Upanyason Ke Rachna Prasang
Author:
Kushum VashneyPublisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 716
₹
895
Available
ी भी कृति की रचना-प्रक्रिया को जानना बेहद दिलचस्प और रोमांचक होता है। मानस की कितनी ही गूढ़ और अनजानी परतों से होकर कोई रचना जन्म लेती है। प्रस्तुत पुस्तक में लेखिका ने विभिन्न महत्त्वपूर्ण उपन्यासों की रचना-प्रक्रिया की परख-पड़ताल की है। पुस्तक के पहले दो अध्याय— ‘अंकुरण : अनुभूति से अभिव्यक्ति बिन्दु तक की प्रक्रियाएँ’ और ‘अवतरण : अभिव्यक्ति की प्रक्रियाएँ’ में रचना-प्रक्रिया को समझने और विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है। इसमें देश-विदेश के बहुत से उपन्यासकारों के वक्तव्यों और विचारों को इसीलिए संकलित किया गया है ताकि भिन्न-भिन्न परिवेश और देश, विभिन्न संस्कृति और सभ्यता, विभिन्न भाषायी उपन्यासकारों के वक्तव्यों को आमने-सामने रखकर रचना-प्रक्रिया का सार्थक विश्लेषण किया जा सके।
पुस्तक में संकलित ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ के अवतरण की कहानी विशेष उपलब्धि है जिसमें अमृतलाल नागर के इस महत्त्वपूर्ण उपन्यास के रचना-प्रसंग की कथा बयान की गई है। पाठकों के लिए हमेशा ही काम आनेवाली एक महत्त्वपूर्ण कृति।
ISBN: 9788183611053
Pages: 283
Avg Reading Time: 9 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
Recommended For You
Saat Bhumikayen
- Author Name:
Mahadevi Verma
- Book Type:

-
Description:
छायावाद की यशस्वी रचनाकार महादेवी वर्मा का लेखन किसी न किसी रूप में पाठकों व आलोचकों को आन्दोलित करता आया है। कभी उनकी रचनाओं में उनके जीवन के बिखरे सूत्र रेखांकित किए जाते हैं तो कभी उनके जीवन में रचनाओं के स्रोत खोजे जाते हैं। महादेवी द्वारा लिखित प्रत्येक शब्द स्वयं को ध्यान से पढ़े जाने का आग्रह करता है। ‘सात भूमिकाएँ’ में ‘रश्मि’, ‘सांध्यगीत’, ‘आधुनिक कवि’, ‘दीपशिखा’, ‘बंग–दर्शन’, ‘सप्तपर्णा’ एवं ‘हिमालय’ कविता–संग्रहों की भूमिकाएँ हैं। महादेवी वर्मा लिखित इन भूमिकाओं का ऐतिहासिक महत्त्व है। ये भूमिकाएँ उनकी तत्कालीन मन:स्थिति को प्रकट करने के साथ उनके समग्र लेखन पर एक ‘अन्त:साक्ष्य’ की भाँति हैं। ‘सात भूमिकाओं’ के सम्पादक दूधनाथ सिंह का सम्पादकीय ‘छायावाद : व्यथा का सवेरा’ अत्यन्त विचारोत्तेजक है। अपनी विशिष्ट ‘तर्कसंगत पद्धति’ से दूधनाथ सिंह ने महादेवी के रचनाकर्म को विवेचित किया है—‘उनके वाक्य स्पष्ट, पारदर्शी व निर्भ्रान्त हैं, ‘महादेवी की आलोचनाएँ शब्द–अलंकृति अधिक हैं, आलोचनाएँ कम। उनका सारा वैचारिक गद्य–लेखन लगभग ऐसा ही है। उनमें तर्क और विश्लेषण का अभाव है। अपनी हर अगली बात के लिए महादेवी तर्क की जगह कोई प्रतीक–बिम्ब ढूँढ़ने लगती हैं।’
दूधनाथ सिंह के सम्पादकीय के प्रकाश में महादेवी की इन सात भूमिकाओं को पढ़ना एक आलोचनात्मक अनुभव है। तब और भी जब महादेवी के चुटीले ‘सुरक्षात्मक वाक्य’ उनकी प्रत्येक भूमिका में हैं। ‘रश्मि’ संग्रह की ‘अपनी बात’ का पहला ही वाक्य, ‘अपने विषय में कुछ कहना प्राय: बहुत कठिन हो जाता है, क्योंकि अपने दोष देखना अपने आपको अप्रिय लगता है और इनको अनदेखा कर जाना औरों को...।’ एक संग्रहणीय पुस्तक।
Deshbhakti ke pavan teerth
- Author Name:
Rishi Raj
- Book Type:

