Media Aur Bazarvad
Author:
Ramsharan JoshiPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Media0 Reviews
Price: ₹ 556
₹
695
Available
बाज़ार नाम की संस्था आदिम समाज के लिए भी रही है, और आज के समाज के लिए भी है। इसलिए बाज़ार से बैर करके आप अपना समाज और अपना जीवन चला सकें, इसकी सम्भावना नहीं है। लेकिन जब बाज़ार मनुष्य की नियति तय करे तो इसका मतलब यह है कि अब तक जो मनुष्य का सेवक रहा है, वह मनुष्य का मालिक होना चाहिए। बाज़ार मनुष्य का बहुत अच्छा सेवक है। कोई पाँच हज़ार साल से उसकी सेवा कर रहा है। शायद उससे भी ज़्यादा वर्षों से कर रहा हो। अगर वो मनुष्य की नियति तय करेगा तो उसमें एक मूल खोट आनेवाला है, क्योंकि बाज़ार भाव से चलता है, बाज़ार मूल्य से नहीं चलता और मूल्यों के बिना किसी भी मानव समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। मानव समाज भाव से नहीं चल सकता, मूल्य से ही चल सकता है। मानव समाज को मूल्य से चलना है। अब जो बाज़ार की शक्तियाँ दुनिया में इकट्ठा हुई हैं उनसे आप कैसे निपटेंगे? मुझे कई लोगों ने कहा कि यह तो हिन्दुस्तान है जो जाजम की तरह बिछने के लिए तैयार है, नहीं तो जहाँ-जहाँ बाज़ार गया है, वह उस देश के समाज की शर्तों पर गया है। पर हमने एक कमज़ोर देश की तरह से अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार को स्वीकारा है। इसलिए अब हमारे यहाँ जाजम की तरह बिछ जाने का लगभग कुचक्र चल रहा है!
ISBN: 9788171197569
Pages: 144
Avg Reading Time: 5 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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Mrinal Pande
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- Description: अरसे तक ‘राष्ट्रीय मीडिया’ मानी जानेवाली अंग्रेजी मीडिया के वर्चस्व को, अपने व्यापक जमीनी जुड़ाव की बदौलत किनारे कर, देश के कोने-कोने तक पहुँच बना चुकी हिन्दी मीडिया का यह ऐतिहासिक सफर अत्यन्त चुनौतीपूर्ण रहा है, जिसका ब्योरा मृणाल पाण्डे ने इस किताब में दर्ज किया है। इसमें औपनिवेशिक काल में बढ़ती राष्ट्रीय भावना से उपजे अखबार और अंग्रेजी की अधीनता से लेकर, आजादी के बाद के दौर में विज्ञापन और निजी कॉरपोरेटों की बढ़ती मौजूदगी से आए उन बदलावों का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है जिन्होंने पत्रकारिता का परिदृश्य आमूल बदल दिया। आगे डिजीटलीकरण, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों के बढ़ते प्रभावों और विज्ञापनों पर भारी निर्भरता ने बदलावों को और तेज किया। और अब, राजनीति, कारपोरेट और मीडिया के बीच स्पष्ट किन्तु जटिल रिश्तों की छाया में यह सवाल सामने है कि एक समय भारतीय लोकतंत्र को आगे बढ़ाने का जरिया बनी हिन्दी मीडिया आज हमारे संविधान प्रदत्त सूचना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हक को आगे बढ़ा पाने में किस हद तक सक्षम है? जरूरी जानकारियों से भरी यह किताब पत्रकारिता के छात्रों, प्रोफेसरों और मीडियाकर्मियों के साथ-साथ उन सबके लिए एक विचारोत्तेजक पाठ है जो मीडिया और भारतीय लोकतंत्र के इतिहास, वर्तमान और भविष्य में दिलचस्पी रखते हैं।
Chainalon Ke Chehre
- Author Name:
Shyam Kashyap +1
- Book Type:

- Description: न्यूज़ चैनलों की जब भी बात होती है तो उनके एंकर की चर्चा ज़रूर की जाती है। और कैसे न हो। एंकर किसी भी चैनल की पहचान होते हैं। वे चैनलों के चेहरे होते हैं। किसी भी चैनल के एंकर जिस तरह के होते हैं, उसके आधार पर ही यह राय बनाई जाती है कि वह चैनल कैसा है। अगर एंकर ख़ूबसूरत, समझदार, चौकन्ने हैं तो उस चैनल को भी लोग उसी नज़र से देखेंगे। इसलिए कोई भी चैनल एंकर के चयन को सबसे ज़्यादा महत्त्व देता है। वह ऐसे चेहरों की तलाश में रहता है जो दर्शकों को बाँध सकें। ज़ाहिर है कि टेलीविज़न एंकरिंग एक आकर्षक एवं प्रभावशाली विधा है, पेशा है और यह बहुत स्वाभाविक है कि छात्र ही नहीं, टेलीविज़न में वर्षों से काम कर रहे पत्रकार भी यह सपना पाले रहते हैं कि उन्हें भी स्क्रीन पर आने का मौक़ा मिले। इसलिए सबसे ज़्यादा प्रतिस्पर्धा भी एंकरिंग के लिए होती है। चैनल चलानेवाले भी एंकर के चयन के मामले में बेहद कठोर होते हैं। कोई भी चैनल एंकर को लेकर समझौता नहीं करना चाहता। इसलिए एंकर बनने के इच्छुक लोगों को यह ज़रूर पता होना चाहिए कि उनकी राह बहुत आसान नहीं है और यह सपना कैसे पूरा हो सकता है या उसे पूरा करने के लिए उन्हें क्या करना चाहिए, इस पर सोचना ज़रूरी है। आजकल सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि एंकरिंग के बारे में विस्तार से जानने और फिर उसे सीखने का कोई इन्तज़ाम नहीं है। दिल्ली, मुम्बई जैसे कुछ बड़े शहरों को छोड़ दें तो कहीं ढंग के प्रशिक्षण संस्थान नहीं हैं। जहाँ हैं, वहाँ सिखानेवाले ख़ुद ही प्रशिक्षित नहीं हैं। बड़े शहरों में भी अधिकांश प्रशिक्षण संस्थान मोटी रक़म वसूलने के लिए ज़्यादा कुख्यात हैं। ऐसे में कमज़ोर हैसियत और छोटे तथा मझोले शहरों में रहनेवाले लोग क्या करें, कहाँ जाएँ? उन्हें तो किताबों की ही मदद से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना होगा। लेकिन मुश्किल यह है कि टेलीविज़न एंकरिंग पर ढंग की किताबें भी नहीं हैं। जो हैं वे दशकों पुरानी एंकरिंग को ध्यान में रखकर लिखी गई हैं जबकि अब उसमें आमूलचूल परिवर्तन आ चुका है। टेलीविज़न पत्रकरिता माला के तहत ‘चैनलों के चेहरे’ शीर्षक से एंकरिंग पर किताब लिखने का मक़सद इस कमी को पूरा करना ही है। कोशिश रही है कि यह किताब एंकरिंग की एक परिपक्व गाइड की भूमिका अदा करे। इसलिए टेलीविज़न के मौजूदा दौर को ध्यान में रखकर और एंकरिंग के बारे में विस्तार से जानकारी जुटाकर इसे तैयार किया गया है। यह पुस्तक एंकरिंग के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराती है, जिससे वे ख़ुद अपनी तैयारी को आगे बढ़ा सकें।
Rajneeti Meri Jaan
- Author Name:
Punya Prasun Bajpai
- Book Type:

- Description: Book related to media politics and society.
Ruktapur
- Author Name:
Pushyamitra
- Book Type:

- Description: यह किताब एक सजग-संवेदनशील पत्रकार की डायरी है, जिसमें उसकी ‘आँखों देखी’ तो दर्ज है ही, हालात का तथ्यपरक विश्लेषण भी है। यह दिखलाती है कि एक आम बिहारी तरक़्क़ी की राह पर आगे बढ़ना चाहता है पर उसके पाँवों में भारी पत्थर बँधे हैं, जिससे उसको मुक्त करने में उस राजनीतिक नेतृत्व ने भी तत्परता नहीं दिखाई, जो इसी का वादा कर सत्तासीन हुआ था। आख्यानपरक शैली में लिखी गई यह किताब आम बिहारियों की जबान बोलती है, उनसे मिलकर उनकी कहानियों को सामने लाती है और उनके दुःख-दर्द को सरकारी आँकड़ों के सामने रखकर दिखाती है। इस तरह यह उस दरार पर रोशनी डालती है जिसके एक ओर सरकार के डबल डिजिट ग्रोथ के आँकड़े और चमचमाते दावे हैं तो दूसरी तरफ़ वंचित समाज के लोगों के अभाव, असहायता और पीड़ा की झकझोर देने वाली कहानियाँ हैं। इस किताब के केन्द्र में बिहार है, उसके नीति-निर्माताओं की 73 वर्षों की कामयाबी और नाकामी का लेखा-जोखा है, लेकिन इसमें उठाए गए मुद्दे देश के हरेक राज्य की सचाई हैं। सरकार द्वारा आधुनिक विकास के ताबड़तोड़ दिखावे के बावजूद उसकी प्राथमिकताओं और आमजन की ज़रूरतों में अलगाव के निरंतर बने रहने को रेखांकित करते हुए यह किताब जिन सवालों को सामने रखती है, उनका सम्बन्ध वस्तुत: हमारे लोकतंत्र की बुनियाद है।
Hindi-patrakarita Ke Pratiman
- Author Name:
Satish Kumar Roy
- Book Type:

- Description: पुस्तक हिन्दी के चौदह उन सम्पादकों पर केन्द्रित है जिन्होंने हिन्दी-पत्रकारिता को दिशाबोध दिया है, उसकी विरासत को अग्रेषित किया है और सही अर्थों में प्रतिमान के रूप में मान्य हुए हैं। ऐसा नहीं है कि यह सूची इन्हीं तक सीमित है। वस्तुतः यह एक श्रृंखला की पहली कड़ी है। ये चौदह सम्पादक बिहार के विश्वविद्यालयों के एम.ए. के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित किए गए हैं इसलिए सर्वप्रथम इन्हीं को केन्द्र में रखकर पुस्तक का पहला खंड प्रस्तुत किया जा रहा है। उच्च कक्षाओं के विद्यार्थियों और शोधार्थियों को इसमें अपेक्षित सूचनाएँ मिल पायेंगी, ऐसा विश्वास है।
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