञ’ शीर्षक लेख की ये पंक्तियाँ। “काइयाँ साम्प्रदायिक राजनेता जानते हैं कि इस देश का मूढ़ आदमी न अर्थनीति समझता, न योजना, न विज्ञान, न तकनीक, न विदेश नीति। वह समझता है गौमाता, गौहत्या, चर्बी, गंगाजल, यज्ञ। वह मध्ययुग में जीता है और आधुनिक लोकतंत्र में आधुनिक कार्यकर्म पर वोट देता है। इस असंख्य मूढ़ मध्ययुगीन जन पर राज करना है तो इसे आधुनिक मत होने दो।”</p>
<p>
ISBN: 9788126728534
Pages: 164
Avg Reading Time: 5 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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- Description: सीधा और स्पष्ट अवलोकन, गहरी विश्लेषण-दृष्टि, एक निश्चित और परिभाषित फ़ासले से अपने विषय को देखना, उसका निर्मम विवेचन करना, सटीक और सुस्पष्ट शब्दों का चुनाव और अपने आसपास के जीवन के प्रामाणिक अनुभवों से उपजी विवरणात्मकता—ये कुछ तत्त्व हैं जो शरद जोशी को एक विशिष्ट व्यंग्यकार बनाते हैं। जो वस्तु, व्यक्ति या विषय शरद जोशी की लेखनी के निशाने पर आता है, वह सचमुच कुछ देर के लिए कुछ नहीं रहता। उसकी एक-एक परत, उसकी आभा के एक-एक आवरण को उतारकर वे उसे उसी प्राकृतिक रूप में वापस कर देते हैं जैसा वह सत्ता की विभिन्न भंगिमाओं को ओढ़ने के पहले होता होगा। यह उनके व्यंग्य को दार्शनिक आभा देता है जो हास्य उत्पन्न करने को व्याकुल व्यंग्यकारों के यहाँ नहीं होती। शरद जोशी का व्यंग्य कहीं-कहीं इतना क्रूर, निर्दय और बहुपक्षीय होता है कि लगता है, आस्था को पैर टिकाने के लिए कोई जगह ही नहीं रही। लेकिन मनुष्यता फिर भी है, जो उनके व्यंग्य की रीढ़ है, और जो जीवन की अन्तिम और सबसे ज़्यादा भरोसेमन्द आस्था है। उसी के लिए, और उसी के नज़रिए से वे अपने विषयों की अप्राकृतिकता और हास्यास्पदता को देखते हैं, और उसी के हित में उनका अनावरण भी करते हैं। इस पुस्तक में उनके अपने शहर भोपाल के विषय में लिखे गए आलेखों को समेटा गया है।
Khattar Kaka
- Author Name:
Harimohan Jha
- Book Type:

- Description: धर्म और इतिहास, पुराण के अस्वस्थ, लोकविरोधी प्रसंगों की दिलचस्प लेकिन कड़ी आलोचना प्रस्तुत करनेवाली, बहुमुखी प्रतिभा के धनी हरिमोहन झा की बहुप्रशंसित, उल्लेखनीय व्यंग्यकृति है—‘खट्टर काका’। आज से लगभग पचास वर्ष पूर्व खट्टर काका मैथिली भाषा में प्रकट हुए। जन्म लेते ही वह प्रसिद्ध हो उठे। मिथिला के घर-घर में उनका नाम चर्चित हो गया। जब उनकी कुछ विनोद-वार्त्ताएँ ‘कहानी’, ‘धर्मयुग’ आदि में छपीं तो हिन्दी पाठकों को भी एक नया स्वाद मिला। गुजराती पाठकों ने भी उनकी चाशनी चखी। वह इतने बहुचर्चित और लोकप्रिय हुए कि दूर-दूर से चिट्ठियाँ आने लगीं—“यह खट्टर काका कौन हैं, कहाँ रहते हैं, उनकी और-और वार्त्ताएँ कहाँ मिलेंगी?” खट्टर काका मस्त जीव हैं। ठंडाई छानते हैं और आनन्द-विनोद की वर्षा करते हैं। कबीरदास की तरह खट्टर काका उलटी गंगा बहा देते हैं। उनकी बातें एक-से-एक अनूठी, निराली और चौंकानेवाली होती हैं। जैसे—“ब्रह्मचारी को वेद नहीं पढ़ना चाहिए। सती-सावित्री के उपाख्यान कन्याओं के हाथ नहीं देना चाहिए। पुराण बहू-बेटियों के योग्य नहीं हैं। दुर्गा की कथा स्त्रैणों की रची हुई है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को फुसला दिया है। दर्शनशास्त्र की रचना रस्सी देखकर हुई। असली ब्राह्मण विदेश में हैं। मूर्खता के प्रधान कारण हैं पंडितगण! दही-चिउड़ा-चीनी सांख्य के त्रिगुण हैं। स्वर्ग जाने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है...।” खट्टर काका हँसी-हँसी में भी जो उलटा-सीधा बोल जाते हैं, उसे प्रमाणित किए बिना नहीं छोड़ते। श्रोता को अपने तर्क-जाल में उलझाकर उसे भूल-भुलैया में डाल देना उनका प्रिय कौतुक है। वह तसवीर का रुख़ तो यों पलट देते हैं कि सारे परिप्रेक्ष्य ही बदल जाते हैं। रामायण, महाभारत, गीता, वेद, वेदान्त, पुराण—सभी उलट जाते हैं। बड़े-बड़े दिग्गज चरित्र बौने-विद्रूप बन जाते हैं। सिद्धान्तवादी सनकी सिद्ध होते हैं, और जीवमुक्त मिट्टी के लोंदे। देवतागण गोबर-गणेश प्रतीत होते हैं। धर्मराज अधर्मराज, और सत्यनारायण असत्यनारायण भासित होते हैं। आदर्शों के चित्र कार्टून जैसे दृष्टिगोचर होते हैं...। वह ऐसा चश्मा लगा देते हैं कि दुनिया ही उलटी नज़र आती है। स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर प्रकाशित हिन्दी पाठकों के लिए एक अनुपम कृति—‘खट्टर काका’।
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