Suno Jogi Aur Anya Kavitayein
Author:
Sandhya NavoditaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 239.2
₹
299
Available
संध्या नवोदिता की जोगी वाली कविताएँ जब पहली बार फ़ेसबुक पर पढ़ीं, तभी चौंक गई थी। कौन है यह जो अन्तस की ऐसी गहराई से ऐसी कविताएँ लिखती है जो पूरे ब्रह्मांड को घेर लेती हैं? मैंने इस अनजान कवि की ‘जोगी’ शीर्षक से एक फ़ाइल बना ली और कविताएँ उसमें रखने लगी—यह सोचकर कि फिर उतरना ही होगा इनमें फ़ुरसत से। और जब उतरी तो पाया कि ज़िन्दगी के पार्क का तीन अरब किलोमीटर का चक्कर लगवाती हैं ये कविताएँ—पृथ्वी के आलिंगन में सूरज के चारों ओर। इन कविताओं में प्रेम की उदासी और दुःख का पहाड़ा ऐसा हृदयविदारक है कि मेरे जैसा अ-रूमानी पाठक भी सन्तप्त हो उठता है। जाने कैसी सच्चाई है, कैसी गहराई है इस भाषा में, जो रोज़मर्रा के जीवन की मामूली चीज़ों से होती सुपर मून तक वामन डग भरती विस्तार पा लेती है।</p>
<p>इन कविताओं में कवि का आत्म अपने को विस्तारित करता हुआ समूची धरती का आत्म बन जाता है। इसलिए सहज ही संध्या वह सब कुछ अपनी कविताओं में कह जाती हैं जो बहुत श्रम के बाद भी अनकहा ही रह जाता है। बराबर मनुष्य की गरिमा के साथ प्रेम और साहचर्य को जीती ये कविताएँ प्रकृति के साथ भी एक अटूट साहचर्य की कामना रखती हैं। प्रेम, प्रकृति और प्रतिरोध यहाँ इस तरह से घुल-मिलकर आते हैं कि अलग से उनकी पहचान कर पाना या एक दूसरे से विलगाकर देख पाना सम्भव नहीं बचता।</p>
<p>यह सब उस भाषा में है जिसे हम रोज़ बरत रहे हैं। कहीं कोई बनावट या कविताई का आग्रह नहीं दिखता। शायद अनुभव और अभिव्यक्ति की यह निर्दोष जुगलबंदी है कि हम उसके ख़यालों की सीढ़ियाँ नाप पाते हैं। कुछ कविताओं को पढ़ ऐसा होता है कि मैं अगर उनपर कुछ लिखना चाहूँ, तो वे शब्द नहीं मिलते जो उस कविता के साथ न्याय कर सकें। मेरी भाषा मौन हो जाती है। लौट आने के आह्वान में खोए हुए की प्रतीति और पुकार अविस्मरणीय बन जाती है। संध्या की कविताएँ ऐसी ही कविताएँ हैं।</p>
<p>—अलका सरावगी
ISBN: 9788119996346
Pages: 160
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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टेलीविज़न की दुनिया में रहकर अपने परिवार तक के लिए समय निकाल पाना मुश्किल हो जाता है और हड़बड़ी की इस दुनिया में अपनी संवेदनाएँ बचाना प्राय: असम्भव ही होता है। अत: आश्चर्य होता है कि इस दुनिया में लगातार रहकर ख़ासकर कविता के लिए समय उन्होंने कैसे और कहाँ से निकाल लिया होगा? और यों ही अपनी भावनाएँ व्यक्त करने के लिए कविता के नाम पर कुछ भी लिख देना तो सम्भव या आसान है मगर कविता के आधुनिक मुहावरे को समझते हुए अपने पेशेवर काम से एक बिलकुल ही अलग दुनिया रच देना अगर असम्भव नहीं तो बेहद मुश्किल और जटिल है।
मुकेश की विशेषता सिर्फ़ यह नहीं है कि वे कविताएँ लिखते हैं, यह भी है जैसा कि ऊपर कहा गया, वे इसमें संवेदनाओं की एक अलग दुनिया रचते हैं। यह दुनिया दैनिक और हर घंटे या हर दस मिनट बाद टीवी के पर्दे पर आनेवाली ज़्यादातर सतही और कामचलाऊ ख़बरों और उनके विश्लेषण की दुनिया से बिलकुल ही अलग है। इन कविताओं को पढ़ते हुए पाठकों को याद ही नहीं आएगा कि यह वही मुकेश हैं जिन्हें रात के समय समाचारों का कोई कार्यक्रम प्रस्तुत करते हमने-आपने देखा है, हालाँकि वहाँ भी उनका तीखापन कहीं खोता नहीं जैसे कि ‘हंस’ के उनके स्तम्भ में भी यह बेधड़क ढंग से व्यक्त होता है। इन कविताओं में से कम कविताओं में ही आज की राजनीति से सीधे-सीधे रूप से कवि वाबस्ता है। ये कविताएँ उनके कोमल और लड़ाकू दोनों पक्षों को एक साथ उजागर करती हैं। वे चाँद की बात इनमें करते हैं, साथ ही समुद्र की, नदियों की, स्मृतियों की, साँकल की (जो जीवन से प्राय: खो चुकी है), प्यार की, अपने और बच्चों के बचपन की, आत्मनिर्वासन की और ऐसी ही कई-कई बातें करते हैं। वे कई ताज़े टटके बिम्ब रचते हैं। दूज का चाँद उन्हें बिना मूठ का हँसिया नज़र आता है जो तारों की फ़सल काटने के काम आता है। इन कविताओं में नदी अपनी आत्मकथा लिखती पाई जाती है। इनमें कवि स्मृतियों के घर में रहता हुआ पाया जाता है। और मुकेश यह सारा काम टेलीविज़न की अत्यन्त शब्दस्फीत दुनिया से अलग पर्याप्त भाषा संयम से करते हैं।