- Description: Awating description for this book
Stree Adhyayan Ki Buniyad
- Author Name:
Pramila K.P.
- Book Type:

-
Description:
इस पुस्तक में स्त्री-विमर्श के शुरुआती इतिहास, और विश्व में विभिन्न चरणों में उसका विकास कैसे हुआ, इसका तथ्यात्मक ब्योरा दर्ज किया गया है। तदुपरान्त हिन्दी साहित्य, विशेषतया कहानी में आज यह विमर्श किस तरह व्यक्त हो रहा है, उसका भी बेबाक विश्लेषण किया गया है।
अठारहवीं सदी में यूरोप में शुरू हुआ नारीवादी चिन्तन कई धाराओं में विकास की मौजूदा स्थिति तक पहुँचा है। उदारवादी नारीवाद समाज के व्यापक सरोकारों को समेटकर चलता है तो उग्रवादी नारीवाद सामाजिक संरचना में आमूलचूल परिवर्तन का हिमायती रहा है। इनके साथ मार्क्सवादी तथा अश्वेत नारीवाद की धाराएँ भी रहीं, और समाजवादी नारीवाद भी देखने में आया। ग़रज़ कि उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में जो चिन्ता समूचे विश्व में सबसे व्यापक रही, वह स्त्री की अस्मिता, उसके अधिकारों के इर्द-गिर्द स्थित रही और इसका परिणाम है कि आज कुछ चिन्तक 21वीं सदी को स्त्रियों की सदी कह रहे हैं और नारीवादी विमर्श अलग-अलग समाजों में यौन-राजनीति के अलग-अलग पहलुओं को समझने के लिए जूझ रहा है।
यह पुस्तक इस विमर्श के बनने-बढ़ने के इतिहास को जानने-समझने में बेहद सहायक होगी।
Hindi Aalochana Mein Canon Nirman Ki Prakriya
- Author Name:
Mrityunjay
- Book Type:

-
Description:
हिन्दी में ‘कैनन’ शब्द के लिए मान, मूल्य, प्रतिमान, मानक आदि शब्द प्रयुक्त किए जाते रहे हैं, लेकिन बतौर अवधारणा ‘कैनन’ के आशय का वहन इनमें से कोई भी शब्द नहीं करता। हाँ, हिन्दी आलोचना में सैद्धान्तिक बहसों से इस अवधारणा के कुछ सूत्र अवश्य निकाले जा सकते हैं।
बकौल लेखक, “मैंने पाया कि हिन्दी आलोचना में कैनन-निर्माण की प्रक्रिया इतिहास की बहसों से गहरे रची-बसी है। लगभग हर आलोचक ने अपने समय-समाज पर टिप्पणी की है। ये टिप्पणियाँ कभी सीधी राजनीतिक हैं तो कभी वे आलोचना के बीच से झाँकती हैं। अपने समय-समाज में चल रहे नवजागरण और हिन्दी आलोचना के उद्भव का सम्बन्ध बहुत घना है। हमारे राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया से कैनन-निर्माण की प्रक्रिया का बहुत दूर तक सम्बन्ध है। जैसे-जैसे देश बन रहा था, वैसे-वैसे आलोचना के कैनन और उनके आधार भी बदल रहे थे।
...बाद इसके आलोचना के कैनन-निर्माण की प्रक्रिया मार्क्सवाद के समर्थन और विरोध की धुरी पर गतिशील रही। ...अभी हिन्दी आलोचना में कैनन-निर्माण के लिहाज़ से अस्मिता-विमर्श, स्त्री और दलित-विमर्श महत्त्वपूर्ण हैं। इनसे जुड़े आलोचक पुराने कैननों और उनके निर्माण की प्रक्रियाओं पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं।” इस पुस्तक में कैनन की व्युत्पत्ति, इतिहास, पश्चिमी आलोचना में कैनन पर हुए विमर्श, और तदुपरान्त हिन्दी आलोचना में मिश्र-बन्धु, रामचन्द्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, नामवर सिंह और निर्मल वर्मा से होते हुए दलित तथा स्त्री-अस्मिता के विमर्शों तक की कैनन-निर्माण प्रक्रिया को समझने की कोशिश की गई है।
Surya Pranam
- Author Name:
Bimal Dey
- Book Type:

- Description: र्य प्रणाम’ का स्थान-काल, पात्र तथा घटनाएँ सभी वास्तविक हैं। मैं पर्यटक हूँ वास्तविक घटनाओं का उल्लेख करना ही मेरा धर्म है। यथार्थ के वर्णन में एकरसता आ जाती है। मैं एक पथिक हूँ अपनी यात्राओं के दौरान जो भी मैं देखता हूँ मुझे जो अनुभव होता है, उसी को मैं अपने पाठकों तक पहुँचाने का प्रयत्न करता हूँ। मैंने अपनी यात्राओं के दौरान बहुत से मन्दिर, मठ और पूजास्थल देखे हैं, बहुत से तीर्थों में जाकर शीश नवाया है। हिमालय के बहुतेरे तीर्थस्थलों में मैंने देव-स्पर्श पाया, हिमालय की पुण्यभूमि में ही पुण्यात्माओं का आविर्भाव सम्भव है। एंडीज की यात्रा ने मुझे तपस्या की अन्तिम सोपान पर पहुँच दिया था। एंडीज तथा मध्य व दक्षिणी अमरीका की प्राचीन सभ्यता में ज्यों सूर्य को मूल देवता का स्थान प्राप्त था, त्यों ही जापान का मूल देवता भी सूर्य है। जापान के सम्राट को सूर्य का प्रतिनिधि मानते हैं, जापानी पताका का प्रतीक चिह्न भी सूर्य है। सूर्य का प्रभाव जापानियों के चरित्र में भी दिखाई देता है। सूर्य शक्ति और ओज का प्रतीक है। ‘सूर्य प्रणाम’ ग्रन्थ सूर्य-देवता के प्रति मेरा अर्घ्य है। सूर्य को देवता माननेवाले जापान और एंडीज में मैंने जो कुछ देखा, सुना और जाना, उसी अनुभव को मैं इस लेखन के ज़रिए अपने पाठकों तक पहुँचा रहा हूँ। —इसी पुस्तक की भूमिका
Hindi Upanyas Ka Itihas
- Author Name:
Gopal Ray
- Book Type:

-
Description:
बीसवीं शताब्दी के अन्त के साथ हिन्दी उपन्यास की उम्र लगभग 130 वर्ष की हो चुकी है। बड़े ही बेमालूम ढंग से 1970 ई. में पं. गौरीदत्त की ‘देवरानी-जेठानी की कहानी’ के रूप में इसका जन्म हुआ, जिसकी तरफ़ लगभग सौ वर्षों तक किसी का ध्यान भी नहीं गया। लेखक ने पुष्ट तर्कों के आधार पर ‘देवरानी-जेठानी की कहानी’ को हिन्दी के प्रथम उपन्यास के रूप में स्वीकार किया है और 1970 ई. से 2000 ई. तक की अवधि में हिन्दी उपन्यास के ऐतिहासिक विकास को समझने का प्रयास किया है।
हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकों के प्रामाणिक विवरण का अभिलेख सुरक्षित रखने की समृद्ध और विश्वसनीय परम्परा प्रायः नहीं है। इस कारण हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन में अनेक प्रकार की मुश्किलें आती हैं। इस पुस्तक में पहली बार लगभग 1300 उपन्यासों का उल्लेख उनके प्रामाणिक प्रकाशन-काल के साथ किया गया है। यह दावा तो नहीं किया जा सकता कि इस किताब में कोई महत्त्वपूर्ण उपन्यासकार या उपन्यास छूट नहीं गया है, पर इस बात की कोशिश ज़रूर की गई है। साहित्य के इतिहास में सभी लिखित-प्रकाशित रचनाओं का उल्लेख न सम्भव है न आवश्यक, इसलिए सचेत रूप में भी अनेक उपन्यासों का ज़िक्र इस पुस्तक में नहीं किया गया है।
साहित्य के इतिहास में पुस्तकों की प्रकाशन-तिथियों की प्रामाणिकता के साथ-साथ यह भी ज़रूरी होता है कि सम्बद्ध विधा के विकास की धाराओं की सही पहचान की जाए। विधा के रूप में हिन्दी उपन्यास का विकास अभी जारी है। विकास ‘ऐतिहासिक काल’ में ही होता है और इतिहास में प्रामाणिक तथ्यों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। कोशिश यह की गई है कि यह पुस्तक हिन्दी उपन्यास का मात्र ‘इतिहास’ न बनकर ‘विकासात्मक इतिहास’ बने।
Dhoop Chhanh
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

