Paaji Nazmein
Author:
GulzarPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
ये गुलज़ार की नज़्मों का मजमूआ है जिससे हमें एक थोड़े अलग मिज़ाज के गुलज़ार को जानने का मौ$का मिलता है। बहैसियत गीतकार उन्होंने रूमान और ज़ुबान के जिस जादू से हमें नवाज़ा है, उससे भी अलग। ये नज़्में सीधे सवाल न करते हुए भी हमारे सामने सवाल छोड़ती हैं, ऐसे सवाल जिन्हें कोई ऐसा ही श$ख्स पूछ सकता है जिसे दुनिया का बहुरंगी तिलस्म अपने बस में न कर पाया हो। इन नज़्मों में $गुस्सा भी है, अपने आसपास की दुनिया के मामूलीपन से को$फ्त भी इन्हें होती है, कहीं वे अपने आसपास के लोगों की क्षुद्रताओं पर उन्हें चिकोटी काटकर मुस्कुराने लगती हैं, कहीं हल्का-सा तंज़ करके उन्हें उनकी ओढ़ी हुई ऊँचाइयों में छोटा कर देती हैं। यहाँ तक कि वे ईश्वर को भी नहीं ब$ख्शतीं। उसको कहती हैं कि ये तुम्हारे भक्त तुम्हारे ऊपर तेल भी डालते हैं और शहद भी, कितनी चिपचिपाहट होती होगी! अगर सब कुछ देख रहे तो एक बार घी से उठे धुएँ पर ज़रा छींक कर ही दिखा दो। लेकिन फिर उन्हें महसूस होता है कि दुनिया-भर की नज़्मों को जितनी ज़ुबानें आती हैं, उनमें से कोई भी उस सर्वशक्तिमान की समझ में नहीं अँटती—‘न वो गर्दन हिलाता है, न वो हँकारा भरता है’। इसलिए गुलज़ार चाँद की त$ख्ती पर $गालिब का एक शे’र लिख देते हैं कि शायद वो $फरिश्तों ही से पढ़वा ले, कि इंसान को उसकी इंसानियत में छोटा बनानेवाले वे $खुदा के चहेते ही शायद पढक़र उसे सुना दें, लेकिन अ$फसोस कि बजाय इसके वह उसे या तो धो देता है या कुतर के फाँक जाता है, यानी वो <br>‘$खुदा अपना’ शायद पढ़ा-लिखा भी नहीं है, अगर होता तो कम-से-कम <br>चिट्ठी-पत्री तो कुछ करता!<br>ता$कत के सबसे ऊँचे मचान पर इससे बड़ी चोट और क्या होगी!<br>गुलज़ार की ये नज़्में बड़बोली नहीं हैं, न अपनी $कद-काठी में और न अपनी ज़ुबान में। लेकिन वे हमें बड़बोलों की एक एंटी-थीसिस देती हैं। वे बड़ी समझदारी के साथ हमें यह हिम्मत जुटाने की दावत देती हैं कि मोबाइल की ठहरी हुई इस दुनिया में ‘पर्तिपाल’ नाम के आदमी की बरतरी को ‘पाली’ नाम के कुत्ते की कमतरी के साथ रखकर तौला जा सकता है।
ISBN: 9788183618700
Pages: 88
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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