Teerthon Mein Teerthraj Prayag
Author:
Shri PrakashPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Religion-spirituality0 Reviews
Price: ₹ 239.2
₹
299
Available
इलाहाबाद मुग़लों की नज़र में अल्लाह द्वारा आबाद किया हुआ पवित्र नगर है। प्रयाग है, तीर्थ है, तीर्थराज है, प्रयागराज है। इसकी प्राचीनता असन्दिग्ध है। इसकी पौराणिकता, इसका इतिहास गौरवशाली है। मन्दिरों की ऐसी शृंखला है यहाँ कि इसे मन्दिरों का नगर कहें तो अतिशयोक्ति न होगी।</p>
<p>स्वतंत्रता आन्दोलन में 1857 की क्रान्ति से लेकर 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन तक में इसकी भागीदारी अति महत्त्वपूर्ण है। स्वतंत्रता आन्दोलन में इस नगर और नेहरू परिवार की भागीदारी ने आनन्द भवन को तो राष्ट्रीय तीर्थ ही बना दिया। इन्दिरा गांधी ने अपने इस पैतृक भवन को राष्ट्र को समर्पित भी कर दिया।</p>
<p>नगर में मन्दिर हैं, ऐतिहासिक स्थल हैं, राष्ट्रीयता के प्रतीक-स्थल हैं और सबसे बढ़कर गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती का पवित्र त्रिवेणी संगम है। प्रयाग की इस स्थापित महत्ता को पुनर्स्थापित करने का प्रयास है यह पुस्तक।</p>
<p>
ISBN: 9788180319563
Pages: 204
Avg Reading Time: 7 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: भारत जैसे बहुभाषी, सामासिक समाज में राष्ट्रीय मानस को समझने के लिए भारतीय दर्शन का अनुशीलन आवश्यक है। यह और भी जरूरी है क्योंकि भारतीय दर्शन की एक सुदीर्घ परंपरा रही है। इसमें आस्था, विश्वास, अंधविश्वास, धर्म जैसे अवयव भी घुले-मिले हैं। मोटे तौर पर दर्शन में दो परस्पर विरोधी धाराएँ तो सक्रिय रही ही हैं। विविधता इतनी विपुल है कि कुछ पंक्तियों में भारतीय दर्शन को परिभाषित करना कठिन है। इसीलिए तर्कसंगत, वैज्ञानिक, दार्शनिक दृष्टिकोण का विकास जरूरी हो जाता है। हम अक्सर अपने दार्शनिक सिद्धांतों, प्राचीन संस्कृति और सभ्यता के प्रति मोहवादी अतिवाद के शिकार हो जाते हैं। पुस्तक के लेखक विख्यात मनीषी देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने इस संदर्भ में न केवल संतुलित दृष्टिकोण अपनाया है बल्कि जहाँ आवश्यक हुआ, वहाँ अवैज्ञानिक और अतार्किक मान्यताओं का खंडन भी किया है। दर्शन हवा में नहीं बल्कि यथार्थ के ठोस धरातल पर जन्म लेते हैं। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय भारतीय आदर्शवाद तथा मायावाद के पीछे सक्रिय सामाजिक शक्तियों, कर्मवाद के बजाय परलोकवाद का पाठ पढ़ानेवाले निहित स्वार्थों और भारतीय विज्ञान के विकास में बाधा बननेवाले हितों पर विमर्श करते हैं तथा वहीं सकारात्मक शक्तियों को चिह्नित भी करते हैं। इस तरह पुस्तक में भारतीय दर्शन सही परिपे्रक्ष्य में उपस्थित होता है। 'भारतीय दर्शन : सरल परिचय न केवल सामान्य बल्कि सुविज्ञ पाठकों के लिए बहुविध उपयोगी पुस्तक है।
Tulsi Dohawali
- Author Name:
Raghav 'Raghu'
- Book Type:

