Anantim
Author:
Kumar AmbujPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Poetry0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
किसी ने कहा था कि दुनिया के मज़दूरो, एक हो जाओ—खोने के लिए तुम्हारे पास अपनी ज़ंजीरों के अलावा कुछ भी नहीं है। कुमार अंबुज की ‘ज़ंजीरें’ उन असंख्य साँकलों का ज़िक्र करती हैं जिनसे हमारा समूचा चिन्तन, सृजन तथा समाज बँधा हुआ है और उन्हें वन्दनीय मानने लगा है, हालाँकि कुछ लोग आख़िर ऐसे भी थे जो अपनी-अपनी आरियाँ लेकर उन्हें काटते थे और बार-बार कुछ आज़ाद जगहें बनाते थे। स्वयं कुमार अंबुज के कवि के लिए यह एक उपयुक्त रूपक है। उनकी कविताओं में कोई असम्भव, हास्यास्पद आशावाद या क्रान्तिकारिता नहीं है बल्कि ‘एक राजनीतिक प्रलाप’, ‘झूठ का संसार’ और ‘समाज यह’ जैसी रचनाओं में वे समसामयिक भारतीय स्थितियों के वस्तुनिष्ठ, निर्मम और लगभग निराश कर देनेवाले आकलन तक पहुँचते हैं, फिर भी करोड़ों लोग हैं जो जीवित रहने के रास्ते पर हैं जिनमें से कुछ को पूरी उम्र ज़ंजीरों को काटते ही जाना है। यह उस समाज की कविताएँ हैं जहाँ पाँच-तारा होटलों जैसे अस्पतालों में घुसा तक नहीं जा सकता, जिसमें आदमी को खड़े होने की जगह भी मयस्सर नहीं है। झूठ के रोज़गार ने इस समाज को ख़ुशहाल बना डाला है। अपनी श्रेष्ठता से इनकार करता हुआ कवि अपने प्रति भी इतना कठोर है कि जानता है कि इस सबमें हमारी भूमिका भी इस तरह एक-सी है कि हम अपने ही क़रीब ठीक अपने ही जैसा अभिनय देखकर चौंक उठते हैं। कुमार अंबुज की ऐसी कविताएँ हमारे आज तक के हालात का सीधा प्रसारण हैं जिसमें देखती हुई आँख कभी यथार्थ से बचती नहीं है। लेकिन हिन्दी कविता में देखा गया है कि राजनीति और समाज को समझने और अभिव्यक्त करनेवाली प्रतिभा भी सिर्फ़ उन्हीं तक सीमित हो जाती है और उन्हें भी एक अमूर्तन में ही देख-दिखा पाती है। कुमार अंबुज की साफ़निगाही एकस्तरीय और एकायामी नहीं है। उनकी इस तरह की और दूसरी कविताओं में कथ्य और अनुभवों का ऐसा विस्तार है जो आज की उत्कृष्ट कविता की पहली शर्त है। आज हिन्दी में बेहतरीन कविता लिखी जा रही है लेकिन उसमें भी जिन युवा कवियों ने अस्सी के दशक के बाद अपनी स्पष्ट अस्मिता अर्जित की है उनमें वही रोमांचक वैविध्य है जो कुमार अंबुज के यहाँ है। यदि कविता की निगाह व्यक्ति और समाज के सूक्ष्मतम पहलुओं तक नहीं जाती तो वह अन्ततः अधूरी ही कही जाएगी। जब कुमार अंबुज ‘जब दोस्त के पिता मरे’ जैसी कविता लाते हैं तो हमारे अनुभव के दायरे को बढ़ाते हैं। ‘सेल्समैन’ में शीर्षक का प्रयोग एक स्निग्ध विडम्बना को जन्म देता है। ‘आयुर्वेद’, ‘होम्योपैथी’, ‘माइग्रेन’ तथा ‘हारमोनियम की दुकान से’ सरीखी कविताएँ कुमार अंबुज की अद्वितीय दृष्टि और अप्रत्याशित जगहों में कविता खोज लेने की कूवत का प्रमाण हैं और आज की हिन्दी कविता को अनायास आगे ले जाती हैं। ‘छिपकलियों की स्मृति’ हमें अपने घरों, परिवारों और समाज में लौटाती है जबकि ‘जैसे मेरे ही शहर में’ एक अजनबी जगह में अपने क़स्बे को धीरे-धीरे पहचानने-पाने की प्रक्रिया है जिसके निजी और सामाजिक निहितार्थ अद्भुत हैं।</p>
