Apna Sa Koi Naam
Author:
Vinod Kumar ChaudharyPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 160
₹
200
Unavailable
साम्प्रदायिक सद्भाव, अध्यात्म, प्रकृति, धर्म, दर्शन के विभिन्न रूपों-रंगों को बिखेरती ये कविताएँ एक इन्द्रधनुष बनाती हैं।</p>
<p>सामान्य-सी दिखनेवाली ये कविताएँ गहन, गूढ़ अर्थ रखती हैं और पाठक को संवेदना, चिन्तन का दोहरा आस्वाद देती हैं।</p>
<p>कवि विनोद कुमार चौधरी ने इन कविताओं को लोकभाषा का सौन्दर्य प्रदान कर उस गौरवशाली परम्परा और काव्य-शैली को प्रतिष्ठापित किया है। जिसमें हर शब्द के बहुआयामी अर्थ होते हैं और जो लोगों के साथ वस्तुओं और वनस्पतियों को भी गरिमा, गौरव और सम्मान प्रदान करती है।</p>
<p>कवि नदी की ‘आत्मा’ के प्रति समर्पण भावना प्रदर्शित करते हुए प्रार्थना कर उसका अभिवादन करता है। उसकी श्रेष्ठता हमारे मानस में जगाता है और जन्म-भूमि की स्मृतियों को आभा-दीप्त करते हुए बताता है कि स्मृतियाँ हमारी धरोहर हैं, जो मन-आत्मा को सन्तोष प्रदान कर जीवन को प्रवहमान बनाती हैं।</p>
<p>अतीत और वर्तमान के बीच गहन रिश्ता बनाती ये कविताएँ हर वर्ग, हर आयु के पाठकों का ध्यान आकर्षित करने में सक्षम हैं।
ISBN: 9788126720187
Pages: 144
Avg Reading Time: 5 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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लीलाधर जगूड़ी की कविता की यह भी विशेषता है कि वे अनुभव की व्यथा और घटनाओं की आत्मकथा इस तरह पाठक के सामने रखते हैं कि उनका यह कथन सही लगने लगता है कि—‘कविता का जन्म ही कथा कहने के लिए और भाषा में जीवन-नाट्य रचने के लिए हुआ है।’ वे अक्सर कहते हैं कि ‘कविता जैसी कविता से बचो।’ 24 वर्ष की उम्र में उनका पहला कविता-संग्रह आ गया था। 1960 से यानी कि 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध से 21वीं सदी के दूसरे दशक बाद भी उनकी कविता का गद्य समकालीन साहित्य की दुनिया में किसी न किसी नए संस्पर्श के लिए प्रतीक्षित है और पढ़ा जाता है। उनके कविता-संग्रहों के प्राय: नए संस्करण आते रहते हैं। कविता न बिकने और न पढ़े जाने के बदनाम काल में बिना किसी आत्मप्रचार के लीलाधर जगूड़ी की कविताएँ अपने पाठकों का निर्माण करती चलती हैं। वे अपनी कविता की मोहर बनाकर बार–बार एक जैसी कविताओं से उबाते नहीं हैं। वे पहले की तरह आज भी प्रयोग और प्रगति के पक्षधर हैं। लीलाधर जगूड़ी की कविताओं में विषय–वस्तुओं का जो अद्वितीय चयन और प्रस्तुतीकरण होता है, वह अपनी ही उक्ति के अनुसरण से लगातार बचते रहने की सजग कोशिश के कारण भी आकर्षित करता है। इनकी कविताओं की निरन्तर परिवर्तनशील पद्धति समीक्षा और आलोचना को भी अपना स्वभाव बदलने के लिए प्रेरित करती है। इनकी कविता के ज़मीन–आसमान कुछ अलग ही रंग के हैं।
