Samay Ka Hisab
Author:
Vandana DevendraPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 120
₹
150
Unavailable
जितना अचरज यह जानकर होता है कि पिछले क़रीब दो दशकों से लिखते रहने के बावजूद वंदना देवेन्द्र ने अब तक अपनी कोई भी रचना किसी पत्र-पत्रिका में नहीं दी है, उससे कहीं ज़्यादा अचम्भा उनकी इन कविताओं की गहराई, वैविध्य और विस्तार को देखकर होता है। मसलन हम पूछते रह जाते हैं कि जिस कवयित्री ने ‘छाते’ और ‘रँगे हाथ’ सरीखी मृदु, गीतात्मक रचनाएँ दी हों, वह ‘राक्षस पहले राक्षस थे’ या ‘धूमिल’ का स्मरण दिलानेवाली ‘उत्तर प्रदेश’ जैसी निर्मम, यथार्थवादी, राजनीतिपरक कविताएँ कैसे लिख सकी ? यदि ‘विजेता’ और ‘राजा था कन्नौज’ में वंदना इतिहास तथा सामन्ती मानसिकता को लेकर नए प्रश्न उठाती हैं तो ‘ताजमहल के बाद’ और ‘कोई चिल्लाता है’ में वे भारतीय और वृहत्तर मानव-इतिहास को एक विसंगति-भाव से देखती हैं, और ‘समय का हिसाब’ में वे इतिहास से भी आगे जाकर करोड़ों सूर्य, लाखों आकाश गंगाओं के बीच अपने कबाड़ के साथ हमारे प्रवेश की बात करती हैं और इससे पहले कि हम यह समझें कि वे ‘बड़े’ विषयों की महत्त्वाकांक्षी कवयित्री हैं, ‘रंग बिरंगे पाल’ और ‘कविता जैसा’ की उदास एकान्तिकता उनकी निजी संवेदनशीलता का परिचय दिलाती है।</p>
<p>वंदना एक (चर्चित) चित्रकार भी हैं और अपने इस फ़न का विनम्र, स्वाभाविक संकेत उन्होंने अपनी कुछ कविताओं में दिया भी है किन्तु हमारे लिए महत्त्वपूर्ण यह है कि शायद उनकी चित्रकार-प्रतिभा उन्हें भारतीय मानवीयता की विभिन्न रंगतों और सूक्ष्म तथा स्थूल रेखाओं को देखने में मदद करती है—या उनका कवि उनके चित्रकार के इस तरह काम आता हो, या दोनों ही वक़्त-ज़रूरत एक-दूसरे को प्रेरित करते हों। बहरहाल, नतीज़ा यह है कि उनकी कविता का कैनवस एक अद्भुत वैराट्य लिए हुए है और उसमें स्टिल लाइफ़, पोर्ट्रेट, व्यक्ति-समूह, लैंडस्केप (जो उनकी पर्यावरण-चेतना का हिस्सा है), पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, कीट-पतंग आदि सब-कुछ है। उनकी रचनाओं में यदि निजी, पराए और वृहत्तर सामाजिक दु:ख-तकलीफ़ों के गाढ़े रंग हैं तो छोटी-बड़ी ख़ुशियों, विसंगतियों, चुनौतियों, शरारत और व्यंग्य के शोख़-चटख़ वर्ण भी हैं।</p>
<p>शायद सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि वंदना देवेन्द्र की सृजनशीलता के मूल में एक ऐसी सामाजिक तथा नारी-प्रतिबद्धता है जो उन्हें एक अनूठी अस्मिता देती है। एक स्तर पर वे अमेरिकी राष्ट्रपति से भारतीय लुम्पेन राजनेताओं तक को, यानी भूमंडलीय से देशी राजनीति तक को, पहचानती हैं तो दूसरे स्तर पर वे स्त्री, पत्नी, माँ होने के अपने निजी अनुभव-संसार के साथ-साथ किसी लड़की, सहेली, फुलनियाँ, कम्मो आदि की जीवनियों को भी जानती हैं। नारी-प्रवृत्ति तथा औरत की आज़ादी पर आजकल बहुत-कुछ कहा लिखा जा रहा है लेकिन ‘रे फुलनियाँ भाज धरी’ जैसी लोकगीतनुमा कविता में वंदना ने एक असहाय विवाहिता का एक नया, चौंकानेवाला रूपान्तर प्रस्तुत किया है। फ़िरोज़ाबाद के चूड़ी बनानेवाले पर उनकी कविता ‘चूड़ियाँ’ हिन्दी के लिए एकदम नई है और दंगों में अपना जवान बेटा खो चुके बूढ़े मुस्लिम पर लिखी उनकी छोटी कविता ‘बेटा’ काव्य के उद्देश्य और असामर्थ्य को मार्मिकता से उभारती है।</p>