- Description: "हिंदुओं के पवित्र ग्रंथ ‘रामचरितमानस’ के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास को उत्तर भारत के घर-घर में अकूत सम्मान प्राप्त है। राम की अनन्य भक्ति ने उनका पूरा जीवन राममय कर दिया था। हालाँकि उनका आरंभिक जीवन बड़ा कष्टपूर्ण बीता, अल्पायु में माता के निधन ने उन्हें अनाथ कर दिया। उन्हें भिक्षाटन करके जीवन-यापन करना पड़ा। धीरे-धीरे वह भगवान् श्रीराम की भक्ति की ओर आकृष्ट हुए। हनुमानजी की कृपा से उन्हें राम-लक्ष्मण के साक्षात् दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इसके बाद उन्होंने ‘रामचरितमानस’ की रचना आरंभ की। ‘रामलला नहछू’, ‘जानकीमंगल’, ‘पार्वती मंगल’, ‘कवितावली’, ‘गीतावली’, ‘विनयपत्रिका’, ‘कृष्ण गीतावली’, ‘सतसई दोहावली’, ‘हनुमान बाहुक’ आदि उनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। यह पुस्तक उन्हीं तुलसी को समर्पित है, जो अपनी रचनाओं द्वारा हमारा मार्गदर्शन करते हैं, हमें सामाजिक व आध्यात्मिक रूप से श्रेष्ठ बनने की शिक्षा देते हैं। तुलसी की वाणी, उनकी रचनाएँ मन को छू लेनेवाली हैं; हमें मार्ग दिखानेवाली हैं। इनका संदेश हमारा पाथेय है।"
Siddharameshwara : Vyakti-Kriti
- Author Name:
Kashinath Ambalge
- Book Type:

- Description: वाचन से जो अनुभवी नहीं होता वह प्रेत है, वाचन से जो अनुभवी होता है वह पंडित है। विद्या तो परिश्रमी के वश में है, विद्या-अविद्या की पहचान से जग के लिए वेदज्ञ हो सका तो वही महापंडित है। हे कपिलसिद्ध मल्लिकार्जुन! भक्त का मन कामिनी में अनुरक्त होता है तो विवाह कर संग रहना चाहिए, भक्त का मन भूमि पर अनुरक्त होता है तो प्राप्त कर घर बनाना चाहिए, भक्त का मन कनक में अनुरक्त होता है तो सप्रयास प्राप्त करना चाहिए, हे कपिलसिद्ध मल्लिकार्जुन!
Leela Aur Bhaktiras
- Author Name:
Yogendra Pratap Singh
- Book Type:

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Description:
लीला के विवेचन के बिना हिन्दी भक्ति-कविता की समीक्षा सम्भव नहीं है। लीला भक्तिरस का प्राण है। हिन्दी के आलोचकों ने लगभग आठ दशकों से हिन्दी वैष्णव भक्तिकाव्य की समीक्षा शुरू की है, किन्तु उनका ध्यान इस प्राणवान तत्त्व की ओर नहीं जा सका है। प्रायः अंग्रेज़ी साहित्य से सम्बन्ध सिद्धान्तों तथा प्रकृत लोक मान्यताओं के प्रकाश में भक्ति-कविता की अब तक जो समीक्षाएँ हुई हैं, उनसे इस विशाल साहित्य की मूल प्रकृति स्पष्ट नहीं हो सकी है। इसका मुख्य कारण यह है कि भक्तिकाव्य के अध्यात्म एवं लोक का द्वन्द्व केवल लीला एवं मात्र लीला के माध्यम से ही विवेचित होना सम्भव है। उसके मन्तव्य, अर्थ-रचना एवं भावद्वन्द्व को इस लीलाधर के अभाव में देखा जाना इस भारतीय कविता के साथ अन्याय है। भक्तिरस इसी लीलाधर्मिता की निष्पत्ति है। आचार्य पं. रामचन्द्र शुक्ल जैसे भक्ति-कविता के प्रख्यात समीक्षक भी भक्तिकाव्य की इस मूल अवधारणा से अपनी दृष्टि बचाकर दूसरी ओर जाते दिखाई पड़ते हैं।
प्रस्तुत कृति का मूल मन्तव्य लीला तथा भक्तिरस के इसी सारवान तत्त्व की सैद्धान्तिकता की स्थापना करना है ताकि इसके प्रकाश में हिन्दी भक्तिकाव्य की पुनर्व्याख्या करके उसके साहित्य की ही नहीं, भारतीय संस्कृति और अस्मिता के साथ न्याय किया जा सके।
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