<p>अस्तित्व के रहस्य पर चिन्तन हमारी परम्परा का एक मौलिक सरोकार रहा है लेकिन पता नहीं क्यों, इसे कुछ दशकों से हिन्दी कविता के लिए अस्पृश्य समझ लिया गया है। इसलिए जब कुमार अंबुज बिना किसी छद्म रहस्यवाद या अध्यात्म के ‘मैं क्या हूँ’ जैसी रचना लाते हैं जिसमें ‘मैं’ कभी एक पत्ता है, झुकी हुई मीनार, दु:ख का एक थक्का रक्त की तरह, काली मिट्टी का ढेला, अपने ही अचेतन का अनचीन्हा अटकता सुर, कोई पराजित जीवन अटका हुआ नैतिक वाक्य में, या एक संकल्प गिरता-पड़ता-उठता हुआ बार-बार, तो यह अज्ञेय के आत्मचिन्तन का नहीं, मुक्तिबोध और शमशेर के आत्मचिन्तन का प्रसार है और आज की हिन्दी कविता के एक परहेज़ को तोड़ना है। ‘सापेक्षता’, ‘सब शत्रु सब मित्र’, ‘धुंध’, ‘शाम’, ‘रात’, ‘चमक’, ‘चोट’, ‘अनुवाद’, ‘काल-बोध’ आदि कुमार अंबुज की ऐसी कविताएँ हैं जिनमें वे अपने नितान्त निजी अनुभवों, जायज़ों, आकलनों, संशयों, अवसादों और पराजयों तक गए हैं। उन्होंने धीरे-धीरे एक ऐसी भाषा और शिल्प अर्जित कर लिए हैं जिनमें नितान्त अनायासिता और किफ़ायतशारी से वे बहुत लगती हुई बातें कह डालते हैं। अंबुज की कुछ ही रचनाओं में आंशिक अचकचाहट, वह भी कविता को एक सम पर ले आने में ही, नज़र आती है वरना वर्णनात्मक या इतिवृत्तात्मक रचनाओं में भी वे विस्तार को निभा ले जाते हैं। कोई भी कवि हमेशा बेहतरीन कविताएँ नहीं दे पाता लेकिन कुमार अंबुज के यहाँ थोड़ी-सी ही कमतर रचना ढूँढ़ पाना कठिन है। ऐसा सजग आत्म-निरीक्षण हिन्दी में विरल है।</p>
<p>कुमार अंबुज की ये कविताएँ भारतीय राजनीति, भारतीय समाज और उसमें भारतीय व्यक्ति के साँसत-भरे वजूद की अभिव्यक्ति हैं। इनमें कोई आसान फ़ार्मूले, गुर या हल नहीं हैं—इनके केन्द्र में करुणा, फ़िक्र और लगाव हैं जिनसे हिन्दुस्तानी आदमी के पक्ष की कविता बनती है। साथ में यह भी है कि जनकातरता की वेदी पर संसार और अस्तित्व के बहुत-सारे पहलुओं और सवालों को बलिदान नहीं किया गया है—सब कुछ के बीच अपने निजीपन को, विशेषतः अपनी जागरूकता और उत्सुकता को, जीवन को अधिकाधिक जानने-समझने-जीने की अभिलाषा को बचाए रखने की एक सहज मानवीय कोशिश इनमें मौजूद है। कुमार अंबुज की ये कविताएँ हिन्दी कविता की ताक़त का सबूत हैं और इक्कीसवीं सदी में हिन्दी की उत्तरोत्तर प्रौढ़ता का पूर्व-संकेत हैं।</p>
<p>—विष्णु खरे
ISBN: 9789349159181
Pages: 100
