Fati Hatheliyan
Author:
Neha NarukaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
नेहा नरूका की कविताओं में भारतीय राजनीति के नवीन संस्करणजन्य भय और आशंकाएँ विन्यस्त हैं। वे रेखांकित करती हैं कि इस सदी में, ख़ासतौर पर पिछले दशक में राजनीति ने किस-किस तरह समाज को, जनचेतना को संक्रमित और प्रदूषित करने के उपक्रम किए हैं। उसके अक्स आम जीवन की दिनचर्या, विचार-प्रक्रिया, प्रेमिलता और सहजीविता पर नाख़ूनों की गहरी खरोंचों की तरह आए हैं। इनकी त्रासदियाँ सहज मानवीय जीवन की आकांक्षा को नाना प्रकार चोटिल कर सकती हैं, उसके विचलित करनेवाले, मार्मिक ब्योरे यहाँ दर्ज हैं। वे इन कविताओं में संचित आवेग, प्रतिवाद और पीड़ाजन्य क्रोध में समेकित हैं। हम देख सकते हैं कि काली राजनीति से गाढ़े होते इस सामाजिक अन्धकार में नेहा संवेदित स्पर्श और दृष्टि-सम्पन्नता से अपनी कविता अग्रसर करती हैं।</p>
<p>तमाम तरह के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दुराचारों से लथपथ इस समय में घर के बाहर और भीतर जितने अत्याचार और ख़तरे हैं, वे नेहा की कविताओं के प्रस्थान-बिन्दु हैं। ये कविताएँ एक रचनाकार की तकलीफ़ और तलछट के साक्षात जीवनानुभवों से निसृत हैं। इनसे गुज़रते हुए निम्न-मध्यवर्गीय, निम्नवर्गीय और वंचित जीवन के बारीक फ़र्क़ को बेहतर समझा जा सकता है, हिन्दी कविता में इधर जिसका संज्ञान दुर्लभ हो गया है। स्त्रियों पर आरोपित अन्धविश्वासों, धार्मिक पाखंड से सनी कुरीतियों पर सीधे प्रश्नों की तीक्ष्णता इन्हें अधिक प्रभावी बनाती है। प्रेम पर लिखते हुए वे समाज में व्याप्त विषमताओं और अन्तर्विरोधों पर लगातार निगाह रखती हैं।</p>
<p>यहाँ स्त्रीवाद की जिरहें, पितृसत्तात्मकता, स्त्री-निर्मिति आदि के पहलू रोज़मर्रा की मुश्किलों और समझ से प्रेरित हैं। जहाँ वे इंगित कर सकती हैं कि व्यापक सुख व्यापक संवेदनहीनता में बदल रहे हैं। स्त्री की व्यथा स्त्री-कथा में बदल गई है। प्रकारान्तर से स्त्री-दशा की बृहत् तस्वीर बनती चली जाती है। इस हेतु वे तथाकथित वांछित काव्यात्मकता या लयकारी के बरअक्स उस ज्ञानात्मक संवेदित गद्य में कविता मुमकिन करती हैं जो समकालीन कविता का हासिल है। ये कविताएँ आँसुओं की नहीं सवालों की झड़ी लगाती हैं, एक सजग स्त्री, नागरिक की तरफ़ से आरोप-पत्र दाख़िल करती हैं। बाध्यकारी नैतिकताओं और पवित्रताओं को प्रश्नांकन के दायरे में लेती हैं। पहले ही कविता-संग्रह में यह सब देखना सुखद है, स्वागतेय है।</p>
<p><strong>—कुमार अम्बुज</strong>
ISBN: 9788119835652
Pages: 144
