Chak Piran Ka Jassa
Author:
Balwant SinghPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Literary-fiction0 Reviews
Price: ₹ 260
₹
325
Available
हिन्दी के जाने-माने कथाकार बलवन्त सिंह के इस वृहत् उपन्यास में विभाजन से कई वर्ष पूर्व के पंजाब की कहानी है। पात्रों के चयन में लेखक ने बहुत ही सजग दृष्टि का परिचय दिया है, और जीवन के केवल उसी क्षेत्र से उनका चुनाव किया है जो उसके प्रत्यक्ष अनुभव की परिधि में आते हैं। मुख्यत: जाट-पात्रों के माध्यम से पंजाब के तत्कालीन जनजीवन का बड़ा ही सजीव चित्र यहाँ प्रस्तुत किया है।</p>
<p>उपन्यास का ताना-बाना मुख्य रूप से दो पात्रों के इर्द-गिर्द घूमता है। एक अनाथ लड़का जस्सासिंह है जिसके पालन-पोषण का दायित्व अनिच्छा से रिश्ते के चाचा बग्गासिंह को लेना पड़ता है। जब जस्सा जवान हो जाता है तब एक विचित्र समस्या उठ खडी होती है। वे दोनों शक्तिशाली हैं, उजड्ड हैं, और एक-दूसरे के सामने झुकने को तैयार नहीं हैं। दोनों एक-दूसरे से घृणा करते हैं, लेकिन उनके हृदय की गहराइयों में कहीं कोई एक ऐसी सुषुप्त भावना है, जिसे प्रेम तो नहीं, लगाव ज़रूर कहा जा सकता है। उपन्यास की अपनी एक मौलिक भाषा है जो कथा-क्रम के अनुरूप डाली गई है। इन दो पात्रों के अतिरिक्त और भी कई पात्र हैं जो उपन्यास की गति को प्रवाहपूर्ण करते हैं। ज्यों-ज्यों उपन्यास का कथा-चक्र आगे बढ़ता है, चाचा-भतीजे की समस्याएँ जटिल होती जाती हैं। उन दोनों की स्थिति न तो घृणा से मुक्त हो जाने की है और न अलगाव को स्वीकारने की। परस्पर-विरोधी भावनाओं के द्वन्द्व का समाधान अन्तत: जस्सासिंह ढूँढ़ता है और कथानायक की गौरव-गरिमा प्राप्त करता है।</p>
<p>विभिन्न परिस्थितियों के सूक्ष्म मनोविश्लेषण और उपन्यास के जीवन्त पात्रों को प्रयासवश भी विस्मृत कर पाना कठिन है। वस्तुतः ‘चक पीराँ का जस्सा’ सशक्त भाषा-शैली में लिखा गया एक प्रभावशाली उपन्यास है।
ISBN: 9789352211616
Pages: 417
Avg Reading Time: 14 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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- Description: आज़ादी के साथ ही हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता का जो जख़्म देश के दिल में घर कर गया वो समय के साथ मिटने के बजाय रह-रहकर टीसता रहता है। इसे सींचते हैं दोनों सम्प्रदायों के तथाकथित रहनुमा। अफ़वाहों, भ्रान्तियों को हवा देकर साम्प्रदायिकता की आग भड़काई जाती है और उस पर सेंकी जाती है स्वार्थ की रोटी। चन्द गुंडे-माफ़िया अपनी मर्ज़ी से हालात को मनचाही दिशा में भेड़ की तरह मोड़ देते हैं और व्यवस्था अपने चुनावी समीकरण पर विचार करती हुई राजनीति का खेल खेलती है। प्रशासन को पता भी नहीं होता और बड़ी से बड़ी दुर्घटना हो जाती है। क़ानून के कारिन्दे सत्ता की कुर्सी पर बैठे नेताओं की कठपुतली बने रहते हैं। अपने को जनपक्षधर बतानेवाला लोकतंत्र का चौथा खम्भा भी बाज़ार की माँग के अनुसार अपनी भूमिका निर्धारित करता है। प्रिंट ऑर्डर बढ़ाने के चक्कर में सम्पादकीय नीति रातोंरात बदल जाती है और अख़बार किसी ख़ास सम्प्रदाय के भोंपू में तब्दील हो जाता है। साम्प्रदायिकता के इसी मंज़रनामे को बड़ी ही संवेदनशील भाषा में चित्रित करता है यह उपन्यास ‘अगिन पाथर’। मगर इस चिन्ताजनक हालात में भी रामभज, अरशद आलम, चट्टोपाध्याय, हरिभाई चावड़ा, इला और शान्तनु जैसे आम लोग जो मानवीयता की लौ को बुझने नहीं देते। ‘अगिन पाथर’ व्यास मिश्र का पहला उपन्यास है, मगर इसका शिल्प-कौशल और भाषा-प्रवाह इतना सधा हुआ और परिमार्जित है कि पाठक इसे एक बैठक में ही पढ़ना चाहेंगे।
Nirlep Narayan
- Author Name:
Rajendra Ratnesh
- Book Type:

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Description:
यह उपन्यास श्रावक उमरावमल ढढ्ढा की जीवनी पर आधारित है।
श्री ढढ्ढा का जीवन सीधा, सादा और सरल था। रायबहादुर सेठ के पौत्र और एक बड़ी हवेली के मालिक होकर भी उन्होंने आमजन का जीवन जिया। पुरखों द्वारा छोड़ी गई करोड़ों की सम्पत्ति अपने भोग-विलास पर ख़र्च नहीं करके दान कर दी। उनके पुरखे अंग्रेज़ों के बैंकर थे। उनका व्यवसाय इन्दौर, हैदराबाद तक फैला था। महारानी अहल्याबाई के राखीबंद भाई उनके पुरखे थे। उन्होंने पुरखों की सम्पत्ति को छुए बिना नौकरी करके अपना जीवन-यापन किया। श्री ढढ्ढा वस्तुत: एक अकिंचन अमीर थे। वे सचमुच ही निर्लेप नारायण थे।उमरावमल ढढ्ढा मानते थे कि मैं सबसे पहले इनसान हूँ, बाद में हिन्दुस्तानी। उसके बाद जैन। जैन के बाद श्वेताम्बर। स्थानकवासी परम्परा का श्रावक। वे सम्यक् अर्थों में महावीर मार्ग के अनुगामी और अनुरागी थे।
वे हमेशा अपनी बात अनेकान्त की भाषा में कहते थे। अनेकान्त को समझाने का उनका फ़ार्मूला बड़ा सीधा था। वे कहते थे कि 'ही' और ‘भी' में ही अनेकान्त का सिद्धान्त छिपा है। मेरा मत ‘ही’ सच्चा है, यह एकान्तवाद है जबकि अनेकान्त कहता है कि मेरा मत ‘भी’ सच्चा है और आपका मत ‘भी’ सच्चा हो सकता है।
उन्होंने पुरखों के छोड़े करोड़ों रुपयों के धन को छुआ ही नहीं। वकालत, वृत्तिका और व्यवसाय—इन सब में उन्हें वांछित सफलता नहीं मिली। वकालत इसलिए छोड़ दी कि झूठ की रोटी वे नहीं खा सकते थे। वृत्तिका भी गिरते स्वास्थ्य की वजह से लम्बी नहीं चली। व्यवसाय में घाटे पर घाटे लगे। जो कुछ पास में बचा, वह दान-पुण्य में लुटा दिया।
उन्होंने अमीरी को छोड़ ग़रीबी को अपनाया। जब भी कोई ढढ्ढा हवेली की भव्यता को देखता तो उसकी आँखें आश्चर्य से फटी की फटी रह जातीं कि इतनी बड़ी हवेली का स्वामी एक सीधी-सादी ज़िन्दगी जी रहा है।
Para Para
- Author Name:
Pratyaksha
- Book Type:

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Description:
समाज की, प्रेम की, और देह की एक-दूसरे को काटती नैतिकताओं के द्वन्द्व में उलझा एक मन है जो फ़ौरी राहत के लिए अपने अतीत के सफ़र पर निकल पड़ता है। अतीत की नीम रौशन गलियों में जहाँ अपने-अपने वक़्तों को जीते पुरखे हैं, पुरखिनें हैं, उनके रिश्ते हैं, सुख-दुख हैं, उनका वैभव है, एक बड़ी दुनिया जो अब तुड़ी-मुड़ी पुरानी तस्वीरों और पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आती स्मृतियों में जीवित है।
अपने विवाहित जीवन में आई प्रेम की ताज़ा और जीवन्त हिलोर में बँधी हीरा सिर्फ़ प्रेम की सम्पूर्णता को जानती है, और उसे उसी निष्पाप भाव से जीना चाहती है; लेकिन जीवन की सुपरिभाषित सरणियों में न उसकी कामना अँट पाती है, न उसका प्रेम। नतीजा ख़ुद की और अपने सुकून की तलाश में भीतर और बाहर का सफ़र जो अपने साथ हमें भी एक दूसरी ही दुनिया में ले जाता है; जो परिवार अब दुनिया के अलग-अलग शहरों में फैला हुआ है, उसकी गहरी जड़ों को छूने की कोशिश ताकि कहीं से अपने आज के खंड-खंड सच को समझने का कोई सूत्र मिल जाए। वह सुकून मिल जाए जो किसी भी साँस लेती देह को चाहिए।
प्रत्यक्षा का यह नया उपन्यास स्मृति और इच्छा की इसी बुनत में एक सघन पाठ की रचना करता है।
Salaam Bombay Via Versova Dongri
- Author Name:
Sarang Upadhyay
- Book Type:

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Description:
ग्यारह किस्सों के जरिए, प्रेम की शक्ति और विश्वास की डोर तक पहुँचने वाला यह उपन्यास ‘यूनिक’ है, मुम्बई के निम्न-मध्यवर्गीय जीवन का मिनिएचर बनाते हुए हिन्दी कथा-साहित्य में एक दुर्लभ और विरल पाठकीय अनुभव की सर्जना करता है, राघव और सायरा जैसे दो यादगार किरदारों के जरिए रंग और बदरंग के बीच भावनात्मकता का उदास उत्सव मनाता है और सपनों का ताना-बाना बुनता है। यह सब करते हुए सारंग उपाध्याय का उपन्यास ‘सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी’ मुम्बई की आत्मा को एक कड़क कथात्मक सलाम ठोंकता है, वह आत्मा जिसका नाम ‘जिजीविषा’ है। साहित्य की आत्मा का नाम भी दरअसल यही है।
—गीत चतुर्वेदी
Teri Hi Tasveer
- Author Name:
Harsh Ranjan
- Book Type:

- Description: महाभारत और गीता के कृष्ण भूले-भटके, थके-थके से सूरदास और मीराबाई के भजन सुन रहे थे... वो हाथ के सुदर्शन औरकुरुक्षेत्र के रण से अलग अपनी एक नयी पहचान बुन रहे थे...फिर मैंने उनकी गैया नहीं देखी... मैया भी नहीं देखी... सिर्फपरकटे मोर-मोरनी और कभी की रंग-बिरंगी चिडि़यां देखी। ...फिर सारे मोरपंख मैंने स्याही में डाले और हजार पन्नों का सफर सिर्फकृष्ण-कृष्ण लिखकर निकाल डाले। हरेक सौवां पन्ना मील का एक पत्थर था जिसे कृष्ण का अभय और वर था...और खुद ये उनके लिएआश्वासन था कि उनकी पहचान लिखने का साधन आखिरी हर नये युग के नये कृष्ण का आह्वाहन था।
Sabrang
- Author Name:
S. D. Ojha
- Book Type:

- Description: यह नाम है उस अद्वितीय प्रयास का, जो भारतीय संस्कृति, कला, इतिहास, दर्शन, और जीवन शैली की अथाह गहराइयों को शब्दों की माला में पिरोता है। बालपन की मासूमियत से लेकर यौवन के जोश तक, साप्ताहिक पत्रिकाओं के मधुर स्वाद से लेकर साहित्य की गहराइयों में खुद की खोज तक - श्री एस. डी. ओझा जी की सेवानिवृत्ति के बाद की लेखनी से उपजे इन लेखों में वह सब मौजूद है जो आपकी आत्मा को स्पर्श कर सकता है। इस पुस्तक में उन्होंने ऐसी रचना की है जो पाठकों को ज्ञान की गहराइयों में ले जाने के साथ-साथ उन्हें अनुप्रेरित भी करती है। जीवन के अनेक रंगों को समेटे ‘सबरंग’ आपको उस यात्रा पर ले चलेगा जहाँ प्रत्येक पृष्ठ एक नवीन रंग, एक नवीन सोच, और एक नवीन दर्शन की प्रतीक्षा में है। आइए, ‘सबरंग’ के पन्नों को उलटें और अपने जीवन को इन विचारों के रंगों से संवारें। यह पुस्तक आपके पुस्तकालय का एक अमूल्य निधि बन जाएगी।
Khabsoorat Bahoo
- Author Name:
Nag Bodas
- Book Type:

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Description:
— दिल्ली रंगमंच पर अब तक का यह सर्वोत्तम संगीत फॉम।
रोमेशचन्द्र (‘द हिन्दू’, 15 मई, 1992)
शहरों में बसे हिन्दी के नाटककार अपने नाटकों में आमतौर पर किसी बोली का उपयोग करने से कतराते हैं, जिस कारण हिन्दी में केवल बोली में लिखी गईं पाण्डुलिपियाँ अत्यन्त नगण्य हैं। ग्वालियर के आसपास प्रचलित बुन्देली और ब्रज के मिश्रण से बनी बोली में लिखा नाटक ‘खबसूरत बहू’ इस दिशा में एक स्वागत योग्य क़दम है।
—नेमिचन्द्र जैन (‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’, नई दिल्ली, 21 मई, 1992)
नाटक की हर घटना मन को छू रही थी।
—जगमोहन (‘नवभारत टाइम्स’, नई दिल्ली)
प्रतिमा काजमी का सतत सन्तुलित चरित्रांकन नाटक को बाँधकर रखता है।
—कविता नागपाल (‘हिन्दुस्तान टाइम्स’, नई दिल्ली, 17 मई, 1992)
जो बात स्पष्ट रूप से दिखलाई देती है, वह यह है कि चरित्रों की बारीकियों को बख़ूबी उजागर किया गया है और नाटककार ने गाँव के जीवन को देखने में काफ़ी समय लगाया है।
—मोनिका नरूला (‘इंडियन एक्सप्रेस’, नई दिल्ली, 17 मई, 1992)
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