Avg Reading Time: 3 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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“ज्ञानेन्द्रपति ने यदि कोई सभ्यता-विमर्श सम्भव किया है तो उसे समकालीन सन्दर्भों में, वैश्वीकरण की चपेट में आ चुके समाज के जीवन का भाष्य जानकर समझा जा सकता है। प्रसाद-निराला-मुक्तिबोध हों या ज्ञानेन्द्रपति, भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में ये सभी कवि अपने समाज में वर्चस्व की शक्तियों का चारित्रिक भाष्य ही रचते हैं। ज्ञानेन्द्रपति इतिहास, मिथक या फैंटेसी की जटिल पद्धतियों की तरफ जाने के बजाय ठेठ विवरण की यथार्थवादी पद्धति को अपनाते हैं। वे पर्यवेक्षण को ही सीधे, कविता में बदल देते हैं। उनकी कविता, देखे गए दृश्य की कविता है, यथार्थ का प्रत्यक्ष आख्यान है। ज्ञानेन्द्रपति के प्रेक्षण की एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि वे किसी दृश्य को फोटोग्राफिक प्रेक्षण की तरह निर्विकार या प्रकृतिवादी तरीके से नहीं, बल्कि उसकी समूची आन्तरिक द्वंद्वात्मकता में पकड़ते हैं। इस प्रयत्न में दृश्य के परस्पर पूरक या विरुद्धार्थी आशयों को अगल-बगल रखकर उनके बीच उत्पन्न विसंगति को उभार देते हैं। यह विसंगति अपने आप में एक काव्यात्मक आशय बन जाती है। इस तरह वे विलोम प्रत्ययों के युग्म से कविता का कथ्य निर्मित करते हैं। ज्ञानेन्द्रपति के लिए विडम्बना का स्रोत भाषा नहीं, जीवन है जिसे वे प्रेक्षण के जरिये जीवन से उठाते हैं, सिर्फ शब्दों के कौतुक से उसे उत्पन्न नहीं करते। उनके यहाँ विडम्बना बिम्ब में प्रत्यक्ष होती है, वक्र कथन में नहीं। वह नई कविता के दौर में लक्षित किए गये ‘शरारतपूर्ण सह-संयोजन’ सरीखा भी नहीं, बल्कि सचेत समाज-प्रेक्षण है।”
—जयप्रकाश, सुपरिचित आलोचक
Sheeshon Ka Masiha
- Author Name:
Faiz Ahmed 'Faiz'
- Book Type:

- Description: शीशों का मसीहा की शुरुआत होती है फ़ैज़ के एक लेख से जो उन्होंने अपने बारे में लिखी है, ज़ाहिर है बहुत संकोच के साथ क्योंकि उनके मुताबिक अपने बारे में बात करना ‘बोर लोगों का शग़ल है।’ लेकिन आगे जो वे बताते हैं, वो फ़ैज़ के पाठकों के लिए काफ़ी काम का है; उनसे हम इस किताब में संकलित उनकी नज़्मों, ग़ज़लों और अशआर की पृष्ठभूमि को जानते हैं। ‘नक़्शे-फ़रियादी’ के बारे में बताते हैं कि इसकी शुरुआती नज़्में जिस फ़ज़ा में आईं वह तालिबे-इल्मी का दौर था जिसमें ‘इब्तिदा-ए-इश्क़’ का तहय्युद भी शामिल था कि ‘ख़ुदा वो वक़्त न लाए कि सोगवार हो तू’; लेकिन यह दौर लम्बा न चलाए—कॉलेज के बड़े-बड़े बाँके तीसमारखाँ रोजी-रोटी की तलाश में गलियों की ख़ाक फाँकने लगे; और दिल कह उठा—‘मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग’। फिर फ़ैज़ पत्रकारिता, ट्रेड यूनियन, और जेलख़ाना जिसके बारे में उनका कहना है कि ‘जेलख़ाना’ आशिक़ी की तरह ख़ुद का बुनियादी तजुर्बा है। इस तजुर्बे की साक्षी हैं ‘दस्ते-सबा’ और ‘ज़िन्दाँनामा’। ‘शीशों का मसीहा’ इस तरह हमें फ़ैज़ की रचना-यात्रा को समझने का एक रास्ता देती है।