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: हिन्दी की युवा पीढ़ी के सक्रिय हस्ताक्षर संजीव मज़दूर झा का यह पहला कविता संग्रह कवि की संभावनाओं को प्रकाशित करते हुए हमें आश्वस्त करता है कि संजीव सरीखे कवियों के माध्यम से कविता का प्रतिरोधी और आलोचनात्मक स्वर निरंतर शक्तिशाली बना रहेगा। संजीव ने अपने आसपास की दुनिया को सीधी-सपाट, परंतु जीवंत और तेज भाषा में व्यक्त किया है। इस संदर्भ में सिर और लाठी शीर्षक कविता विशेष रूप से रेखांकित करने योग्य है जो वर्तमान व्यवस्था के सभी पक्षों को बेनकाब करती हुई मनुष्य के सोचने की ताकत और साहस का यशोगान करती है। कवि ने सुचिंतित निर्णय के साथ अधिकतर कविताओं में भाषा को अभिधात्मक रखा है जिससे कविता सहज और सम्प्रेष्य तो बनती ही है साथ ही बेहद प्रभावकारी भी बन जाती है। संजीव मज़दूर गरीबों, दलितों और स्त्रियों के पक्षकार हैं। वह निर्ममता के साथ वर्ण व्यवस्था और पुरुष वर्चस्व पर चोट करते हैं। उनकी कविता स्वतंत्र, न्यायपूर्ण समाज के स्वप्नों से प्रेरित है। साथ ही, जीवन और प्रकृति के कुछ मनोरम चित्र भी यहाँ मिलते हैं जो कवि के आयतन को विस्तार देते हैं। संजीव झा मज़दूर की ये कविताएँ इसलिए भी विचारणीय हैं कि यहाँ नयी पीढ़ी के एक कवि की दृृष्टि से समकालीन जीवन को देखने-समझने का अवसर हमें मिलता है। भाषा और संवेदना के नये आचरण तथा कोण यहाँ मिलते हैं— जब विकास नहीं था दुनिया थी जब तंत्र नहीं था लोक था एक दिन फिर तुम न होगे पर हम होंगे यही विश्वास और साहसिक आशा आज हमें चाहिए। संजीव मज़दूर झा की सर्वोत्तम कविताएँ इन्हीं मूल्यों का प्रकाश स्तम्भ हैं। —अरुण कमल
Saanjh Ka Neela Kivaar
- Author Name:
Bhavana Shekhar
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Description:
भारतीय कविता विशेषकर हिन्दी कविता में अभी का समय स्त्री-नवजागरण का समय है। भक्तिकाल के बाद इतनी बड़ी संख्या में इतनी तेजोमय स्त्री कवियों का आविर्भाव हुआ है। भावना शेखर इसी स्त्री-काव्य का एक नवीनतम शिखर हैं। अन्तर केवल यह है कि भावना शेखर की कविताएँ रूढ़ या प्रचलित अर्थ में स्त्रीवादी कविताएँ नहीं हैं। ये बस उतनी ही और वैसी ही जाग्रत कविताएँ हैं जितनी कि किसी भी कविमात्र द्वारा सृजित हो सकती हैं—स्त्री वा पुरुष। क्योंकि ये मनुष्य जाति बल्कि सम्पूर्ण जीव-जगत और ब्रह्मांड की कविताएँ हैं। ‘बिछुड़न’ शीर्षक कविता इस जगत व्याप्ति का अद्भुत उदाहरण है। ‘हृदय की भूमि में’, ‘गुरुत्वाकर्षण’ की शक्ति को पहचानती भावना शेखर की कविताओं के लिए कुछ भी अस्पृश्य नहीं है। बचपन की स्मृतियों से लेकर ऐन्द्रिक अनुभवों और गहन लालसा से भरी ये कविताएँ सहसा हमें बेचैन कर देती हैं। ‘मेरी नसों में कुछ जी उठा है/मालूम होता है/दीवार के उस पार गुज़री हो तुम अभी-अभी’—आज केवल भावना शेखर ही