Suno Deepshalinee
Author:
Rabindranath ThakurPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 120
₹
150
Unavailable
रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीतों के वृहद् संकलन 'गीतवितान' से चुनकर इन गीतों का अनुवाद मूल बांग्ला से ही किया गया है। रवीन्द्रनाथ के गीतों में ग़ज़ब की संक्षिप्ति और प्रवहमानता है, और शब्दों से उत्पन्न होनेवाले संगीत की अनूठी उपलब्धि है। इस मामले में वे जयदेव और विद्यापति की परम्परा में ही आते हैं। इन अनुवादों में रवीन्द्रनाथ के गीतों के सुरों को, उनकी लयात्मक गति को, उनके संगीत-तत्त्व को सुरक्षित रखने का भरपूर प्रयत्न प्रयाग शुक्ल ने किया है। अचरज नहीं कि इन गीतों को अनुवाद में पढ़ते हुए भी हम उनके प्राण-तत्त्व से जितना अनुप्राणित होते हैं, उतना ही उनके गान-तत्त्व से भी होते हैं।</p>
<p>रवीन्द्रनाथ ने अपने गीतों को कुछ प्रमुख शीर्षकों में बाँटा है। यथा—‘प्रेम’, ‘पूजा’, ‘प्रकृति’, ‘विचित्र’, ‘स्वदेश’ आदि में, पर हर गीत के शीर्षक नहीं दिए हैं। यहाँ हर गीत की परिस्थिति के लिए उसका एक शीर्षक दे दिया गया है। प्रस्तुत गीतों में प्रेम, पूजा और प्रकृति-सम्बन्धी गीत ही अधिक है। प्रेम ही उनके गीतों का प्राण-तत्त्व है।</p>
<p>रवीन्द्रनाथ अपनी कविताओं और गीतों में भेद करते थे। उनका मानना था कि भले ही उनकी कविताएँ, नाटक, उपन्यास, कहानियाँ भुला दिए जाएँ, पर बंगाली समाज उनके गीतों को अवश्य गाएगा। वैसा ही हुआ भी है, और बंगाली समाज ही क्यों, उनके गीत दुनिया-भर में गूँजे हैं। हिन्दी में ‘गीतांजलि’ के अनुवादों को छोड़कर, उनके गीतों के अनुवाद कम ही उपलब्ध हैं। हमें भरोसा है कि इन चुने हुए गीतों का पाठक-समाज में स्वागत होगा।
ISBN: 9788126720378
Pages: 96
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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कविता की यात्रा में अकसर ही कुछ ऐसा होता है जो छूटता जाता है, उसी को समेटते-सहेजते हुए फिर एक और कवि आता है, और समकालीन रचनात्मकता के अधूरे परिदृश्य को पूरा करता है।
पंकज राग का यह संग्रह और उनकी कविताएँ यही काम करती दिखती हैं। न सिर्फ़ विषयों और शीर्षकों में, बल्कि भाषा के प्रयोग और बिम्बों-प्रतीकों के मुखौटों में भी वे उन चीज़ों और भंगिमाओं को पकड़ने की कोशिश करते हैं जो सिर्फ़ उनकी अपनी खोज हैं। “दिन बड़ा अजीब-सा गुज़रे/शाम बड़ी थकी-थकी-सी हो/भूख हो पर लगे नहीं/हरारत हो पर दिखे नहीं/बातें सतरंगी करो/यह भूमंडल की रात है।” संग्रह की पहली और शीर्षक-कविता की शुरुआती ये पंक्तियाँ कवि की विशिष्टता की भूमिका की तरह पाठक के मन में गड़ जाती हैं, जिसका निर्वाह यह संग्रह अन्त तक करता है।