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‘अपने जैसा जीवन’ एक नई तरह की कविता के जन्म की सूचना देता है। यह ऐसी कविता है जो मनुष्य के बाहरी और आन्तरिक संसार की अज्ञात–अपरिचित मनोभूमियों तक पहुँचने का जोखिम उठाती है और अनुभव के ऐसे ब्योरे या संवेदना के ऐसे बिम्ब देख लेती है, जिन्हें इससे पहले शायद बहुत कम पहचाना गया है। सविता सिंह ऐसे अनुभवों का पीछा करती हैं जो कम प्रत्यक्ष हैं, अनेक बार अदृश्य रहते हैं, कभी–कभी सिर्फ़’ अपना अँधेरा फेंकते हैं और ‘न कुछ’ जैसे लगते हैं। इस ‘न कुछ’ में से ‘बहुत कुछ’ रचती इस कविता के पीछे एक बौद्धिक तैयारी है, लेकिन वह स्वत:स्फूर्त ढंग से व्यक्त होती है और पिकासो की एक प्रसिद्ध उक्ति की याद दिलाती है कि कला ‘खोजने’ से ज़्यादा ‘पाने’ पर निर्भर है। प्रकृति के विलक्षण कार्यकलाप की तरह अनस्तित्व में अस्तित्व को सम्भव करने का एक सहज यत्न इन कविताओं का आधार है।
ऐसी कविता शायद एक स्त्री ही लिख सकती है। लेकिन सविता की कविताओं में प्रचलित ‘नारीवाद’ से अधिक प्रगतिशील अर्थों का वह ‘नारीत्व’ है जो दासता का घोर विरोधी है और स्त्री की मुक्ति का और भी गहरा पक्षधर है। इस संग्रह की अनेक कविताएँ स्त्री के ‘स्वायत्त’ और ‘पूर्णतया अपने’ संसार की मूल्य–चेतना को इस विश्वास के साथ अभिव्यक्त करती हैं कि मुक्ति की पहचान का कोई अन्त नहीं है। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि सविता की ज़्यादातर कविताएँ स्त्रियों पर ही हैं और वे स्त्रियाँ जब देशी–विदेशी चरित्रों और नामों के रूप में आती हैं तब अपने दु:ख या विडम्बना के ज़रिए अपनी मुक्ति की कोशिश को मूर्त्त कर रही होती हैं। उनका रुदन भी एकान्तिक आत्मालाप की तरह शुरू होता हुआ सार्वजनिक वक्तव्य की शक्ल ले लेता है। सविता सिंह लगातार स्मृति को कल्पना में और कल्पना को स्मृति में बदलती चलती हैं। यह आवाजाही उनके काव्य–विवेक की भी रचना करती है, जहाँ यथार्थ की पहचान और बौद्धिक समझ कविता को वायवीय और एकालापी होने से बचाती है। मानवीय संवेगों को बौद्धिक तर्क के संसार में पहचानने का यह उपक्रम सविता की रचनात्मकता का अपना विशिष्ट गुण है। इस आश्चर्यलोक में कविता बार–बार अपने में से प्रकट होती है, अपने भीतर से ही अपने को उपजाती रहती है और अपने को नया करती चलती है।
Khoontiyon Per Tange Log
- Author Name:
Sarveshwardayal Saxena
- Book Type:

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‘खूँटियों पर टँगे लोग’ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का सातवाँ काव्य-संग्रह है, जिसमें शामिल अधिकतर कविताएँ 1976-1981 के बीच लिखी गई थीं। इन कविताओं में नियति और स्थिति को स्वीकार कर लेने की व्यापक पीड़ा है। यह पीड़ा कवि के आत्म से शुरू होकर समाज तक जाती है और फिर समाज से कवि के आत्म तक आती है और इस तरह कवि और समाज को पृथक् न कर, एक करती हुई उसके काव्य-व्यक्तित्व को विराट कर जाती है।