ऐसी पंक्ति रच सकती हैं। और इतना नया और सूक्ष्म विवरण भी—‘पत्तों से छनती धूप बदरंग है कलई उतरे बर्तनों सी’, साथ-साथ भावना ने ऐसी कविताएँ भी लिखी हैं जो मूलत: स्त्री-अनुभव की कविताएँ हैं जैसे ‘सत्रहवीं दहलीज़’ या ‘ऋतुस्नान के बाद’। लेकिन यहाँ कोई तिक्तता या द्वेष नहीं है, केवल एक पृथक् जीवनचर्या है और यही इस कविता की प्रतिरोध-भूमि है। ‘बित्ता-भर ज़मीन’ की तलाश पूरे संग्रह की प्रेरणा-शक्ति है, फिर भी यहाँ कुछ भी सपाट या अनगढ़ नहीं है। ‘यह अभिधा नहीं व्यंजना है’ कवि का कहना है जो सच तथा प्रामाणिक है तथा ‘स्त्रीलिंग’ का इन्द्रधनुषी आक्षितिज प्रसार। इस संग्रह की एक अनूठी और मार्मिक कविता है ‘स्त्रीलिंग।’ इन कविताओं को पढ़ना एक नए अनुभव-संसार, एक नए शिखर की चमक और प्राणवायु को आत्मसात् करना है। मैं केवल एक कविता उद्धृत कर रहा हूँ—
“चूल्हे की राख में बुझते अंगारे
हथेली पर सूखती क़तरा-भर नमी
इकलौते पैर पर लँगड़ाती मैना
और पुलिया के पारवाली बंजर ज़मीं
कभी तो सुलगेगी बुझती चिंगारी
चुल्लू-भर तरावट मुट्ठी में होगी
उस ओर होगी परिन्दों की आहट
मेरी मुँडेर भी गौरैया फुदकेगी”
—अरुण कमल
Atak Gayi Nind
- Author Name:
Rakesh Mishra
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Description:
समकालीन हिन्दी कविता में भी प्रचुर मात्रा में प्रेम कविताएँ लिखी जा रही हैं। प्रेम अपने समूचे भाव-वैभव तथा वैविध्य के साथ उसमें रूपायित हो रहा है। ऐसे आपाधापी वाले परिवेश में ‘अटक गई नींद’ शीर्षक से कवि राकेश मिश्र की प्रेम कविताएँ प्रकाशित हो रही हैं। ये कविताएँ प्रेम जैसे अत्यन्त कोमल और एकान्तिक मनोभाव को एक नए तेवर और मुहावरे के साथ प्रस्तुत करती हैं—
कहीं मुझमें ही हो तुम
शारदीय नदी के जल में
उगते सूरज की तरह
किताबों के पन्नों में
छिपी सार्थक बातों की तरह
कहीं मुझमें ही हो तुम।
सूने कैनवास पर
उभरने वाले रंगों की तरह
कहीं मुझमें ही हो तुम।
इस तरह कवि अपने काव्य-कौशल के सहारे बड़ी सटीक और सूक्ष्म अन्तर्वृत्तियों का चित्रांकन करता है। प्रस्तुत संकलन का महत्त्व इस दृष्टि से भी है कि इसके द्वारा पाठक को भावनात्मक पोषण प्राप्त होता है। वह बुद्धि तथा भावना के सन्तुलन को साधता है। इस संकलन की भाषा अपनी अभिव्यंजना में बेहद सटीक और परिपक्व है। इसमें किसी तरह का छद्म नहीं है। वह अपनी सहजता से भी पाठक को मुग्ध करती है। —पुरोवाक् से
Aatmahatya Ke Virudh
- Author Name:
Raghuvir Sahay
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Description:
रघुवीर सहाय का यह बहुचर्चित कविता-संग्रह कवि के अपने व्यक्तित्व की खोज की एक बीहड़ यात्रा है। मनुष्य से नंगे बदन संस्पर्श करने के लिए ‘सीढ़ियों पर धूप में’ संग्रह में कवि ने अपने को लैस किया था : अब वही साक्षात्कार इस दौर की कविताओं में उसके लिए एक चुनौती बनकर आया है।
