Kya-Kya Toot Gaya Bheetar
Author:
Manoj Kumar SharmaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 396
₹
495
Available
जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं, विचारों, अपनी विवशता और व्यवस्था की अच्छी-बुरी चीज़ों को आधार बनाकर लिखी गई कविताओं का संग्रह है—‘क्या-क्या टूट गया भीतर’। कवि मनोज कुमार शर्मा ने सामाजिक टूटन की अन्तर्व्यथा को बड़ी सादगी से दर्ज किया है इन कविताओं में।</p>
<p>इनकी प्रतिभा इनके ‘अढ़ाये’ में परिलक्षित होती है जिसमें दो-टूक शब्दों में इन्होंने सामाजिक विद्रूपताओं और विडम्बनाओं पर व्यंग्य किया है। पाठक स्वयं पढ़कर इस बात का अन्दाज़ा लगा सकते हैं। निश्चय ही यह कविता-संग्रह पठनीय और संग्रहणीय कृति है।
ISBN: 9788171199983
Pages: 104
Avg Reading Time: 3 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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वे अल्फ़ाज़ के दो कुनबों को जोड़ के ज़बान का एक नया ख़ानदान बना देते हैं, वे इमेजिन करते हैं तो धरती आसमान के और हवाएँ पानियों के आँगनों से घूम-टहल आते हैं...वे जब मुहब्बत की तरफ़ देखते हैं तो रूह धूप बनकर जिस्म को ढाँप लेती है और जिस्म के खुरदरे कोने पाकीज़ा मुलायमियत में पिघलने लगते हैं और जब समाजी मसायल की तरफ़, मुल्क और मुल्क की ख़लक़त की तरफ़ देखते हैं, रिश्तों और दिलों की कशमकश को, बेचैनी को देखते हैं तो उनके बोल हमारे लिए हमारी अपनी बात बन जाते हैं।
गुलज़ार ने फ़िल्मों के लिए गीत लिखे, अभी भी लिख रहे हैं, लेकिन उनके गीत कभी दी हुई सिचुएशन तक सीमित नहीं रहे, उन्होंने सिचुएशन को एक अलग वुसूअत दी, नये मायने दिये, गहराई दी। उनके गीत, उनके अल्फ़ाज़ चीज़ों को देखने और ज़बान को इस्तेमाल करने की हमारी आदतों को बदल देते हैं, वही हमारे जाने-पहचाने अल्फ़ाज़ जब उनके तख़य्युल में नई तरतीब पाते हैं तो हमारे दिल की पुरानी बोसीदा स्लेटें भी सरककर नए सिरे से ताज़ा हो जाती हैं।
‘गुनगुनाइए...’ उनके गीतों का मजमूआ है। इसमें अलग-अलग मिज़ाज के गीतों को अलग-अलग उनवान के तहत इकट्ठा किया गया है ताकि पढ़नेवाले उनकी पूरी तासीर को महसूस कर सकें। एक बात और, जब हम गीतों को सुनते हैं तो अकसर कई सारे बोलों से महरूम रह जाते हैं; यहाँ वह बात नहीं; यहाँ ये गीत अपनी तमाम पोएटिक ख़ूबियों के साथ आपके सामने हैं।
तो आइए, गुनगुनाइए!
Aasha Balwati Hai Rajan
- Author Name:
Nand Chaturvedi
- Book Type:

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Description:
नन्द चतुर्वेदी हिन्दी के उन विरल कवियों में हैं जिन्होंने अपनी कविता को अपने जीवन-कर्म से जोड़कर सार्थक बनाया है। वे चिन्तन के स्तर पर समाजवादी रहे तथा उन्होंने अपने कवि-कर्म को समाज में व्याप्त ग़ैरबराबरी को मिटाने के लिए समर्पित किया। उनकी सम्पूर्ण कविता तथा इतर लेखन सामान्य जन के बेहतर जीवनयापन के प्रति एक ईमानदार आह्वान है। उनके कवि की मूल चिन्ता उस जन को सम्बोधित है जो सदियों से सामन्तवादी, पूँजीवादी और उपनिवेशवादी शोषण का शिकार रहा है। पर नन्द बाबू की देशज संवेदना ने अपनी कविताओं में इस जन की पीड़ाओं को ऐसी तीव्र अभिव्यक्ति दी है कि उनकी कविता पाठकों को उद्वेलित करती रही है। उन्होंने कविता की भाषा उसी आदमी से ग्रहण की है जो उनके कवि-कर्म का उपजीव्य है। वे अपनी कविता को अमूर्त बिम्बों की सरणि या मिथकीय घटाटोप से नहीं लादते, प्रत्युत सीधी-सादी ज़बान में कह देते हैं। लेकिन वे अपनी कविता को सीधे सपाटपन से भी बचाते हैं और सामान्य जीवन से कविता के औज़ार तलाशते हैं। परिणामस्वरूप उनकी कविता लोकधर्मिता से अलंकृत होती है। वे कबीर की परम्परा के कवि हैं जिनकी कविता जितनी सरल लगती है, उतनी ही विविध अर्थछवियों से सज्जित। नन्द बाबू की कविता का उत्स जनचेतना है तो उसका प्रवाह नैसर्गिक झरने की धारा की तरह है। किन्तु यह झरना पाठक को शीतलता प्रदान कर सुलाता नहीं, बल्कि अपनी कलकल ध्वनि से पाठक को उद्वेलित कर जनपक्षधर बनाता है। उनकी कविता में जो ताप है, वह उसे अग्निधर्मा बनाती है। यह ताप नन्द बाबू आमजन की पीड़ा से प्रसूत अश्रुओं से ग्रहण करते हैं। यही ऊष्मा उनकी कविता का मूल चरित्र है।
—हेतु भारद्वाज
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