Deepshikha
Author:
Mahadevi VermaPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 159.2
₹
199
Available
दीप-शिखा में मेरी कुछ ऐसी रचनाएँ संगृहीत हैं जिन्हें मैंने रंगरेखा की धुंधली पृष्ठभूमि देने का प्रयास किया है! सभी रचनाओं को ऐसी पीठिका देना न संभव होता है और न रुचिकर, अतः रचनाक्रम की दृष्टि से यह चित्रगीत बहुत बिखरे हुए ही रहेंगे! मेरे गीत अध्यात्म के अमूर्त आकाश के नीचे लोक-गीतों की धरती पर पीला हैं!
ISBN: 9788180313073
Pages: 121
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: वरिष्ठ कवि गंगेश गुंजनक 'अन्हार मे डमरू' घुप्प अन्हरियाक विरुद्ध इजोत तकबाक विलक्षण काव्य-प्रयासक नाम थिक। सम्पूर्ण सम्भावनाक संग कविक दायित्व-बोध आ काव्य-विवेकक मणिकांचन सहकार संग्रहक वैशिष्ट्य। 'धानक शीश जकाँ फुटैत' जाग्रत कविताक 'बगूचा' अछि—'अन्हार मे डमरू'। चमत्कृत करैत कविताक रेंज आ कविक निजी काव्य-भाषाक सौंदर्य कविता केँ नव सृजनशीलता सँ भरि दैछ। मिथिलाक संस्कृति सँ अथाह अनुराग आ रूढ़ अपसंस्कृतिक प्रति घोर चिंताक अंतर्द्वंद्व सँ बनैत कविता विमर्शक लेल पाठक केँ सहजहि हकारैत अछि। 'प्रथम चुम्बनक कृतज्ञता' आ 'दोसर चुम्बनक कृतघ्नता' सँ ल' क' 'कुसियारक पर्याय बनैत स्त्रीक जीवन-कथा', 'धुआँइन ढेकार जकाँ सुन्न दालन पर' 'पुरना मिथिलाक्षरक पाण्डुलिपि जकाँ' पड़ल लोकतंत्रक ठठरी, दिल्ली नगरक त्रासद तामस, जबियाअल मनुक्खक सामने अकादारुन बजार वा 'यात्रीजीक एक कंठ मे सय-पचास लाखक प्रतिध्वनि'; ई सभ टा स्वर समवेत रूपेँ 'अन्हार मे डमरू:क परिसर मे भेटि जैत। बहुस्वरता, विषय-बहुलता आ कथन-भंगीक विविधता संग्रहक नवीनता थिक। प्रतीक, बिंब सँ सुसज्जित एक टा पारदर्शी महीन काव्य-आवरण कविता केँ कुहेसगर नहि बना जीवन-जगतक अलक्षित समय केँ दर्शबैत अछि। गुंजनजीक कविताक संवादधर्मिता हुनक कविता केँ सहज बोधगम्य तँ बनबैत अछि, मुदा ई सहजता सरलता नहि अपितु विषय-वस्तुक समग्रता आ जटिलता केँ सरलता सँ बुझबाक काव्य-युक्ति अछि। —कमलानंद झा
Khatam Nahin Hote Baat
- Author Name:
Bodhisatwa
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Description:
जीने का सहजबोध और उसको सहारती–सँभालती दुधमुँही कोंपलों–सी कुछ यादें, कुछ कचोटें, कुछ लालसाएँ और कुछ शिकायतें। बोधिसत्व की ये कविताएँ समष्टि–मानस की इन्हीं साझी ज़मीनों से शुरू होती हैं, और बहुत शोर न मचाते हुए, बेकली का एक मासूम–सा बीज हमारे भीतर अँकुराने के लिए छोड़ जाती हैं। इन कविताओं की हरकतों से जो दुनिया बनती है, वह समाज के उस छोटे आदमी की दुनिया है जिसके बारे में ये पंक्तियाँ हैं : ‘‘माफ़ी माँगने पर भी/माफ़ नहीं कर पाता हूँ/छोटे–छोटे दु:खों से/उबर नहीं पाता हूँ/पावभर दूध बिगड़ने पर/कई दिन फटा रहता है मन/कमीज़ पर नन्ही–सी खरोंच/देह के घाव से ज़्यादा देती है दु:ख।’’ (छोटा आदमी)
छोटे आदमी की यह दुनिया जिस पर आज क़िस्म–क़िस्म की बड़ी चीज़ें और दुनियाएँ निशाना साध रही हैं, अगर सुरक्षित है, और रहेगी, तो उन्हीं कुछ छोटी चीज़ों के सहारे जिन्हें बोधिसत्व की ये कविताएँ रेखांकित कर रही हैं। मसलन साथ पढ़ी मुहल्ले की उन लड़कियों की याद जिनके बारे में अब कोई ख़बर नहीं (‘हाल–चाल’); गाँव के वे बेनाम–बेचेहरा लोग जिनके सुरक्षित साये में बचपन बीता, और आज महानगर की भूल–भुलैया में जिनकी फिर से ज़रूरत है (‘मैं खो गया हूँ’); अपने घावों में सबको पनाह देनेवाली उस आवारा लड़की का प्यार जिसके अपने पास कोई जगह कहीं नहीं (‘कोई जगह’)। और ऐसी ही अन्य तमाम चीज़ें जो हम साधारण जनों के संसार को हरा–भरा रखती हैं, इन कविताओं के माध्यम से हम तक पहुँच रही हैं।
‘लालच’ शीर्षक कविता में व्यक्त इस छोटे आदमी की नग्न लालसा हिन्दी कविता को एक नया प्रस्थान बिन्दु देती प्रतीत होती है। लग रहा है कि थोड़ी हिचक के साथ ही, लेकिन अब वह उन सुखों में अपनी भी हिस्सेदारी चाहता है, जिनका उपभोग बाक़ी पूरा समाज इतने निर्लज्ज अधिकारबोध के साथ कर रहा है। ‘ख़त्म नहीं होती बात’ के रूप में कविता–प्रेमियों के सम्मुख यह ऐसी कविता–पुस्तक है जो काव्य–प्रयोगों के लिए नहीं अपने भाव–सातत्य और वैचारिक नैरन्तर्य के लिए महत्त्वपूर्ण है।
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