Premchand Biskohar Mein
- Author Name:
Vishwanath Tripathi
- Book Type:

- Description: ‘प्रेमचन्द बिस्कोहर’ में हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी की कविताओं का संकलन है—कह सकते हैं कि उनका मन, भावों से भरा। लेकिन ये किसी निराकार अनुभूति से उपजे भाव नहीं हैं। इनकी जड़ें हैं—पृथ्वी में, स्मृति में, परिवार में, प्रकृति में और उस इतिहास में जो समय के अंक में बन रहा है, बीत रहा है— फूल में सूरज में मिट्टी में आँखों में झुलसे सँवलाए चेहरों में एक लपट काँपती रहती है| मैं उसी से शब्दों को सुलगा लेता हूँ| ये धीमी आँच में सुलगते हुए शब्द हैं जिनकी उष्मा हमें कुछ देर बाद महसूस होती है और फिर देर तक साथ रहती है, हमें हमारे ऐसे ही क्षणों की ओर लौटाती हुई—अपने स्मृति-वृक्षों के पास। यह देखकर तो किसे अचरज होगा कि वे भाषा से काम भी एक कुशल कारीगर की तरह लेते हैं। वह शब्द-संयम जो मुक्तिबोध और शमशेर में है, यहाँ भी दिखाई देता है; और अनेक ऐसे बिम्ब भी जो केवल यहीं उपलब्ध हैं। मसलन एक बिल्ली है—मैंने उसके अंगों में चुम्बनों की घंटियाँ बाँध दी हैं वह जहाँ होगी, घंटियाँ खनखना रही होंगी। एक पठनीय और संग्रहणीय कविता-संग्रह।
Preet Vedi-Niharika
- Author Name:
Radhika Shaha
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- Description: It's masterpiece poetry collection
Sara Namak Wahin Se Aata Hai
- Author Name:
Bahadur Patel
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- Description: Poems
Shrikant Verma Rachanawali : Vols. 1-8
- Author Name:
Shrikant Verma
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- Description: श्रीकान्त वर्मा मुक्तिबोध की पीढ़ी के बाद के कवियों में अन्यतम बेचैन और उत्तप्त कवि इस माने में ज़्यादा हैं कि उन्होंने अपनी कविता के ज़रिए न केवल अपने समय का सीधा, तीक्ष्ण और अन्दर तक तिलमिला देनेवाला भयावह साक्षात्कार किया, बल्कि हर अमानवीय ताक़त के विरुद्ध एक निर्मम और नंगी भिड़ंत की। इसीलिए उनकी कविता में नाराज़गी, असहमति और विरोध का स्वर सबसे मुखर है। उनकी कविता उस दर्पण की तरह है, जहाँ कोई झूठ छिप नहीं सकता। उनकी कविता हर झूठ के विरुद्ध कहीं प्रतिशोध है तो कहीं सार्थक वक्तव्य। शायद इसीलिए वे सन् 60 के बाद की कविता के हिन्दी के पहले नाराज़ कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए। वे एक ओर मानवीय संवेदना के गहन ऐन्द्रिक प्रेम और क्षोभ के विरल कवि हैं तो दूसरी तरफ़ सामाजिक कर्म की कविता में नैतिक क्षोभ से उपजे सामाजिक हस्तक्षेप के दुर्लभ कवि हैं। वे उत्तर खोजने के बजाय प्रश्न खड़े करनेवाले कवि हैं। ‘भटका’ मेघ से शुरू हुई श्रीकान्त वर्मा की काव्य–यात्रा ‘माया दर्पण’, ‘दिनारंभ’ और ‘जलसाघर’ से गुज़रते हुए एक ऐसी कवि की दुनिया है जहाँ बीसवीं