पंकज राग की ये कविताएँ उन चिन्ताओं को तो देखती ही हैं जो आज हम सबके लिए निर्णायक विषय बनी हुई हैं, साथ ही वे उन पीड़ाओं को भी अनदेखा नहीं करतीं जो हमारे अतीत में गुज़री हैं और आज हमारी स्मृतियों में कसकती हैं। ‘दिल्ली : शहर-दर-शहर’ जो इस संग्रह की सबसे लम्बी कविता है, वर्तमान और अतीत का ऐसा ही महाआख्यान बुनती है, जिसमें कवि एक शहर की नियति के बहाने मनुष्य की ही नियति से दो-चार होता है। “तुम मुझे फ़ीरोज़ी बना दो/दिल्ली की उस मध्यवर्गीय लड़की ने अपने पास बैठे लड़के से कहा/कोटला फ़ीरोज़शाह के स्लेटी खँडहरों के बीच/उस लड़के का उत्तर फँस-सा गया/फिर इन दोनों की कहानी का कुछ नहीं हुआ/वैसे ही जैसे फ़ीरोज़ाबाद का भी कुछ न हो सका।”
अतीत से वर्तमान तक व्याप्त मनुष्य के अधूरेपन की निशानदेही करती ये कविताएँ निश्चित रूप से पाठकों के लिए एक अविस्मरणीय अनुभव साबित होंगी।
Chalo Shanti Ki Or
- Author Name:
Susheela Agrwal
- Book Type:

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Gada Tola
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Rahi Dumarchir
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- Description: पहले अन्दर मारी जाती है नदी/तब मिटता है नक़्शे से गाडा टोला। गाडा टोला यानी नदी टोला। राही डूमरचीर की ये कविताएँ नदी, पहाड़, जंगल और उनके साथ बसे मनुष्यों के विस्थापन, विलोप और निर्वासन से उपजे अफ़सोस और पीड़ा की कविताएँ हैं। कुछ ‘बनने’ के लिए या सिर्फ़ ‘जी सकने’ के लिए लोग अपनी ज़मीनों से उठकर शहरों की ओर निकल जाते हैं, पहाड़ उन्हें रास्ता देते हुए पीछे रह जाते हैं, नदियाँ भी, सखुआ के जंगल भी। राही अकसर इस विवशता की सबसे भीतरी कोर से अपनी कविता उठाते हैं। इसके लिए उन्होंने अपना एक खुला मुहावरा गढ़ा है, जो ख़बरों से भी कोई मार्मिक कविता निकाल लेता है, चिट्ठियों और संवादों से भी। इस तरह वह जीवन जस-का-तस सम्प्रेषित हो पाता है, जिसकी पीड़ा को कवि हम तक पहुँचाना चाहता है। ‘ऐदेल किस्कू’ और ‘हिम्बो कुजूर’ जैसी कई कविताएँ हैं, जो इसी प्रविधि से पंक्ति-दर-पंक्ति और सघन होती जाती हैं। ‘गीतों के आयोजन को तुम लोग सुरों का महासंग्राम कहते हो’—कहा रिमिल टुडू ने। राही जीवन के इस पहलू को भी देखते हैं जो जंगल से दूर सभ्यता के बीच गढ़ा जा रहा है, जहाँ ज्ञान किताबों में बन्द है, और किताबें अलमारियों में। सभ्यता की विडम्बनाओं को आईना दिखाते हुए, एक कवि के रूप में राही समय के, प्राकृतिक अवयवों के, पेड़ों, पत्तों, दूब, पानी, बच्चों और नदियों के मन से बतियाते हैं और हर हाल में उनके पक्ष में खड़े रहते हैं— अच्छा आप उसी गाँव के हैं न/जहाँ मन्दिर के किनारे नदी है देवघर के उस भले मानुष से कहा मैंने—जी नहीं/उस गाँव का हूँ/जहाँ नदी के किनारे मन्दिर है।
pratinidhi Kavitayein : Viren dangwal
- Author Name:
Viren Dangwal
- Book Type:

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वीरेन डंगवाल के यहाँ ख़तरा और प्यार, वस्तुतः एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्यार नष्ट हुआ है, क्योंकि ख़तरों से रूबरू होने की ताब नहीं बची : अब दरअसल सारे ख़तरे ख़त्म हो चुके/प्यार की तरह। इसलिए यह कहना अधूरा, बल्कि नुक़सानदेह आकलन होगा कि वीरेन प्रेम के कवि हैं। सच है कि प्रेम की आकांक्षा, वह भी सबकी ज़िन्दगी में उसे चरितार्थ होता देखने की आकांक्षा, सबके हित में उसका एहतिराम उनकी कविता की केन्द्रीय पुकार बन गया है और यह पुकार मार्मिक और सशक्त है, क्योंकि यह प्रेम के न होने की सचाई से वाक़िफ़ है : यह कौन नहीं चाहेगा उसको मिले प्यार! कविता की अनुगूँज में विलक्षण व्याप्ति है, जो इसे हमारे कठिन समय की पुकार में बदल देती है।
मगर यहाँ अभिलषित प्यार अपने रूप और मिज़ाज में उस प्रेम से भिन्न है, जो महज़ किसी स्त्री से संबोधित होने और उससे संसर्ग करने की उदग्र कामनाओं में ही व्यक्त हो पाता है। इस प्यार का अन्तरंग, इसकी दुनिया बड़ी है। अनगिनत भोली, सुन्दर, मासूम इच्छाओं का विफल रह जाना, किसी सपने का पूरा न हो सकना, किसी ख़ुशी का न मिल पाना—विराट् जन-जीवन के इस पराभव के पीछे आख़िर कौन-सी शक्तियाँ हैं? वीरेन डंगवाल की कविता इसके कारणों को जानना चाहती है, उन कारणों से लड़ना चाहती है : किसने आख़िर ऐसा समाज रच डाला है/जिसमें बस वही दमकता है, जो काला है?
—पंकज चतुर्वेदी
Sampoorn Kavitayein : Manglesh Dabral
- Author Name:
Mangalesh Dabral
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मंगलेश डबराल ने अपने अन्तिम दिनों के एक व्याख्यान में कहा था कि ‘यह समय ‘पोएटिक इज़ पॉलिटिकल’ का है। जो काव्यात्मक है, वह राजनीतिक है।’ भाषा को निरर्थक बनाए जाने की सर्वव्यापी कोशिशों के मद्देनज़र काव्यात्मकता को एक सक्रिय हस्तक्षेप की तरह देखते हुए वे शायद कह रहे थे कि वह कविता ही है जो भाषा को उसके मंतव्य वापस कर सकती है, उसे भरोसे के लायक बना सकती है। शब्द और उसके अर्थ को एक कर सकती है।
उनकी अपनी कविता हमेशा यह काम करती रही। उथले अनुभवों को जल्दबाजी में जुटाए गए वाक्यों में प्रस्तुत कर देने के बजाय उन्होंने भाषा की गुरुता को बरकरार रखते हुए उसका प्रयोग किया, उसे काव्यात्मकता दी और सावधानी से चुनी गई शब्दावली में अपने अनुभवों, अपनी उम्मीदों, अपने दुखों और स्मृतियों को अनुस्यूत किया। उनकी कविताएँ पहाड़ के निर्जन में बहती उस निर्मल जलधारा की तरह हैं जिसके पानी में सबकुछ साफ़-साफ़ दिखाई देता है, नीचे तली में पड़े सब पत्थर, एक-एक कण रेत।
