Ras Ki Laathi
Author:
Ashtbhuja ShuklaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 236
₹
295
Available
अष्टभुजा शुक्ल वर्तमान हिन्दी कविता के पेन्टहाउस से बाहर के कवि हैं जिनकी कविता का सीत-घाम देस के अन्दर के अहोरात्र से निर्धारित होता है, उस अहोरात्र के प्रतिपक्ष में तैयार किए गए उपकरणों से नहीं। उनका प्रकाश्यमान संग्रह ‘रस की लाठी’ भी उनके पूर्व प्रकाशित चार संग्रहों की तरह ही ऐसी ‘छोटी-छोटी बातों’ का बयान है जिनसे चाहे ‘अमेरिका के तलवों में गुदगुदी भी न हो किन्तु जो समूचे हिन्दुस्तान को रुलाने के लिए काफ़ी है।’ रस की इस लाठी में चोट और मिठास एक दूसरे से कोई मुरव्वत नहीं करते, किन्तु इस बेमुरव्वत वर्तमान में भी एक सुरंग मौजूद है जिसका मुहाना भूत और भविष्य को संज्ञाओं के एक दूसरे में मिथुनीकृत हो जाने से बताए जानेवाले कालखंड की ओर खुलता है जिसमें वसन्त अभियोग नहीं है और पंचम स्वर में मंगलगान की छूट होगी।</p>
<p>इस कालखंड की काव्य-सृष्टि में भूत का ठोस भरोसा सरसों और गेहूँ की उस पुष्टि-प्रक्रिया पर टिका है जिसे सारी यांत्रिकता के बाबजूद मिटूटी, पानी और वसन्त की उतनी ही ज़रूरत है जितनी हमेशा से रही है, और भविष्य का तरल आश्वासन उतना ही मुखर है जितनी स्कूल जाती हुई लड़की को साइकिल की घंटी या गोद में सो रहे बच्चे के सपने में किलकती हँसी होती है। ये कविताएँ उन आँखों की आँखनदेखी हैं जिनसे टपकते लहू ने उन्हें इतना नहीं धुँधलाया कि वे सूरज की ललाई न पहचान सकें। लेकिन भले ही कविता में इतनी ऊर्जा बचा रखने की दृढ़ता हो कि वह बुरे वक़्त की शबीह-साज़ी तक अपनी तूलिका को न समेट ले, डिस्टोपिया की ठिठुरन से सामना करने के लिए उँगलियों की लचक को कुछ अतिरिक्त ऊष्मा का ताप दिखाना ही पड़ता है। अष्टभुजा जी के पाठकों से यह बात छिपी न रहेगी कि उनकी कविता के जो अलंकार कभी दूर से झलक जाया करते थे, वे अब रीति बनकर उसकी धमनियों में दिपदिपा रहे हैं और उसकी कमनीयता अपनी काव्य-सृष्टि की ‘फ़लानी’ की उस ‘असेवित देहयष्टि’ की कमनीयता है जिसकी गढ़न में अगली पीढ़ी की जवानी तक पहुँचनेवाली प्रौढ़ता भी शामिल है।</p>
<p>अष्टभुजा जी की कविता का मुहावरा समय के साथ उस बढ़ते हुए बोझ को सँभालने की ताक़त और पुख़्तगी अपने भीतर सहेजता रहा है जिसके तले आज की हिन्दी कविता के अधिकतर ढाँचे उठने के पहले ही भरभरा पड़ते हैं। जो लोग उनकी कविता से पहली बार इस संग्रह के नाते ही दो-चार होंगे, उन्हें भी उसकी उस रमणीयता का आभास होगा जो अपने को निरन्तर पुनर्नवीकृत करती रहती है और जिसके नाते उसके अस्वादकों को उसका प्रत्येक साक्षात्कार एक आविष्कार लगता है। </p>
<p>—वागीश शुक्ल
ISBN: 9789388933520
Pages: 119
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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