<p>‘कमल’, ‘बादशाह’, ‘सोचते हुए लोग’, ‘पेंटर’ आदि उनकी ऐसी रचनाएँ हैं जो अपनी दृष्टि और कला में हिन्दी के किन्हीं भी बेहतर कवि-कवयित्रियों के समकक्ष निस्संकोच रखी जा सकती हैं। कुछ अत्यन्त निजी अनुभवों और स्मृतियों पर चन्द ऐसी कविताएँ वंदना ने लिखी हैं जो उनके काव्य-विश्व को और जटिल तथा चुनौतीपूर्ण बनाती हैं। यह देखकर हैरत होती है कि उन्होंने यह सब एक ऐसी भाषा और शैली में उपलब्ध किया है जो अपनी सादगी में इतनी कारगर हैं कि उन्हें शब्दों या शिल्प के चमत्कार की ज़रूरत नहीं पड़ती। उनकी कविता में पश्चिमोत्तर उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक तथा संघर्षशील स्त्री-पुरुष-किशोर-बच्चे वैसे ही स्वाभाविक ढंग से मौजूद हैं जैसे कि वे वास्तविक भारतीय समाज में उपस्थित हैं। शिनाख़्त के लिए कह सकते हैं कि वंदना देवेन्द्र अनायास ही कात्यायनी, सविता सिंह, अनीता वर्मा, नीलेश रघुवंशी, अनामिका, निर्मला गर्ग जैसी प्रासंगिक कवयित्रियों में उल्लेख्य हो गई हैं जबकि सच यह है कि इन सबके साथ वे उस वृहत्तर सर्जक पीढ़ी में शामिल हैं जो रघुवीर सहाय के बाद हिन्दी कविता को अपूर्व विस्तार, वैविध्य और समृद्धि प्रदान कर रही हैं।</p>
<p>—विष्णु खरे
ISBN: 9788126705931
Pages: 144
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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रघुवीर सहाय की अनेक रचनाएँ आधुनिक कविता की स्थायी विभूति बन चुकी हैं; उनके नागर मन की भावप्रवणता, सूक्ष्मदर्शिता और तटस्थ निर्ममता अब नए परिचय की मोहताज नहीं। पर अभी यह पहचाना जाना शेष है कि सहज सौन्दर्य और सूक्ष्म अनुभूति से निर्मित रघुवीर सहाय का काव्य-संसार जितना निजी है, उतना ही हम सबका है—एक गहरे और अराजनीतिक अर्थ में जनवादी। सचमुच, ऐसे ही कवि को जनता से घृणा करने का अधिकार दिया जा सकता है।’’
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किसी ने कहा था कि दुनिया के मज़दूरो, एक हो जाओ—खोने के लिए तुम्हारे पास अपनी ज़ंजीरों के अलावा कुछ भी नहीं है। कुमार अंबुज की ‘ज़ंजीरें’ उन असंख्य साँकलों का ज़िक्र करती हैं जिनसे हमारा समूचा चिन्तन, सृजन तथा समाज बँधा हुआ है और उन्हें वन्दनीय मानने लगा है, हालाँकि कुछ लोग आख़िर ऐसे भी थे जो अपनी-अपनी आरियाँ लेकर उन्हें काटते थे और बार-बार कुछ आज़ाद जगहें बनाते थे। स्वयं कुमार अंबुज के कवि के लिए यह एक उपयुक्त रूपक है। उनकी कविताओं में कोई असम्भव, हास्यास्पद आशावाद या क्रान्तिकारिता नहीं है बल्कि ‘एक राजनीतिक प्रलाप’, ‘झूठ का संसार’ और ‘समाज यह’ जैसी रचनाओं में वे समसामयिक भारतीय स्थितियों के वस्तुनिष्ठ, निर्मम और लगभग निराश कर देनेवाले आकलन तक पहुँचते हैं, फिर भी करोड़ों लोग हैं जो जीवित रहने के रास्ते पर हैं जिनमें से कुछ को पूरी उम्र ज़ंजीरों को काटते ही जाना है। यह उस समाज की कविताएँ हैं जहाँ पाँच-तारा होटलों जैसे अस्पतालों में घुसा