लेकिन वह कविता निर्जन की नहीं है, पहाड़ से लेकर मैदानों, शहरों और घर से लेकर दुनिया तक फैला उनके सरोकारों का एक बड़ा संसार वहाँ ऐसी भाषा में अभिव्यक्त होता रहा जो अपनी संरचना में अनायास ही विश्वसनीय और पारदर्शी है, जो अपनी धीरता और दृढ़ता के साथ फौरन आपकी अपनी अभिव्यक्ति हो जाती है।
आज जब मूढ़ता और मूर्खता समाज और राजनीति के सर्वाधिक प्रकाशित और वाचाल घटक हो चले हैं, हमें एक ऐसी अन्तर्यात्रा की ज़रूरत है जो हमें इस दिशाहीन शोर के बीच अकंप रख सके। मंगलेश डबराल की कविताओं के साथ यह यात्रा की जा सकती है।
यह उनकी कविताओं की सम्पूर्ण प्रस्तुति है।
Aankhein
- Author Name:
Sara Shagufta
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पाकिस्तान में उर्दू की शायरात शायरी के मैदान में शायरों से कहीं आगे निकल गई हैं, जिसकी मिसाल दुनिया भर में किसी देशकाल में नहीं मिलेगी। उन शायरात में जो पोस्ट-मॉडर्न कहलाती हैं, उनमें सारा शगुफ़्ता, अज़रा अब्बास, किश्वर नाहीद, नसरीन अंजुम भट्टी, अनूपा, तनवीर अंजुम और शाइस्ता हबीब के नाम ज़्यादा नुमायाँ हैं। लेकिन सारा शगुफ़्ता इनमें सब से ऊपर हैं। ‘सुपर पोएटेस’ या ‘क्वीन ऑफ़ पोएटिक्स’ के तौर पर वह चमत्कार से कम नहीं। ...पढ़ने वाले मेरी राय से इत्तिफ़ाक़ करेंगे कि इतनी आला शायरी पश्चिम में भी नहीं हो रही। यह शायरी हालाँकि आज की पोस्ट-मॉडर्न रिवायत की तरह सुगठित नहीं लेकिन असर-अंगेज़ी में अपना जवाब नहीं रखती, और आला सतह की शायरी को भी कहीं पीछे छोड़ जाती है।
—मुबारक अहमद, आँखें (उर्दू) के फ़्लैप से
सारा जिस तरह की ज़िन्दगी गुज़ारती थी, ज़हनी सतह पर ख़ुद भी उसे पसंद नहीं करती थी। इसीलिए हमेशा अपराध-भाव से भरी रहती थी। उसकी शायरी में इसी अपराध-भाव की झलक नज़र आती है। ऐसी ज़िन्दगी को वह ख़ुद से चिमटाये हुए चलती थी... एक नज़्म में वह कहती है : मुझे रोटी दो, और फिर गाली दो।
—अतिया दाऊद, ‘सारा मेरी दोस्त’ से
...सारा शगुफ़्ता के नाम और उसकी शायरी को दूसरे समकालीन शायरों और उनकी रचनाओं के साथ ब्रैकेट नहीं किया जा सकता। यह तो ज़रूर है कि उसने ज़्यादातर नज़्में नस्री नज़्म के रूप में लिखीं लेकिन उसकी नस्री शायरी पिछले तीन दशकों (1960 के बाद) से अब तक की नस्री शायरी से बिलकुल अलग नज़र आती है। उसकी शब्दावली की बनावट बेमिसाल है। हम उसकी शायरी की विषय-वस्तु पर बात करें तो उसकी आँखें सब से अहम समयकाल—चरम-जीवन से चरम-मृत्यु तक फैली है। कम से कम भारतीय उपमहाद्वीप में सारा शगुफ़्ता के सिवा कोई ऐसी औरत नज़र नहीं आती जिसने शायरी और अदब के माध्यम से इस इन्तहा पर पहुँच कर सच—बल्कि नंगा सच—बोला हो।
—अहमद हमीश, मशहूर शायर और ‘आँखें’ (उर्दू) के प्रकाशक
Piramid Mein Ham
- Author Name:
Surendra Raghuvanshi
- Book Type:

- Description: Collection of Hindi Poems by Surendra Raghuvanshi
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