शताब्दी के मनुष्य की अपने समय से सीधी बहस है। कवि दूसरे से उलझने के बजाय स्वयं से प्रश्न करता है जहाँ उसके आत्माभियोग और आत्म–स्वीकार का स्वर सबसे मूल्यवान है। ‘मगध’ और ‘गरुड़ किसने देखा है’ एक ऐसे कवि की अथाह करुणा की पुकार है जो युग–संधि पर खड़ा अपने समय के मनुष्य, समाज, राजनीति, इतिहास और काल को बहुत निर्मम होकर बेचैनी के साथ देखते हुए मनुष्य और समाज की नियति को परिभाषित कर रहा है। इसीलिए ‘मगध’ समकालीन व्यवस्था का मर्सिया भर नहीं है बल्कि समय, समाज और व्यवस्था के विरुद्ध एक सीधा हस्तक्षेप है। इस खंड में पहली बार श्रीकान्त वर्मा की सम्पूर्ण प्रकाशित–अप्रकाशित, संकलित–असंकलित कविताओं का संचयन किया गया है जिसमें दर्ज है—एक कवि का सम्पूर्ण संसार जो अनेक संसारों में फैला हुआ है। इसके अतिरिक्त इस खंड में पुस्तकों की भूमिकाएँ, सम्पादकीय और अपने समकालीनों के साथ दो महत्त्वपूर्ण संवाद भी मौजूद हैं।
Sukanya
- Author Name:
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- Description: Poems
Chandrikotsav
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Manoj Singh
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- Description: शाम ढल चुकी है, रात को चाँद की प्रतीक्षा है। विरह की अग्नि हर प्रेमी को अपने आगोश में ले रही है। प्रतीक्षा सदैव कष्ट दायी होती है। आँखें थक रही हैं मन आतुर है। आँसू हैं कि अनायास बहने लगे। मन की अग्नि ज्वाला बनकर आँसुओं को उष्णता प्रदान कर रही है, जिसने मन के साथ-साथ तन को भी जलाना प्रारंभ कर दिया है। उनका प्रभाव और प्रवाह बढ़ता जा रहा है। विरह की तीव्रता का प्रेम की गहराई से सीधा संबंध है। इस अवस्था में अप्रिय विचारों का आना कदाचित् उनका स्वभाव है, मगर विश्वास की अग्नि परीक्षा यहीं से शुरू होती है। बेचैनी में भी धैर्य नहीं खोना है, कदाचित् यही विरह की प्रीत है
Trishanku Swarg
- Author Name:
Akkitam Achyutan Nambudiri
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- Description: त्रिशंकु स्वर्ग ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मलयालम भाषा के शीर्षस्थ कवि अक्कितम अच्युतन नम्बूदिरी की चुनिन्दा कविताओं का संकलन है। उनकी कविताओं में परम्परा और आधुनिकता का अपूर्व मेल दिखाई पड़ता है। वेदों के गहन अध्ययन से परम्परा के उदात्त तत्वों को उन्होंने अपनी कविता में उतारा, तो सात दशक पहले प्रकाशित उनके खंड काव्य ‘इरूपदाम नूट्टांडिंडे इतिहासम्’ (बीसवीं शताब्दी का इतिहास) से मलयालम कविता में आधुनिकता का प्रवेश हुआ। परम्परा की निरन्तरता में विश्वास रखने वाले इस महाकवि के लिए मनुष्यता की पक्षधरता और मानवीय वेदना का परित्राण हमेशा सर्वोपरि रहा, जिसका प्रमाण इस चयनिका की कविताओं में मिलता है।
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