बनी-बनाई वास्तविकता और पिटी-पिटाई दृष्टि से रघुवीर सहाय का हमेशा विरोध रहा है। अपनी कविताओं में उन्होंने अनुभव और भाषा दोनों के वैविध्य से जूझते हुए जो पाया था, वह चौंकाने या रोआब डालनेवाला कुछ नहीं था : वह नए मानव-सम्बन्ध का परिचय था और यह एक रोचक घटना है कि वह बहुधा परम्परावादियों के यहाँ ‘सहज’ कहकर मान्य हुआ, जबकि वह सहज बिलकुल नहीं था।
अपने को किसी क़दर सम्पूर्ण व्यक्ति बनाने की लगातार कोशिश के साथ रघुवीर सहाय ने पिछले दौर से निकलकर ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ में एक व्यापकतर संसार में प्रवेश किया है। इस संसार में भीड़ का जंगल है जिसमें कवि एक साथ अपने को खो देना और पा लेना चाहता है। वह नाचता नहीं, चीखता नहीं और सिर्फ़ बयान भी नहीं करता। वह इस जंगल में बुरी तरह फँसा हुआ है लेकिन उसमें से निकलना किन्हीं सामाजिक-राजनीतिक शर्तों पर उसे स्वीकार नहीं। नतीजा : ये कविताएँ।
भारतभूषण अग्रवाल के शब्दों में : ‘‘भीड़ से घिरा एक व्यक्ति—जो भीड़ बनने से इनकार करता है और उससे भाग जाने को ग़लत समझता है—रघुवीर सहाय का साहित्यिक व्यक्तित्व है।...
रघुवीर सहाय की अनेक रचनाएँ आधुनिक कविता की स्थायी विभूति बन चुकी हैं; उनके नागर मन की भावप्रवणता, सूक्ष्मदर्शिता और तटस्थ निर्ममता अब नए परिचय की मोहताज नहीं। पर अभी यह पहचाना जाना शेष है कि सहज सौन्दर्य और सूक्ष्म अनुभूति से निर्मित रघुवीर सहाय का काव्य-संसार जितना निजी है, उतना ही हम सबका है—एक गहरे और अराजनीतिक अर्थ में जनवादी। सचमुच, ऐसे ही कवि को जनता से घृणा करने का अधिकार दिया जा सकता है।’’
Os Ki Thapaki
- Author Name:
Ashutosh Agnihotri
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- Description: की थपकी' साधारण भावनाओं की सरल लेकिन अहसास के स्तर पर ठहरकर पढ़ी जानेवाली कविताओं का संग्रह है। इस संग्रह में सम्मिलित कविताएँ पहली निगाह में बहुत आसान अनुभवों की नक्काशी करती नज़र आती हैं, लेकिन ध्यान से देखें तो उनके पीछे जीवन के जटिल और आवेशकारी तजुर्बों की एक लम्बी शृंखला बिंधी दिखाई देती है। कवि एक कविता में समाज के, हमारे आस-पास के परिवेश में व्याप्त दीमकों की तरफ़ ध्यान आकर्षित करते हुए कहता है कि 'अफ़सोस से देखते हैं/कुतरी हुई किताबें/उदास अलमारियाँ/...