Idea Se Parde Tak : Kaise Sochta Hai Film Ka Lekhak?
Author:
Ramkumar Singh, Satyanshu SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Media0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
यह किताब सिनेमा के एक सहयोगी पेशेवर के रूप में फ़िल्म-लेखक के कामकाज का सिलसिलेवार वृत्तान्त प्रस्तुत करती है। फ़िल्म का अपना तौर-तरीक़ा है, जिसके दायरे में रहकर ही फ़िल्म-लेखक को काम करना पड़ता है। इसलिए एक हद तक अपनी स्वायत भूमिका रखने के बावजूद उसको अपना काम करते हुए निर्माता, निर्देशक, अभिनेता, कैमरा-निर्देशक आदि अनेक सहयोगी पेशेवरों के साथ संगति का ख़याल रखना पड़ता है। ज़ाहिर है, फ़िल्म-लेखन जिस हद तक कला है, उसी हद तक शिल्प और तकनीक भी। एक सफल फ़िल्म लेखक बनने के लिए जितनी ज़रूरत प्रतिभा की है, उतनी ही परिश्रम, कौशल, अनुशासन और समन्वय की। सबसे लोकप्रिय कला के रूप में अपनी जगह बना चुका सिनेमा आज एक महत्त्वपूर्ण इंडस्ट्री भी है जो लाखों-लाख युवाओं के सपनों का केन्द्र बन चुकी है। ऐसे में फ़िल्म-लेखन की दिशा में कदम बढ़ाने वालों के लिए यह किताब एक अपरिहार्य हैण्डबुक की तरह है।
ISBN: 9789389598834
Pages: 167
Avg Reading Time: 6 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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- Description: “मैं अक्सर महसूस करता हूँ कि हमारी जनता एक तरफ़ व्यावसायिक विकृतियों का शिकार है तो दूसरी तरफ़ उन विशिष्टतावादी फ़िल्मकारों का जिनके शब्दों का उस पर कोई असर नहीं होता और जो उसे और उलझा देते हैं। मैं सोचता था कि हमारे भी गम्भीर फ़िल्मकार इस देश के मिथकों और लोक-परम्परा को उसी तरह आत्मसात् कर सकेंगे, जैसे अकीरा कुरोसावा ने जापान के क्लासिकी परम्परा को किया है और फिर एक नया लोकप्रिय फ़ॉर्म विकसित हो सकेगा। उलटे हम पाते हैं कि पश्चिम के विख्यात फ़िल्मकारों में ही उलझे हैं हमारे लोग और कभी-कभी उनकी नाजायज नक़ल भी करते हैं। हमें पहले ही नहीं मान लेना चाहिए कि जनता प्रयोग और नवीकरण के मामले में तटस्थ है।” —उत्पल दत्त हिन्दी सिनेमा एक साथ ढेर सारे मिले-जुले प्रभावों से परिचालित है। एक तरफ़ हॉलीवुड सिनेमा, लोकनाट्य रूपों तथा पारसी थियेटर की खिचड़ी, दूसरी तरफ़ पौराणिक मिथकों का लोक-लुभावन स्वरूप, तीसरी तरफ़ इटैलियन नवयथार्थवादी सिनेमा का प्रभाव। इन सबके बीच भारतीय सिनेमा के अपने मूल गुणों को पहचानने-परखने की कोशिश ही इस पुस्तक का ध्येय है। दादा साहब फाल्के ने भारतीय सिनेमा को व्याकरण के साँचे में कसने के लिए एक भारतीय सिने-सिद्धान्त की आवश्यकता महसूस की थी लेकिन वे स्वयं ऐसा कर नहीं पाए और आगे भी नहीं किया जा सका। भारतीय सिने-सिद्धान्त और सिने-कला, इतिहास, पटकथा की संरचना आदि पर छिटपुट टिप्पणियों, लेखों, विचारों को एकत्रित कर सिने-सिद्धान्त का अवलोकन इस पुस्तक के मुद्दों में केन्द्रीय है। सिनेमा की कला-भाषा का ठीक से शिक्षण नहीं होने के चलते एक दृष्टिहीन सिनेमा का व्यावसायिक लुभावना सम्मोहन समाज पर हावी है। यह पुस्तक भारतीय सिने-सिद्धान्त को लेकर किंचित् भी चिन्तित व्यक्तियों को गम्भीरता से सोचने के लिए तथ्य उपलब्ध कराएगी, साथ ही एक सामूहिक प्रयास के लिए प्रेरित करेगी।
Radio Varta Shilp
- Author Name:
Siddhnath Kumar
- Book Type:

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Description:
वैज्ञानिक आविष्कारों ने जिन नए साहित्य-रूपों को जन्म दिया है, उनमें एक ‘रेडियो वार्ता’ भी है। अंग्रेज़ी में इसे ‘रेडियो टॉक’ कहते हैं।
मात्र श्रव्य होने के कारण यह लेख या निबन्ध से भिन्न है और इसका अपना शिल्पगत वैशिष्ट्य भी है। इसी का सूक्ष्म विश्लेषण-विवेचन सुपरिचित नाट्यालोचक एवं रेडियो नाट्य-विशेषज्ञ डॉ. सिद्धनाथ कुमार ने ‘रेडियो वार्ता शिल्प’ में किया है। श्रव्य माध्यम के वैशिष्ट्य में रुचि रखनेवाले लेखकों एवं प्रसारणकर्ताओं द्वारा इस पुस्तक का अवश्य ही स्वागत किया जाएगा।
