Pratinidhi Kavitayen : Gajanan Madhav Muktibodh
Author:
Gajanan Madhav MuktibodhPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 120
₹
150
Available
मुक्तिबोध की कविता अपने समय का जीवित इतिहास है : वैसे ही, जैसे अपने समय में कबीर, तुलसी और निराला की कविता। हमारे समय का यथार्थ उनकी कविता में पूरे कलात्मक सन्तुलन के साथ मौजूद है। उनकी कल्पना वर्तमान से सीधे टकराती है, जिसे हम फन्तासी की शक्ल में देखते हैं। नई कविता की पायेदार पहचान बनकर भी उनकी कविता उससे आगे निकल जाती है, क्योंकि समकालीन जीवन के हॉरर की तीव्रतम अभिव्यक्ति के बावजूद वह एक गहरे आत्मविश्वास की उपज है। चीज़ों को वे मार्क्सवादी नज़रिए से देखते हैं, इसीलिए उनकी कविताएँ सामाजिक यथार्थ के परस्पर गुम्फित तत्त्वों और उनके गतिशील यथार्थ की पहचान कराने में समर्थ हैं। वे आज की तमाम अमानवीयता</p>
<p>के विरुद्ध मनुष्य की अन्तिम विजय का भरोसा दिलाती हैं। इस संग्रह में, जिसे मुक्तिबोध और उनके साहित्यिक अवदान की गहरी पहचान रखनेवाले सुपरिचित कवि, समीक्षक <br>श्री अशोक वाजपेयी ने संकलित-सम्पादित किया है, उनकी प्रायः वे सभी कविताएँ संगृहीत हैं, जिनके लिए वे बहुचर्चित हुए हैं, और जो प्रगतिशील हिन्दी कविता की पुख़्ता पहचान बनी हुई है।
ISBN: 9788126704255
Pages: 186
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Khule Mein Aawas
- Author Name:
Kamlesh
- Book Type:

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Description:
हिन्दी साहित्य की निरन्तर बढ़ती स्मृति-क्षीणता के चलते अगर कइयों को कमलेश नाम
से कुछ ख़ास याद नहीं आएगा तो इसमें अचरज नहीं होना चाहिए। स्वयं कमलेश को नहीं होगा, क्योंकि पिछले बीस-पच्चीस बरसों से वे कम लिखते, बहुत कम छपाते और साहित्य के दृश्य और आयोजनों से दूर रहे हैं। लेकिन इससे यह बात मिट नहीं जाती कि वे हमारी पीढ़ी और उसके तुरत बाद की पीढ़ी के गाथा-पुरुष रहे हैं। तब की युवा कविता पर एक आलोचक की तरह पहली क़लम मैंने कमलेश और धूमिल की कविता पर ही चलाई थी और उन्हें ‘तलाश के दो मुहावरे’ कहा था।
कमलेश ने कम लिखा और जितना लिखा उसे मुनासिब सख़्ती से ख़ुद जाँचा और उसका कम ही सार्वजनिक किया। उनके यहाँ ऐन्द्रियता और सामासिक स्मृति का जो संगुम्फन है, वह हममें से कई के लिए ईर्ष्या का विषय रहा है।... अपने व्यक्तित्व और रचना के प्रति भयावह और बेहद दिखाऊ आत्मरति के इस युग में कमलेश हमेशा कुछ कहते कम, बुदबुदाते अधिक रहे हैं। उनके यहाँ कम ही अधिक है। उनकी कविता बासी नहीं हुई है, दशकों पहले की होने के बावजूद और बावजूद इधर कविता के व्यापक अख़बारीकरण के। उनके यहाँ जो अनुगूँजें हैं, उनकी कविता में जो अन्तर्ध्वनियाँ हैं, वे आज भी हम जैसे सुनकर अभिभूत होते हैं और वे अक्सर अन्यत्र सुनाई नहीं देतीं।
—अशोक वाजपेयी; ‘जनसत्ता’; 05 अगस्त, 2007
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