मगर करें तो करें क्या/ज़िद्दी हैं ये दीमक।' ग़ौर से नहीं देखें तो हम इसे एक सीलन-भरे कमरे का दृश्य समझकर आगे बढ़ सकते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि ये दीमकें उन ताक़तों का प्रतीक मात्र हैं जो हमारे आस-पास आजकल हर कहीं ख़ास तौर पर ज्ञान, शिक्षा और पुस्तकों के विरुद्ध अपनी कुंद दिमाग़ ज़िद को चढ़ाए बैठी हैं। इसीलिए कवि अन्त में इसके लिए एक उपचार भी सुझाता है कि ये दीमकें 'तब तक उगतीं/और उठती रहेंगी/जब तक खोदकर/गहराइयों में/जला नहीं देते/नई अलख...।' एक ऐसी अलख जिसकी आँच में मिट्टी का कण-कण, हमारे परिवेश का एक-एक अंश गमकने लगे। नई लौ और नई ख़ुशबू इस तरह जाग्रत हों कि भविष्य में किसी भी दीमक को, किसी भी ऐसी ताक़त को उभरने का अवसर न मिले जो हमारी मानवीय जिज्ञासा को चुनौती देती हो। इसी तरह इस संग्रह की लगभग सभी कविताएँ जीवन के अतिसाधारण बिम्बों और चित्रों के माध्यम से ऐसी समस्याओं से हमारा परिचय कराती हैं जिनकी तरफ़ हमारा ध्यान अपनी दैनंदिन व्यस्तताओं की ऊहापोह में नहीं जाता है। ये कविताएँ वास्तव में हमारी उन्हीं दैनिक सामान्यताओं को कविता के असाधारण अनुभव में बदलने का भाषिक उपक्रम ह
Anantim
- Author Name:
Kumar Ambuj
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किसी ने कहा था कि दुनिया के मज़दूरो, एक हो जाओ—खोने के लिए तुम्हारे पास अपनी ज़ंजीरों के अलावा कुछ भी नहीं है। कुमार अंबुज की ‘ज़ंजीरें’ उन असंख्य साँकलों का ज़िक्र करती हैं जिनसे हमारा समूचा चिन्तन, सृजन तथा समाज बँधा हुआ है और उन्हें वन्दनीय मानने लगा है, हालाँकि कुछ लोग आख़िर ऐसे भी थे जो अपनी-अपनी आरियाँ लेकर उन्हें काटते थे और बार-बार कुछ आज़ाद जगहें बनाते थे। स्वयं कुमार अंबुज के कवि के लिए यह एक उपयुक्त रूपक है। उनकी कविताओं में कोई असम्भव, हास्यास्पद आशावाद या क्रान्तिकारिता नहीं है बल्कि ‘एक राजनीतिक प्रलाप’, ‘झूठ का संसार’ और ‘समाज यह’ जैसी रचनाओं में वे समसामयिक भारतीय स्थितियों के वस्तुनिष्ठ, निर्मम और लगभग निराश कर देनेवाले आकलन तक पहुँचते हैं, फिर भी करोड़ों लोग हैं जो जीवित रहने के रास्ते पर हैं जिनमें से कुछ को पूरी उम्र ज़ंजीरों को काटते ही जाना है। यह उस समाज की कविताएँ हैं जहाँ पाँच-तारा होटलों जैसे अस्पतालों में घुसा तक नहीं जा सकता, जिसमें आदमी को खड़े होने की जगह भी मयस्सर नहीं है। झूठ के रोज़गार ने इस समाज को ख़ुशहाल बना डाला है। अपनी श्रेष्ठता से इनकार करता हुआ कवि अपने प्रति भी इतना कठोर है कि जानता है कि इस सबमें हमारी भूमिका भी इस तरह एक-सी है कि हम अपने ही क़रीब ठीक अपने ही जैसा अभिनय देखकर चौंक उठते हैं। कुमार अंबुज की ऐसी कविताएँ हमारे आज तक के हालात का सीधा प्रसारण हैं जिसमें देखती हुई आँख कभी यथार्थ से बचती नहीं है। लेकिन हिन्दी कविता में देखा गया है कि राजनीति और समाज को समझने और अभिव्यक्त करनेवाली प्रतिभा भी सिर्फ़ उन्हीं तक सीमित हो जाती