‘रेडियो वार्ता शिल्प’ अपने विषय की हिन्दी में प्रथम पुस्तक है और इसे पर्याप्त मान्यता मिल चुकी है। यूँ तो यह पुस्तक मूलतः रेडियो वार्ता के लेखन, प्रसारण पर केन्द्रित है, पर लेखक ने ‘प्रभावशाली लेखन’ के व्यावहारिक पक्ष का जो सोदाहरण विवेचन किया है, वह ‘लेखन-कला’ में पारंगत बनाने के लिए पर्याप्त है।
Vigyapan, Bazar Aur Hindi
- Author Name:
Kailash Nath Pandey
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Description:
विज्ञापनों का ख़ासा असर शुरुआती दौर में आहिस्ता-आहिस्ता किन्तु कालान्तर में धूम-धड़ाके के साथ भारतीय समाज में गहरे पसर चुका है। साफ़ शब्दों में, तमाम दर्जनों लांछनाओं के बावजूद आज हम विज्ञापनों के जिस मायावी संसार का सामना कर रहे हैं, उससे बचना हमारे लिए मुश्किल हो गया है। एक ओर अभिव्यक्ति के अधिकांश मंच-मचान और माध्यमों से इसका अटूट रिश्ता स्थापित हो चुका है तो दूसरी ओर यह सम्प्रेषण की मुकम्मल, पुख्ता और आकर्षक विधा और माध्यम तो बन ही गया है। अब यह व्यावसायिक शक्ति, विक्रय कला की प्रणाली, लोकसेवा, घोषणा, उपभोक्ता के लिए सूचना और सुझाव, व्यावसायिक ज़रिया और क्रय-शक्ति के संवर्धक के रूप में अपनी सार्थकता सिद्ध कर रहा है।
विज्ञापनों के बिना, बिलाशक बाज़ार चल नहीं सकता। बाज़ार को यह सुसम्पन्न और लुभावना बनाता है, उसे सजाता और साधता है। बिना इसके मीडिया के सामने अस्तिव का संकट पैदा हो सकता है। इसने भाषा, संस्कृति के साथ जीवन की कई चीज़ों को बदल दिया है।
Web Patrikarita : Naya Media Aur Rujhan
- Author Name:
Shalini Joshi +1
- Book Type:

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Description:
एक ऐसे दौर में जब मीडिया प्रिंट, रेडियो और टीवी से होता हुआ वेब पर उतर आया है और वहाँ भी उसके कई रूप दिखने लगे हैं, ऐसे न्यू मीडिया के दौर में जर्नलिज़्म से जुड़े छात्रों, शोधकर्ताओं और अध्यापकों, पेशेवरों और विशेषज्ञों के सामने कुछ नई चुनौतियाँ और सवाल भी आए हैं। न्यू मीडिया कमोबेश उसी समय प्रकट हुआ जब ग्लोबल विलेज की अवधारणा ज़ोर मार रही थी, भूमंडलीकरण ने आकार ग्रहण कर लिया था और नवउदारवादी शर्तें व्यापक कॉरपोरेट मिज़ाज का निर्माण कर रही थीं।
आधुनिकतम तकनीकी से लैस इस मीडिया सिस्टम में नए सवाल और नई पेचीदगियाँ भी जुड़ती जा रही हैं। उन्हें समझने, उनके हल के औज़ार तैयार करने के लिए एक बिलकुल ही नए तेवर वाले मुस्तैद जर्नलिस्ट की दरकार है। कहने को वे मल्टीमीडिया न्यूज़पर्सन होंगे लेकिन उन्हें सिर्फ़ स्किल्स में ही दक्षता हासिल नहीं करनी होगी बल्कि उन्हें समाचार के बुनियादी मूल्यों और अपने पेशे की बुनियादी नैतिकताओं पर भी फिर से नज़र डालनी होगी। उन्हें नए ढंग से विश्वसनीयता और प्रामाणिकता हासिल करनी होगी जो इधर कॉरपोरेट मीडिया के विभिन्न क़िस्मों के दबावों, स्वार्थों और लालचों में कमज़ोर पड़ गई है या बिखर गई है या मिटा ही दी जा रही है।
न्यू मीडिया सिर्फ़ वेब का ही मीडिया नहीं माना जाना चाहिए, इसे विश्वास का भी न्यू मीडिया समझना चाहिए। ऐसा करते हुए हमें डॉ. शिलर का यह कथन भी नहीं भूलना चाहिए कि कथित विविधता सांस्कृतिक परजीवीपन है। इसे सांस्कृतिक वैविध्य नहीं समझना चाहिए। प्रस्तुत किताब इंटरनेट की इन तात्कालिक कमज़ोरियों और अन्तर्विरोधों की ओर भी इशारा करती है। यह किताब वेब मीडिया के छात्रों और प्रशिक्षुओं को इस माध्यम की बारीकियों के बारे में बताते हुए लिखी गई है। यह उन सहूलियतों का भी विवरण पेश करती है जो न्यू मीडियाकर्मी के लिए हो सकती हैं। और इसमें पत्रकारिता के बुनियादी उसूल, समाचार ज़रूरतें, भाषा और प्रयोग की विविधताओं जैसे पाठ तो स्वाभाविक रूप से शामिल हैं ही।
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