Bina Deewaron Ke Ghar
Author:
Mannu BhandariPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Plays0 Reviews
Price: ₹ 316
₹
395
Available
‘बिना दीवारों के घर’ का जो घर है उसकी दीवारें हैं, लेकिन लगभग ‘न-हुईं’ सी ही। एक स्त्री के ‘अपने’ व्यक्तित्व की आँच वे नहीं सँभाल पातीं, और पुरुष, जिसको परम्परा ने घर का रक्षक, घर का स्थपति नियुक्त किया है, वह उन पिघलती दीवारों के सामने पूरी तरह असहाय! यह समझ पाने में क़तई अक्षम कि पत्नी की परिभाषित भूमिका से बाहर खिल और खुल रही इस स्त्री से क्या सम्बन्ध बने! कैसा व्यवहार किया जाए! और यह सारा असमंजस, सारी दुविधा और असुरक्षा एक निराधार सन्देह के रूप में फूट पड़ती है। आत्म और परपीड़न का एक अनन्त दुश्चक्र, जिसमें घर की दीवारें अन्ततः भहरा जाती हैं।</p>
<p>स्त्री-स्वातंत्र्य के संक्रमण काल का यह नाटक ख़ास तौर पर पुरुष को सम्बोधित है और उससे एक सतत सावधानी की माँग करता है कि बदलते हुए परिदृश्य से बौरा कर वह किसी विनाशकारी संभ्रम का शिकार न हो जाए, जैसे कि इस नाटक का ‘अजित’ होता है।
ISBN: 9788171197590
Pages: 100
Avg Reading Time: 3 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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- Description: भवभूति 8वीं शताब्दी के भारतीय विद्वान थे, जो संस्कृत में लिखे गए अपने नाटकों और कविताओं के लिए विख्यात थे। उनके नाटकों को कालिदास की रचनाओं के बराबर माना जाता है। उन्हें उत्तररामचरित नामक उनकी रचना के लिए "करुणा रस के कवि" के रूप में जाना जाता है। भवभूति का जन्म महाराष्ट्र के गोंदिया जिले के पद्मपुरा, आमगांव में हुआ था। उनका जन्म विद्वानों के एक औदुंबर/उदुंबर ब्राह्मण[1] परिवार में हुआ था।[2][3] उन्हें यायावर परिवार का वंशज बताया जाता है, जिनका उपनाम उदुंबर था। उनके कश्यप ब्राह्मण पूर्वज काले यजुर्वेद का पालन करते थे और पाँच पवित्र अग्नि रखते थे।[4] उनका असली नाम श्रीकंठ औदुंबर था। वे नीलकंठ औदुंबर और जतुकर्णी औदुंबर के पुत्र थे। उन्होंने ग्वालियर से लगभग 42 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में पद्मपवाया में अपनी शिक्षा प्राप्त की। दयाननिधि परमहंस को उनका गुरु माना जाता है। उन्होंने यमुना नदी के तट पर कालपी में अपने ऐतिहासिक नाटकों की रचना की। माना जाता है कि वे कन्नौज के राजा यशोवर्मन के दरबारी कवि थे। 12वीं सदी के इतिहासकार कल्हण ने उन्हें राजा के दल में शामिल किया है। 736 ई. में, राजा को कश्मीर के राजा ललितादित्य मुक्तपीड़ ने पराजित किया था।
Kutte
- Author Name:
Vijay Tendulkar
- Book Type:

- Description: से दूर पिछड़े क्षेत्र में नियुक्त एक सेल्समैन, उसका एक बेहद चतुर-दुनियादार सहायक, घोडके, एक प्रौढ़वय स्त्री और उसके कुत्ते। इस नाटक की कथा इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती है। अपने घर-परिवार से दूर अकेलेपन और अनिद्रा से त्रस्त नायक घोडके की मार्फ़त उस रहस्यमयी स्त्री की कोठी में जा पहुँचता है जहाँ वह अपने सात पालतू कुत्तों के साथ रहती है। उसका विश्वास है कि इनमें से किसी एक कुत्ते के रूप में उसके दिवंगत पति ने पुनर्जन्म लिया है। स्त्री का दिव्य रूप, अभिजात संयम और आध्यात्मिक वलय नायक को पूरी तरह अपनी गिरफ़्त में ले लेता है। और, एक अभागी रात वह कुछ ऐसा कर गुज़रता है जो उसके भीतरी-बाहरी संसार को पूरी तरह बदल डालता है। विजय तेन्दुलकर के अन्य नाटकों की तरह यह नाटक भी मानव-जीवन की विडम्बनाओं और विद्रूपताओं को बड़े कौशल से खोलता है और दर्शक को सोच के एक नए धरातल पर ले जाता है। रंगशिल्प और मंचीय भाषा के लिहाज़ से भी यह नाटक विशिष्ट है। अपनी नाट्य-विधियों और गतिमयता के कारण यह पाठक और दर्शक, दोनों के लिए एक चिरस्मरणीय अनुभव होने की क्षमता रखता है।
Greece Ke Trasad Natak
- Author Name:
Kamal Naseem
- Book Type:

- Description: पाँचवीं शताब्दी ई.पू. ग्रीस के 31 क्लासिकल त्रासद नाटकों का संक्षिप्त हिन्दी कथा-रूपान्तरण केवल उन रचनाओं का संक्षिप्त रूपान्तर नहीं, ये छोटी-छोटी खिड़कियाँ और झरोखे हैं जो आपको आज से दो हज़ार पाँच सौ वर्ष पहले की ग्रीक सभ्यता और संस्कृति के ऐसे भव्य संसार में ले जाएँगे, जहाँ देश और काल की सीमाएँ अपने आप ही तिरोहित हो जाती हैं। कास्ट्यूम और मुखौटे अपनी सादगी और रंगीनी में एक ऐसे ‘लार्जर दैन लाइफ़’ पात्रों का संसार रच देते हैं, जहाँ बिना किसी दृश्य और श्रव्य तकनीक के वायुमंडल में बहती आवाज़ें आपके अस्तित्व को अभिभूत कर लेती हैं...। आप सम्मोहित से आगे बढ़ते जाते हैं...एक-एक कर वितान खुलते जाते हैं...और आप देखते हैं ग्रीक महानायकों की बृहद् कर्मभूमि, आकाश को छूती महत्त्वाकांक्षाएँ, मन को छूती करुणा; दिव्य तेज और साहस के कारनामे, दैन्य की पराकाष्ठा; युद्ध का भयावह रक्तपात और नरसंहार, माँओं, बहनों और दासियों का दिल दहलानेवाला चीत्कार; अनैतिकता के गर्हित कर्म और कर्तव्य के लिए प्राण निछावर करने का आत्मबल और धर्म; अहम् और स्वार्थ का कुचक्र, संवेगों का संघर्ष; कोमल आत्मीयता का क्रूर मर्दन और सम्बन्धों पर मर मिटने को तत्पर जीवन—सभी कुछ तो है यहाँ। किन्तु ये केवल झलकियाँ हैं जो निश्चय ही आपको ग्रीक पुराकथाओं और नाटक के समग्र संसार की ओर जाने को अभिप्रेरित करेंगी।
Sampurna Natak : Mrinal Pandey
- Author Name:
Mrinal Pande
- Book Type:

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Description:
विख्यात कथाकार, पत्रकार और समाज-चिन्तक मृणाल पाण्डे के नाटकों का यह संग्रह उनके एक और महत्त्वपूर्ण रचना-पक्ष को सामने लाता है। नाटककार के रूप में उनकी यात्रा अस्सी के दशक से शुरू हुई और अपनी तमाम कार्यकारी तथा रचनात्मक व्यस्तताओं के बीच समय-समय पर उन्होंने इसे बरक़रार रखा। उनका पहला नाटक ‘मौजूदा हालात को देखते हुए’ था जिसका प्रकाशन ‘नटरंग’ में और भोपाल में मंचन भी हुआ, लेकिन दुर्भाग्य से उसकी कोई प्रतिलिपि अब प्राप्य नहीं है। यही स्थिति उनके रेडियो नाटकों की भी है, जिनमें से अधिकांश आकाशवाणी के आर्काइव्ज़ में गुम हैं। सो इस संग्रह में दो ही रेडियो नाटक शामिल हो सके हैं, ‘सुपर मैन की वापसी’ और ‘धीरे-धीरे रे मना’।
पुस्तक के मुख्य भाग में मृणाल जी के पाँच पूर्णकालिक नाटक हैं जो न केवल नाटककार के रूप में उनकी प्रतिभा के परिचायक हैं बल्कि उनकी वैचारिक आत्मनिर्भरता को भी रेखांकित करते हैं। संग्रह का पहला नाटक ‘जो राम रचि राखा’ उस दौर में लिखा गया था जब हिन्दी में जनवादी तर्ज की ‘प्रतिबद्धता’ धार्मिक आस्था की तरह स्थापित थी। उस दौर में उन्होंने इस नाटक के पात्र मन्ना सेठ के हास्यास्पद क्रान्ति-स्वप्नों के माध्यम से अपने समाज से अपरिचित और निरर्थक प्रतीकों से भरी तत्कालीन वैचारिक दुनिया की तरफ़ इशारा किया। इस पर उनको आलोचना भी सहनी पड़ी।
आलोचना उन्हें अपने नवीनतम नाटक ‘शर्मा जी की मुक्तिकथा’ (2002) पर भी मिली जिसको आलोचकों ने जटिल और ‘बहुत प्रयोगधर्मी’ कहा। लेकिन इस सबके बावजूद मृणाल पाण्डे का नाटककार अपने समय की जटिलताओं का सामना करता रहा। उनका मानना है कि “अपनी सच्ची स्थिति को, वह चाहे जितनी भी जटिल क्यों न हो, परिभाषित करना हर लेखक की लेखकीय अनिवार्यता है।” उनके एक पहले नाटक ‘आदमी जो मछुआरा नहीं था’ का फोकस ही यह है कि मनुष्य के लिए उसकी स्वतंत्रता और नियति अन्तत: एक निजी सवाल है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि मृणाल पाण्डे के ये सभी नाटक मंच की कसौटी पर भी खरे उतर चुके हैं। इसलिए सिर्फ़ पाठक ही नहीं, रंगकर्मी भी इस संकलन को उपयोगी पाएँगे और हमें उम्मीद है कि इससे उनकी यह शिकायत काफ़ी हद तक दूर हो जाएगी कि हिन्दी में मंचन करने लायक मौलिक नाटक नहीं लिखे जा रहे।
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