सम्प्रेषण की सहजता सर्वेश्वर की कविताओं का मुख्य गुण रहा है और इसकी कलात्मक साध इस संग्रह में और निखरी है। एक समर्थ कवि के स्पर्श से चीज़ें वह नहीं रह जातीं जो हैं—कोट, दस्ताने, स्वेटर सब-के-सब युग की चुनौतियों से टकराकर क्रान्ति, विद्रोह और विरोध से जुड़ जाते हैं। प्रतीकों और बिम्बों का ऐसा सहज इस्तेमाल दुर्लभ है। सर्वेश्वर का काव्य-संसार बहुत व्यापक है। इतना व्यापक संवेदन-क्षेत्र वह रचते हैं कि उनके एक कवि में अनेक कवि देखे जा सकते हैं और सभी सर्वेश्वर हैं। उनकी काव्य-भाषा लोक से आकर इस तरह सम्भ्रान्त भाषा में मिल जाती है कि एक का खुरदरापन और दूसरे का चिकनापन अलग-अलग पहचान पाना कठिन हो जाता है।
वस्तुतः ‘खूँटियों पर टँगे लोग’ की कविताएँ सर्वेश्वर की काव्य-भाषा को और आगे बढ़ाती हैं तथा समकालीन हिन्दी काव्य को भी, जिसका चरित्र मूल्यों के अभाव और व्यवस्था के दबाव में तेज़ी से बदल रहा है। यह बदलाव, बिना किसी अतिरिक्त आग्रह के, सर्वेश्वर के इस संग्रह में आसानी से देखा जा सकता है।
Ye Kisase Bolata Hoon
- Author Name:
Lakshman Prasad Gupta
- Book Type:

- Description: लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता की ग़ज़लों में न तो अतिशय भावुकता है और न ही अतिरंजित क्रांतिकारिता। वे सहज अभिव्यक्ति के शाइर हैं। उनकी शाइरी में जीवनानुभवों की विविधता भी है और संवेदना की गम्भीरता भी। वे अपने इर्द-गिर्द के जीवन को देखते हैं और उसे शेर में ढालते हैं। इसीलिए इस सवाल का जवाब ढूँढ़ना लाजिमी है कि आख़िर उनकी ये ग़ज़लें किसकी ख़ातिर है? जाहिर है कि लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता की ग़ज़लें न तो विशुद्ध बुद्धिजीवियों के लिए हैं और न ही बगैर कुछ समझे-बूझे 'वाह-वाह' करने वाले मजमे के लिए। उनकी ग़ज़लें तो ऐसे लोगों के लिए हैं जो अपने समय और समाज की हक़ीक़त से वाक़िफ़ हों। न सिर्फ़ वाक़िफ़ हों बल्कि उद्वेलित भी। - अब्दुल बिस्मिल्लाह लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता की ग़ज़लों की आर्ट गैलरी से गुज़रते हुए बड़ी शिद्दत से ये एहसास होता है कि उन्होंने अपनी ग़ज़लों को पहले पूरी ईमानदारी से जिया है फिर उन्हें कैनवस पर उतारा है, साथ ही अपने अनुभव की तूलिका से ज़िन्दगी के विभिन्न पहलुओं को उकेरने की कामयाब कोशिश की है। लक्ष्मण की ग़ज़लों की लय मध्यम, गुफ़्तगू का अन्दाज़ नर्म और सोच में पवित्रता है। उनकी ग़ज़लों में पामाल होते इंसानी रिश्तों का दर्द, एक-दूसरे के प्रति बढ़ती संवेदनहीनता का दुख, तथाकथित तरक्की के पीछे अंधाधुंध भागने के क्रम में आपसी प्रेम, सौहार्द, भाईचारा से दूर होते जाने का ग़म, सर से पाँव तक स्वार्थ में डूबी राजनीति के प्रति मन में क्षोभ तथा सारे संसार को प्रेम के सूत्र में बाँध देने की छटपटाहट भी है। - हातिम जावेद
Prem Paglya
- Author Name:
Narhari Patel
- Book Type:

- Description: Book
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