उनकी कविताएँ छोटी हैं, स्पष्ट हैं और लगभग उतने ही शब्दों का इस्तेमाल करती हैं जितने का प्रयोग करना अनिवार्य है और यह अनुशासन हासिल करना आसान नहीं है। कई नामी कवि बेहद शब्दस्फीत हैं। उनमें कहीं-कहीं एक गहरा आक्रोश भी है तो कहीं एक गहरा आत्मविश्वास भी, इसलिए कितना भी घना क्यों न हो अँधेरा जितना जान पड़ता है उतना घना नहीं होता अँधेरा। और ऐसे आत्मविश्वास का अर्थ तब ज़्यादा है जब कवि को पता है कि—जिन्हें पूजा हो गए पत्थर, पूजते-पूजते लोग भी हो गए पत्थर, देवता भी पत्थर, पुजारी भी पत्थर, सब पत्थर पत्थर ही पत्थर। जब सब तरफ़ पत्थर ही पत्थर हों, हमारे आदर्श देवता और पुजारी तक जब पत्थर हो चुके हों, तब रचने की चुनौती ज़्यादा गम्भीर है क्योंकि रचना के स्रोत भी पथरा चुके हैं। ऐसे कठिन समय में सरल-आत्मीय कविताएँ रचनेवाले मुकेश कुमार के इस संग्रह की तरफ़ आशा है सबका ध्यान जाएगा, हालाँकि स्थितियाँ साहित्य से जुड़े लोगों के भी पथरा जाने की हैं।
Seepiyaan
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Ab Aur Nahin
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Omprakash Valmiki
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हिन्दी दलित कविता की विकास-यात्रा में ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं का एक विशिष्ट और महत्त्पूर्ण स्थान है। आक्रोशजनित गम्भीर अभिव्यक्ति में जहाँ अतीत के गहरे दंश हैं, वहीं वर्तमान की विषमतापूर्ण, मोहभंग कर देनेवाली स्थितियों को इन कविताओं में गहनता और सूक्ष्मता के साथ चित्रित किया गया है। दलित कविता के आन्तरिक भावबोध और दलित चेतना के व्यापक स्वरूप को इस संग्रह की कविताओं में वैचारिक प्रतिबद्धता और प्रभावोत्पादक अभिव्यंजना के साथ देखा जा सकता है।
दलित कवि का मानवीय दृष्टिकोण ही दलित कविता को सामाजिकता से जोड़ता है। इस संग्रह की कविताओं में दलित कविता के मानवीय पक्ष को प्रभावशाली ढंग से उभारा गया है। दलित कवि जीवन से असम्पृक्त नहीं रह सकता। वह घृणा में नहीं, प्रेम में विश्वास करता है—'हज़ारों साल की यातना को भूलकर/निकल आए हैं शब्द/कूड़ेदान से बाहर/खड़े हो गए हैं/उनके पक्ष में/जो फँसे हुए हैं अभी तक/अतीत की दलदल में।’
‘अब और नहीं...' संग्रह की कविताओं में ऐतिहासिक सन्दर्भों को वर्तमान से जोड़कर मिथकों को नए अर्थों में प्रस्तुत किया गया है। दलित कविता में पारम्परिक प्रतीकों, मिथकों को नए अर्थ और सन्दर्भों से जोड़कर देखे जाने की प्रवृत्ति दिखाई देती है, जो दलित कविता की विशिष्ट पहचान बनाती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं में 'किष्किंधा' शीर्षक कविता में 'बालि' का आक्रोश दलित कवि के आक्रोश में रूपान्तरित होकर कविता के एक विशिष्ट और प्रभावशाली आयाम को स्थापित करता है—'मेरा अँधेरा तब्दील हो रहा है/कविताओं में/याद आ रही है मुझे/बालि की गुफा/और उसका क्रोध |'
इस संग्रह की कविताओं का यथार्थ गहरे भावबोध के साथ सामाजिक शोषण के विभिन्न आयामों से टकराता है और मानवीय मूल्यों की पक्षधरता में खड़ा दिखाई देता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की प्रवाहमयी भावाभिव्यक्ति इन कविताओं को विशिष्ट और बहुआयामी बनाती है |
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