है और उन्हें भी एक अमूर्तन में ही देख-दिखा पाती है। कुमार अंबुज की साफ़निगाही एकस्तरीय और एकायामी नहीं है। उनकी इस तरह की और दूसरी कविताओं में कथ्य और अनुभवों का ऐसा विस्तार है जो आज की उत्कृष्ट कविता की पहली शर्त है। आज हिन्दी में बेहतरीन कविता लिखी जा रही है लेकिन उसमें भी जिन युवा कवियों ने अस्सी के दशक के बाद अपनी स्पष्ट अस्मिता अर्जित की है उनमें वही रोमांचक वैविध्य है जो कुमार अंबुज के यहाँ है। यदि कविता की निगाह व्यक्ति और समाज के सूक्ष्मतम पहलुओं तक नहीं जाती तो वह अन्ततः अधूरी ही कही जाएगी। जब कुमार अंबुज ‘जब दोस्त के पिता मरे’ जैसी कविता लाते हैं तो हमारे अनुभव के दायरे को बढ़ाते हैं। ‘सेल्समैन’ में शीर्षक का प्रयोग एक स्निग्ध विडम्बना को जन्म देता है। ‘आयुर्वेद’, ‘होम्योपैथी’, ‘माइग्रेन’ तथा ‘हारमोनियम की दुकान से’ सरीखी कविताएँ कुमार अंबुज की अद्वितीय दृष्टि और अप्रत्याशित जगहों में कविता खोज लेने की कूवत का प्रमाण हैं और आज की हिन्दी कविता को अनायास आगे ले जाती हैं। ‘छिपकलियों की स्मृति’ हमें अपने घरों, परिवारों और समाज में लौटाती है जबकि ‘जैसे मेरे ही शहर में’ एक अजनबी जगह में अपने क़स्बे को धीरे-धीरे पहचानने-पाने की प्रक्रिया है जिसके निजी और सामाजिक निहितार्थ अद्भुत हैं।
अस्तित्व के रहस्य पर चिन्तन हमारी परम्परा का एक मौलिक सरोकार रहा है लेकिन पता नहीं क्यों, इसे कुछ दशकों से हिन्दी कविता के लिए अस्पृश्य समझ लिया गया है। इसलिए जब कुमार अंबुज बिना किसी छद्म रहस्यवाद या अध्यात्म के ‘मैं क्या हूँ’ जैसी रचना लाते हैं जिसमें ‘मैं’ कभी एक पत्ता है, झुकी हुई मीनार, दु:ख का एक थक्का रक्त की तरह, काली मिट्टी का ढेला, अपने ही अचेतन का अनचीन्हा अटकता सुर, कोई पराजित जीवन अटका हुआ नैतिक वाक्य में, या एक संकल्प गिरता-पड़ता-उठता हुआ बार-बार, तो यह अज्ञेय के आत्मचिन्तन का नहीं, मुक्तिबोध और शमशेर के आत्मचिन्तन का प्रसार है और आज की हिन्दी कविता के एक परहेज़ को तोड़ना है। ‘सापेक्षता’, ‘सब शत्रु सब मित्र’, ‘धुंध’, ‘शाम’, ‘रात’, ‘चमक’, ‘चोट’, ‘अनुवाद’, ‘काल-बोध’ आदि कुमार अंबुज की ऐसी कविताएँ हैं जिनमें वे अपने नितान्त निजी अनुभवों, जायज़ों, आकलनों, संशयों, अवसादों और पराजयों तक गए हैं। उन्होंने धीरे-धीरे एक ऐसी भाषा और शिल्प अर्जित कर लिए हैं जिनमें नितान्त अनायासिता और किफ़ायतशारी से वे बहुत लगती हुई बातें कह डालते हैं। अंबुज की कुछ ही रचनाओं में आंशिक अचकचाहट, वह भी कविता को एक सम पर ले आने में ही, नज़र आती है वरना वर्णनात्मक या इतिवृत्तात्मक रचनाओं में भी वे विस्तार को निभा ले जाते हैं। कोई भी कवि हमेशा बेहतरीन कविताएँ नहीं दे पाता लेकिन कुमार अंबुज के यहाँ थोड़ी-सी ही कमतर रचना ढूँढ़ पाना कठिन है। ऐसा सजग आत्म-निरीक्षण हिन्दी में विरल है।
