Narak Gulzar
Author:
Subhash MukhopadhyayPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 64
₹
80
Unavailable
मानवीय गरिमा और सामाजिक मूल्यों की स्थापना के लिए निरन्तर युद्धरत बाडाला के अप्रतिम एवं शीर्षस्थ रचनाकार सुभाष मुखोपाध्याय का मार्मिक उपन्यास है—‘नरक गुलज़ार’।
किसी प्रतिष्ठित उपक्रम का एक वरिष्ठ अधिकारी अचानक कुष्ठ रोग का शिकार हो जाए और फिर अपने सामाजिक जीवन और गिरस्ती को तिलांजलि देकर कोढ़ियों की एक उपनगरीय बस्ती में आकर अपना जीवन गुज़ारने लगे तो किसे यह विश्वास होगा कि वह इस बस्ती का सर्वप्रिय चाचा 'पैन साहब' हो जाएगा! चोरी-चकारी, देसी दारू बनानेवालों और भीख माँगनेवालों की यह बस्ती धीरे-धीरे उसे इतनी प्रिय लगने लगती है कि वह अपने अतीत को भूलकर अपने सामने चुनौती देते वर्तमान को अपना सबकुछ सौंप देता है और सारी बस्ती के सुख-दु:ख उसके अपने-से लगने लगते हैं। कोढ़ से गल गए शरीरों और इसके साथ भूमिसात सपनों की यह अपरिचित दुनिया बाहर से बड़ी ख़ौफ़नाक लगती है, लेकिन कोढ़ियों का अपना संसार कितना रोचक और संवेदनशील होकर धीरे-धीरे सुभाष दा जैसे कवि का रचनात्मक संसार बन जाता है!
नक्सल आन्दोलन से जुड़े कथानकों ने साठ-सत्तर के दशकों में बांग्ला साहित्य में कभी धूम-सी मचा दी थी और आलोचकों ने इसे लेखकों का ‘नक्सलमेनिया’ भी कहा था। राजनीतिक पृष्ठभूमि में कोढ़ियों की बस्ती में युवा नक्सलों के आगमन, पुलिस का दमन-चक्र, व्यवस्था की बर्बरता और फ़र्ज़ी मुठभेड़ में उनका सफ़ाया, एक बुज़ुर्ग कोढ़िन चामुरिया के प्रेम और फिर उसके माँ बनते-बनते गुज़र जाने और इसी बस्ती की सोनी के अनब्याहे मातृत्व जैसी मार्मिक घटनाएँ इस लघु उपन्यास को बेहद जीवन्त बना देती हैं। इस उपन्यास का ताना-बाना कुछ इस तरह बुना गया है कि पाठक को यह पता ही नहीं चलता कि इसने उसे कब अपनी गिरफ़्त में ले लिया है।
ISBN: 9788171193097
Pages: 124
Avg Reading Time: 4 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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यह उपन्यास इस तथ्य को भी स्पष्टता से इंगित करता है कि प्रतिगामी शक्तियों का मुँहतोड़ जवाब शोषण और उत्पीड़न झेल रहे दबे-कुचले ग़रीबजन ही दे सकते हैं, दे रहे हैं।
उपन्यास के पात्र, चाहे वह पाले हो, महमूद हो, शास्त्री जी हों, चौकीदार या मिसिराइन हों, यहाँ तक कि गाय, बछड़ा या कुत्ता झबुआ हो, पाठक के दिल में गहराई तक उतर जाते हैं।
भारतीय समाज के अन्तर्विरोधों को उजागर करता एक स्मरणीय-संग्रहणीय उपन्यास।
Parajay
- Author Name:
A. Fadeyev
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Description:
1927 में फ़देयेव का यह पहला उपन्यास ‘पराजय’ प्रकाशित हुआ जो सुदूर पूर्व में क्रान्ति-विरोधियों के विरुद्ध छापामार क्रान्तिकारी युद्ध (1918-20) का व्यापक, गहन और आधिकारिक चित्र प्रस्तुत करता है। इस उपन्यास से फ़देयेव को राष्ट्रव्यापी ख्याति और मान्यता मिली। 1931 में इस पर एक फ़िल्म भी बनी। प्रकृतवाद और अमूर्त, ऊँची उड़ान वाले स्वच्छन्दतावाद का समान रूप से विरोध करने वाले फ़देयेव ने इस उपन्यास में वास्तविक जीवन का सहज वर्णन करते हुए चरित्रों की संरचना और नैतिक-आत्मिक विकास पर अपना ध्यान गहन रूप में केन्द्रित किया है। उपन्यास की थीम के बारे में स्वयं उन्हीं के शब्दों में :
‘‘गृहयुद्ध के दौरान, मानवीय तत्त्व एक चयनात्मक प्रक्रिया से गुज़रते हैं। हर प्रतिकूल चीज़ को क्रान्ति झाड़-बुहारकर किनारे कर देती है। हर चीज़ जो सच्चे क्रान्तिकारी संघर्ष के लिए अक्षम होती है और जो धारा के प्रवाह के साथ क्रान्ति के शिविर में आ गई रहती है, उसकी निराई-छँटाई कर दी जाती है, और ईमानदार जड़ों वाली हर चीज़ जो क्रान्ति के बीच से आती है, वह लाखों-लाख सृजनशील जनसमुदाय के बीच, इस संघर्ष के दौरान मज़बूत बनती है, फलती-फूलती है और विकसित होती है। लोग आमूलगामी ढंग से रूपान्तरित हो जाते हैं।’’
इस उपन्यास में लेविन्सन का चरित्र कम्युनिस्ट चेतना के उच्च स्तर को दर्शाता है और यह भी दर्शाता है कि एक सच्चे बोल्शेविक का अपने अनुगामियों पर कितना गहरा प्रभाव होता है। 1920 के दशक में साहित्यिक आलोचकों ने ‘पराजय’ को एक प्रयोगात्मक प्रयास बताया जो क्रान्ति के मानव को क्रान्ति-प्रक्रिया के ‘भीतर से’ देखता है और उसके मनोविज्ञान का सूक्ष्म-सटीक विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
—भूमिका से
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