तक नहीं जा सकता, जिसमें आदमी को खड़े होने की जगह भी मयस्सर नहीं है। झूठ के रोज़गार ने इस समाज को ख़ुशहाल बना डाला है। अपनी श्रेष्ठता से इनकार करता हुआ कवि अपने प्रति भी इतना कठोर है कि जानता है कि इस सबमें हमारी भूमिका भी इस तरह एक-सी है कि हम अपने ही क़रीब ठीक अपने ही जैसा अभिनय देखकर चौंक उठते हैं। कुमार अंबुज की ऐसी कविताएँ हमारे आज तक के हालात का सीधा प्रसारण हैं जिसमें देखती हुई आँख कभी यथार्थ से बचती नहीं है। लेकिन हिन्दी कविता में देखा गया है कि राजनीति और समाज को समझने और अभिव्यक्त करनेवाली प्रतिभा भी सिर्फ़ उन्हीं तक सीमित हो जाती है और उन्हें भी एक अमूर्तन में ही देख-दिखा पाती है। कुमार अंबुज की साफ़निगाही एकस्तरीय और एकायामी नहीं है। उनकी इस तरह की और दूसरी कविताओं में कथ्य और अनुभवों का ऐसा विस्तार है जो आज की उत्कृष्ट कविता की पहली शर्त है। आज हिन्दी में बेहतरीन कविता लिखी जा रही है लेकिन उसमें भी जिन युवा कवियों ने अस्सी के दशक के बाद अपनी स्पष्ट अस्मिता अर्जित की है उनमें वही रोमांचक वैविध्य है जो कुमार अंबुज के यहाँ है। यदि कविता की निगाह व्यक्ति और समाज के सूक्ष्मतम पहलुओं तक नहीं जाती तो वह अन्ततः अधूरी ही कही जाएगी। जब कुमार अंबुज ‘जब दोस्त के पिता मरे’ जैसी कविता लाते हैं तो हमारे अनुभव के दायरे को बढ़ाते हैं। ‘सेल्समैन’ में शीर्षक का प्रयोग एक स्निग्ध विडम्बना को जन्म देता है। ‘आयुर्वेद’, ‘होम्योपैथी’, ‘माइग्रेन’ तथा ‘हारमोनियम की दुकान से’ सरीखी कविताएँ कुमार अंबुज की अद्वितीय दृष्टि और अप्रत्याशित जगहों में कविता खोज लेने की कूवत का प्रमाण हैं और आज की हिन्दी कविता को अनायास आगे ले जाती हैं। ‘छिपकलियों की स्मृति’ हमें अपने घरों, परिवारों और समाज में लौटाती है जबकि ‘जैसे मेरे ही शहर में’ एक अजनबी जगह में अपने क़स्बे को धीरे-धीरे पहचानने-पाने की प्रक्रिया है जिसके निजी और सामाजिक निहितार्थ अद्भुत हैं।
अस्तित्व के रहस्य पर चिन्तन हमारी परम्परा का एक मौलिक सरोकार रहा है लेकिन पता नहीं क्यों, इसे कुछ दशकों से हिन्दी कविता के लिए अस्पृश्य समझ लिया गया है। इसलिए जब कुमार अंबुज बिना किसी छद्म रहस्यवाद या अध्यात्म के ‘मैं क्या हूँ’ जैसी रचना लाते हैं जिसमें ‘मैं’ कभी एक पत्ता है, झुकी हुई मीनार, दु:ख का एक थक्का रक्त की तरह, काली मिट्टी का ढेला, अपने ही अचेतन का अनचीन्हा अटकता सुर, कोई पराजित जीवन अटका हुआ नैतिक वाक्य में, या एक संकल्प गिरता-पड़ता-उठता हुआ बार-बार, तो यह अज्ञेय के आत्मचिन्तन का नहीं, मुक्तिबोध और शमशेर के आत्मचिन्तन का प्रसार है और आज की हिन्दी कविता के एक परहेज़ को तोड़ना है। ‘सापेक्षता’, ‘सब शत्रु सब मित्र’, ‘धुंध’, ‘शाम’, ‘रात’, ‘चमक’, ‘चोट’, ‘अनुवाद’, ‘काल-बोध’ आदि कुमार अंबुज की ऐसी कविताएँ हैं जिनमें वे अपने नितान्त निजी अनुभवों, जायज़ों, आकलनों, संशयों, अवसादों और पराजयों तक गए हैं। उन्होंने धीरे-धीरे एक ऐसी भाषा और शिल्प अर्जित कर लिए हैं जिनमें नितान्त अनायासिता और किफ़ायतशारी से वे बहुत लगती हुई बातें कह डालते हैं। अंबुज की कुछ ही रचनाओं में आंशिक अचकचाहट, वह भी कविता को एक सम पर ले आने में ही, नज़र आती है वरना वर्णनात्मक या इतिवृत्तात्मक रचनाओं में भी वे विस्तार को निभा ले जाते हैं। कोई भी कवि हमेशा बेहतरीन कविताएँ नहीं दे पाता लेकिन कुमार अंबुज के यहाँ थोड़ी-सी ही कमतर रचना ढूँढ़ पाना कठिन है। ऐसा सजग आत्म-निरीक्षण हिन्दी में विरल है।