कुमार अंबुज की ये कविताएँ भारतीय राजनीति, भारतीय समाज और उसमें भारतीय व्यक्ति के साँसत-भरे वजूद की अभिव्यक्ति हैं। इनमें कोई आसान फ़ार्मूले, गुर या हल नहीं हैं—इनके केन्द्र में करुणा, फ़िक्र और लगाव हैं जिनसे हिन्दुस्तानी आदमी के पक्ष की कविता बनती है। साथ में यह भी है कि जनकातरता की वेदी पर संसार और अस्तित्व के बहुत-सारे पहलुओं और सवालों को बलिदान नहीं किया गया है—सब कुछ के बीच अपने निजीपन को, विशेषतः अपनी जागरूकता और उत्सुकता को, जीवन को अधिकाधिक जानने-समझने-जीने की अभिलाषा को बचाए रखने की एक सहज मानवीय कोशिश इनमें मौजूद है। कुमार अंबुज की ये कविताएँ हिन्दी कविता की ताक़त का सबूत हैं और इक्कीसवीं सदी में हिन्दी की उत्तरोत्तर प्रौढ़ता का पूर्व-संकेत हैं।
—विष्णु खरे
Dehari Ka Man
- Author Name:
Prabha Thakur
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- Description: ‘देहरी का मन’ संवेदनशील व विचारप्रवण कविताओं के लिए चर्चित डॉ. प्रभा ठाकुर का महत्त्वपूर्ण कविता-संग्रह है। इन कविताओं में निष्करुण सामाजिक यथार्थ एवं व्यापक मानवतावाद से सम्बुद्ध मन का द्वन्द्व समाहित है। सभ्यता के चरण पार करते हुए समाज जिस पथ पर अग्रसर है, उसका लक्ष्य क्या है—इस नाभिक से छिटके प्रश्न ‘देहरी का मन’ में पाठक से संवाद करते हैं। इस संग्रह से यह भी आभास होता है कि प्रभा ठाकुर की रचनात्मक यात्रा कितनी वैविध्यपूर्ण है। ‘अपनी बात’ में वे कहती हैं, “कुछ फूल चुनकर भरे थे आँचल में, पता ही नहीं चला कैसे कुछ काँटे भी ख़ुद-ब-ख़ुद ही साथ चले आए। फूल तो मुरझाकर बिखर भी गए, किन्तु काँटे सूखकर और भी पैने और सख़्त हो गए हैं। वैसे भी इतने वर्षों की जीवन-यात्रा के बाद, उम्र के इस पड़ाव पर पहुँचकर, यही सोचती हूँ, कहाँ खड़ी हूँ मैं? किसी शिखर पर, ढलान पर या फिर हाशिए पर...!’’ आत्ममूल्यांकन की यह सघन प्रक्रिया सामाजिक विसंगतियों की पहचान का प्रखर माध्यम बनती है। गीतात्मक अभिव्यक्तियाँ स्मृतियों और अनुभूतियों के सम्मिश्रण से मोहक परिवेश रच देती हैं। इन पंक्तियों में जीवन का एक बड़ा सच झाँक रहा है : ‘रेत का बना था घर, बार-बार टूटा/कच्चा रंग रिश्तों का बार-बार छूटा/आँगन से पनघट तक, काई ही काई/माटी का घट भरकर, बार-बार फूटा/अपना ही हवन करें और एक बार।’ समकालीन हिन्दी कविता (विशेषकर गीत-कविता) में प्रभा ठाकुर की ये रचनाएँ उन्हें विशिष्ट सिद्ध करती हैं। भाषा, छन्द, संरचना और स्वभाव की दृष्टि से ‘देहरी का मन’ एक प्रीतिकर और संग्रहणीय संग्रह है।
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