कुमार अंबुज की ये कविताएँ भारतीय राजनीति, भारतीय समाज और उसमें भारतीय व्यक्ति के साँसत-भरे वजूद की अभिव्यक्ति हैं। इनमें कोई आसान फ़ार्मूले, गुर या हल नहीं हैं—इनके केन्द्र में करुणा, फ़िक्र और लगाव हैं जिनसे हिन्दुस्तानी आदमी के पक्ष की कविता बनती है। साथ में यह भी है कि जनकातरता की वेदी पर संसार और अस्तित्व के बहुत-सारे पहलुओं और सवालों को बलिदान नहीं किया गया है—सब कुछ के बीच अपने निजीपन को, विशेषतः अपनी जागरूकता और उत्सुकता को, जीवन को अधिकाधिक जानने-समझने-जीने की अभिलाषा को बचाए रखने की एक सहज मानवीय कोशिश इनमें मौजूद है। कुमार अंबुज की ये कविताएँ हिन्दी कविता की ताक़त का सबूत हैं और इक्कीसवीं सदी में हिन्दी की उत्तरोत्तर प्रौढ़ता का पूर्व-संकेत हैं।
—विष्णु खरे
Prarthnaye Kuchh is Tarah se Karo
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- Description: मुकेश निर्विकार की कविताओं में एक जागृत प्रतिरोध के साथ-साथ असीम जिजीविषा प्रतिबिम्बित होती है जो कवि और उसकी कविताओं की शक्ति है। —अश्वघोष, ('निकट' पत्रिका से) मुकेश निर्विकार की कविताओं की विशेषता है कि वह दार्शनिक धरातल पर चीज़ों को देखते हैं, मगर उससे कविता में कहीं भी उलझाव नहीं आने देते। बल्कि, दर्शन विसंगतियों को संघनित कर देखने के काम आता है। उनकी कविताएँ गूढ़ यथार्थ को बहुत पारदर्शी ढंग से सामने लाती हैं। कविताएँ कभी सृष्टि के रहस्यों पर बातें करती हैं तो कभी रोटी की मुश्किलों पर। कवि पूरे जीवन-जगत का सीधा मुकाबला करता है। —मनोज कुमार झा, ('पाखी' पत्रिका से) 'हत्यारी सदी में जीवन की खोज' की कविताओं के ज़रिए कवि ने अंधेरों की पुनर्रचना करते हुए निरन्तर अराजक हो रहे समय के क्रूर-यथार्थ को उजागर किया है। समग्र रूप में सभी कविताएँ जीवन के उजास की कविताएँ हैं। इनमें सर्वत्र एक गहरी आशावादिता के युगबोध का 'अंडर-करेन्ट' है। कई कविताओं का कथ्य तो विचलित कर देने वाला है। विलक्षण काव्य-भाषा के ज़रिए कवि ने ढेरों मौलिक बिम्ब रचे हैं, जिनकी सतरंगी छवियाँ किसी पाठक को सहज ही सम्मोहित कर देती है। मानवीय सरोकारों से जुड़ी और उनके कोमल भावों को दीमक की तरह चाटती क्रूर विसंगतियों का कवि ने सहज ही चित्रण किया है। रोज़ी-रोटी की तलाश में भटकता कामगार हो या महानगरीय जीवन के संत्रास को भोगता आम आदमी, कवि की नज़र हर तरफ है। जनसत्ता कुछ लोग कविता में जीवन की तलाश करते हैं। कुछ लोग कविता में जीवन को ढूँढ़ लेते हैं। मुकेश निर्विकार ने जि़न्दगी को कविता में इस तरह उतारा है कि उनकी कविताएँ दोनों तरह के लोगों के काम आती है। सरल और सहज शब्दों के ज़रिये भी उनकी कविताओं में कटाक्ष का स्वर बुलन्द है। अमर उजाला
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