-
Description:
‘धूपछाँह’ हिन्दी साहित्य में अपने ढंग की एक दुर्लभ कृति है। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा समय-समय पर दूसरी भाषाओं की रचनाओं से प्रेरित हो किशोरों के लिए लिखी गई इन कविताओं में ओजस्विता तो है ही, प्रांजल प्रवाहमयी भाषा, उच्चकोटि का छंद-विधान और भाव-सम्प्रेषण भी अद्भुत है।
राष्ट्रकवि ने अपनी इन कविताओं की पृष्ठभूमि के बारे में लिखा है—“ ‘धूपछाँह’ में धूप कम और छाया अधिक है। इसकी सोलह कविताओं में से दो (‘दो बीघा ज़मीन’ और ‘पुरातन भृत्य’) के मूल लेखक रवि बाबू, दो (‘तन्तुवाय’ और ‘तीन दर्द’) की मूल लेखिका श्रीमती सरोजिनी नायडू और एक (‘नींद’) के मूल लेखक गॉड्फ्रे नामक एक पाश्चात्य कवि हैं। ‘बच्चे का तकिया’ और ‘वर-भिक्षा’ सत्येन्द्रनाथ दत्त की बांग्ला कविताओं से ली गई हैं, मगर इनके मूल रचयिता, क्रमशः मार्सेलिन बाल्मोर और नगूची हैं। ‘पानी की चाल’ नामक रचना भी सर्वथा मौलिक नहीं कही जा सकती, क्योंकि यह रॉबर्ट सदी और अकबर इलाहाबादी के अनुकरण पर लिखी गई है। ‘कवि का मित्र’ रचना भी, जिसने मेरे कितने ही घनिष्ठ मित्रों को सिर खुजलाते हुए कुछ सोचने को लाचार किया है, सोलह आना मेरी ही स्वानुभूति नहीं है। ऐसे चरित्र का वर्णन दो-एक अंग्रेज़ी लेखकों और कवियों ने भी किया है जिनमें एक का नाम जॉन गॉड्फ्रे सैक्से है। इसी प्रकार ‘रौशन बे की बहादुरी’ का प्लॉट लांगफेलो की एक कविता से लिया गया है।”
इस तरह देखें तो पुस्तक में संकलित रचनाएँ अपने कैनवस पर अपने विविध रंगों में परिचित दुनिया की आत्मीय और अविस्मरणीय रचनाएँ हैं। निस्सन्देह, राष्ट्रकवि दिनकर की यह कृति युवा पीढ़ी को एक नया सन्देश देगी, देती रहेगी।
Hindi Sahitya Aur Samvedana Ka Vikas
- Author Name:
Ramswaroop Chaturvedi
- Book Type:

-
Description:
हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने की क्या-क्या समस्याएँ हैं, इसे लेकर एकाधिक पुस्तकें लिखी जा सकती हैं, किसी रूप में लिखी भी गई हैं। कुछ लेखक-समूहों, मुख्यत: शोधकर्ताओं द्वारा इतिहास की सामग्री के संकलन प्रस्तुत हुए हैं, जो अपने आपमें उपयोगी हैं। पर नहीं लिखा गया तो इतिहास, रामचन्द्र शुक्ल और छायावाद के बाद। ऐसे चुनौती-भरे वातावरण में साहित्य और संवेदना के विकास को साथ-साथ व्याख्यायित करते चलना कितना कठिन है, यह सहज अनुमान किया जा सकता है।
किसी भी साहित्य के इतिहास की अच्छाई को जाँचने की दो कसौटियाँ हो सकती हैं। एक तो यह कि वह कहाँ तक, साहित्य की ही तरह, विविध पाठक-वर्गों की अपेक्षाओं की एक साथ पूर्ति करता है। और दूसरे यह कि वह साहित्य को उप-साहित्य से अलग करके चलता है या नहीं, विशेष रूप से एक ऐसे युग में जबकि संचार-माध्यम साहित्य के विविध सीमान्तों से टकरा रहे हैं। दूसरे शब्दों में कि वह इतिहास असल में कितनी दूर तक साहित्य का इतिहास है, इन कसौटियों पर परखकर प्रस्तुत अध्ययन की जाँच स्पष्ट ही आप स्वयं करेंगे। अपनी ओर से हम इतना अवश्य कहना चाहेंगे कि समूची साहित्य-प्रक्रिया की जैसी संवेदनशील समझ विकसित करने का यत्न यहाँ हुआ है वैसी ही विश्वसनीय तथ्य-सामग्री भी जुटाई गई है, जो अपने आपमें एक विरल संयोग है।
अब प्रस्तुत है ‘विकास’ का नया संवर्द्धित संस्करण। गत एक दशक में हुए विविध संस्करण जहाँ इस इतिहास की पाठक समाज में व्यापक स्वीकृति का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं, वहीं यह इस प्रयत्न का परिचायक है कि पुस्तक के कलेवर को बिना अनावश्यक रूप से स्फीत किए इस दशक की नई रचना-उपलब्धियों को कैसे समाविष्ट किया जा सकता है। यों ‘विकास’ अपने नामकरण को स्वत: प्रमाणित कर सके, यह इस नए संवर्द्धित संस्करण की, नई मुद्रण-शैली के साथ, प्रमुख विशेषता होनी चाहिए।
Kahani Nai Kahani
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

-
Description:
प्रस्तुत पुस्तक लगभग एक दशक की चिन्तन-यात्रा की पगडंडी है जिसमें कथा-समीक्षा की एक पद्धति निकालने की कोशिश की गई है।
इस कहानी में आलोचना की वही विश्लेषणात्मक पद्धति अपनाई गई है जो पिछले कुछ दशकों से छोटी कविताओं के विश्लेषण में सफल पाई गई थी। इस निबन्ध से, मेरे निकट, उन लोगों के लिए भी उत्तर प्रस्तुत था जिनका यह आरोप था कि मैं कहानी-समीक्षा में काव्य-समीक्षा की पद्धति का बलात् उपयोग करके भूल कर रहा हूँ।
हिन्दी आलोचना जो अभी तक मुख्यतः काव्य-समीक्षा रही है, कविता से कथा-नाटक आदि साहित्य-रूपों का विधिवत् विश्लेषण करके ही अपने को सुसंगत एवं समृद्ध बना सकती है। कहानी-समीक्षा सम्बन्धी ये निबन्ध इसी दिशा में विनम्र प्रयास हैं। इसीलिए इनका महत्त्व केवल कहानियों की समीक्षा तक सीमित न होकर एक व्यापक समीक्षा-पद्धति के निर्माण की दिशा में है।
Bharat Ki Bhasha Samasya
- Author Name:
Ramvilas Sharma
- Book Type:

- Description: भारत की भाषा-समस्या एक ज्वलन्त राष्ट्रीय समस्या है। सुप्रसिद्धप्रगतिशील आलोचक और विचारक डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार यह ‘विशुद्ध भाषा-विज्ञान कीसमस्या’ नहीं बल्कि ‘बहुजातीय राष्ट्र के गठन और विकास की ऐतिहासिक-राजनीतिक समस्या’ है। स्वाधीनता के तीन दशक बाद भी अगर यह समस्या ज्यों-की-त्यों बनी है तो सम्भवतः इसलिए कि उनकी तरह औरों ने भी इस समस्या को इसके वास्तविक और व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने का प्रयास नहीं किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में रामविलास जी ने भाषा-समस्या के विभिन्न पक्षों की विस्तार से चर्चा की है तथा इस बात पर बल दिया है कि सबसे पहले अंग्रेज़ी के प्रभुत्व को समाप्त करना आवश्यक है, क्योंकि वह भारत की सभी भाषाओं पर साम्राज्यवादियों द्वारा लादी हुई भाषा है। भारत की भाषा-समस्या के हल के लिए वह ‘अनिवार्य राष्ट्र-भाषा’ नहीं, बल्कि सम्पर्क भाषा की बात करते हैं जो हिन्दी ही हो सकती है। हिन्दी के जातीय स्वरूप की चर्चा के सन्दर्भ में वह यह स्पष्ट करते हैं कि हिन्दी और उर्दू में ‘बुनियादी एकता’ तथा हिन्दी की जनपदीय बोलियाँ परस्पर-सम्बद्ध हैं। भाषा-समस्या पर भारतीय जनता का सामाजिक और सांस्कृतिक भविष्य निर्भर करता है, इसलिए वह इसे आवश्यक मानते हैं कि ‘हम अपने बहुजातीय राष्ट्र की विशेषताएँ पहचानें, इस राष्ट्र में हिन्दी-भाषी जाति की भूमिका पहचानें।’इस पुस्तक में दिए गए उनके अकाट्य तर्क समस्या को समझने की सही दृष्टि ही नहीं देते, समस्या-समाधान की दिशा में मन को आन्दोलित भी करते हैं।
Aadhunik Kavita Yatra
- Author Name:
Ramswaroop Chaturvedi
- Book Type:

-
Description:
प्रस्तुत पुस्तक ‘आधुनिक कविता-यात्रा’ में प्रमुखतः छायावाद के उदय तक का विवेचन हुआ है। छायावाद और परवर्ती काव्य के महत्त्वपूर्ण विकास-क्रमों को इस ग्रन्थ में उठाया गया है।
आधुनिक हिन्दी कविता के राष्ट्रीय संस्कार परिवर्तन या विकास-क्रम का उल्लेख भी किया गया है। एकाधिकार देशभक्ति की सामान्य मानवीय वृत्ति सचेतन होकर राष्ट्रीयता का रूप ग्रहण करती है। और यों यह स्वचेतन राष्ट्रबोध आधुनिक संवेदना का पहला महत्त्वपूर्ण कारण और प्रमाण दोनों है।
आशा है, यह पुस्तक विधार्थियों, शोधार्थियों तथा अध्यापकों का मार्गदर्शन करने में सफल सिद्ध होगी।
Vichar Ka Aina Kala Sahitya Sanskriti : Mahadevi Verma
- Author Name:
Mahadevi Verma
- Book Type:

-
Description:
विचार का आईना शृंखला के अन्तर्गत ऐसे साहित्यकारों, चिन्तकों और राजनेताओं के ‘कला साहित्य संस्कृति’ केन्द्रित चिन्तन को प्रस्तुत किया जा रहा है जिन्होंने भारतीय जनमानस को गहराई से प्रभावित किया। इसके पहले चरण में हम मोहनदास करमचन्द गांधी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, राममनोहर लोहिया, रामचन्द्र शुक्ल, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ और गजानन माधव मुक्तिबोध के विचारपरक लेखन से एक ऐसा मुकम्मल संचयन प्रस्तुत कर रहे हैं जो हर लिहाज से संग्रहणीय है।
छायावाद के आधार स्तम्भों में से एक महादेवी कवि और विमर्शकार दोनों ही रूपों में अद्वितीय हैं। अपनी कविताओं में उन्होंने स्त्री जीवन की मार्मिक विडम्बनाओं को स्वर दिया है तो अपनी चर्चित कृति ‘शृंखला की कड़ियाँ’ में उन्होंने उन अवरोधों की सटीक पहचान की जिन्होंने सदियों से स्त्री को पराधीनता के घेरे में रोक रखा है। स्त्री की अस्मिता की खोज करते हुए अपने पूरे परिवेश के प्रति सहज राग उनके समूचे चिन्तन को उल्लेखनीय विशिष्टता प्रदान करता है। करुणा उनके चिन्तन की धुरी है। हमें उम्मीद है कि उनके कला, साहित्य और संस्कृति सम्बन्धी प्रतिनिधि निबन्धों की यह किताब उन पाठकों के लिए बहुत उपयोगी होगी जो भारतीय स्त्री जीवन की विडम्बनाओं को समझते हुए उसकी मुक्ति के देशज स्रोतों की तलाश में हैं।
Vivah Ki Museebaten
- Author Name:
Ramdhari Singh Dinkar
- Book Type:

-
Description:
यह पुस्तक राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के चिन्तनपूर्ण, लोकोपयोगी निबन्धों का श्रेष्ठ संकलन है। दिनकर जी के चिन्तन-स्वरूप का विस्मयकारी साक्षात्कार करानेवाले ये निबन्ध पाठक के ज्ञान-क्षितिज का विस्तार भी करते हैं। इन निबन्धों में जहाँ एक ओर विवाह, प्रेम, काम, नैतिकता और शिक्षा जैसे विषयों पर विद्वान कृतिकार का सन्तुलित दृष्टिकोण उद्घाटित होता है, वहीं दूसरी ओर लोकतंत्र, धर्म और विज्ञान तथा मूल्य-ह्रास जैसे ज्वलन्त प्रश्नों पर उनकी प्रगतिशील दृष्टि मार्गदर्शक की भूमिका निभाती है।
भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति-पद पर कार्य करते हुए दिनकर जी ने जो अनुभव किया, उसका लेखा-जोखा प्रस्तुत है ‘शिक्षा : तब और अब’ निबन्ध में इस चेतावनी के साथ कि ‘शिक्षा का स्तर अभी भी बहुत नीचा है। अगर वह और भी नीचे लाया गया तो बेकारों की फ़ौज बढ़ेगी और उनकी फ़ौज भी, जिन्हें कोई भी काम नहीं सौंपा जा सकता।’
इसी तरह ‘पुरानी और नई नैतिकता’, ‘लोकतंत्र : कुछ विचार’, ‘धर्म और विज्ञान’, ‘मूल्य-ह्रास के पच्चीस वर्ष’ निबन्धों में सारगर्भित विचार-सूक्तियाँ ही नहीं, एक प्रबुद्ध विचारक की सामयिक चेतावनी भी है।
ये निबन्ध राष्ट्रकवि दिनकर के व्यक्तित्व को भी समझने में सहायक सिद्ध होते हैं।
समाज में अनन्त काल से प्रेम के प्रति सन्तों, चिन्तकों और शास्त्रकारों का व्यवहार पुलिस का-सा रहा है। और उन्हीं के भय से मनुष्य ने अपने चेहरे पर पवित्रता का नक़ाब लगाना मंज़ूर कर लिया, यद्यपि इस नक़ाब का उसे अभ्यास नहीं था। अथवा यों कहें कि यह नक़ाब जितने अच्छे सूत का है, उतने बारीक और महीन सूत आदमी की भीतरी ज़िन्दगी में नहीं काते जाते।
Hindi Sahitya : Ek Parichya
- Author Name:
Fanish Singh
- Book Type:

-
Description:
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, ‘प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य-परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना साहित्य का इतिहास कहलाता है।’ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का मत है कि ‘साहित्य का इतिहास ग्रन्थों और ग्रन्थकारों के उद्भव और विलय की कहानी नहीं है, वह काल स्रोत में बहे आते हुए जीवन्त समाज की विकास कथा है।’ हिन्दी के इन दोनों मूर्धन्य विचारकों की परिभाषाओं से स्पष्ट है कि साहित्य जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिम्ब है।
चित्तवृत्तियाँ समय एवं काल के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं। अतएव साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता रहता है। इन परिस्थितियों के आलोक में साहित्य की इस विकासशील प्रवृत्ति को प्रस्तुत करना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है। कहना न होगा कि साहित्य का विश्लेषण, अध्ययन केवल साहित्य एवं साहित्यकार तक सीमित रखकर नहीं किया जा सकता। साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियों की प्रस्तुति के लिए उससे सम्बन्धित राष्ट्रीय परम्पराओं, सामाजिक परिस्थितियों, आर्थिक परिस्थितियों, उस युग की चेतना, साहित्यकार की प्रतिभा तथा प्रवृत्ति का विश्लेषण आवश्यक है। देशकाल परिस्थिति भेद से समाज का स्वरूप परिवर्तित होता रहता है, साहित्य समाज का ही प्रतिबिम्ब होता है। स्पष्टतः समाज के स्वरूप के परिवर्तन का प्रभाव साहित्य पर पड़ता है। इस प्रकार साहित्य का इतिहास न केवल विकासशील प्रक्रिया का उद्घाटन करता है, बल्कि इस क्रम में नए और पुराने संघर्ष को भी रेखांकित करता चलता
है।इसके अतिरिक्त इसमें साहित्य एवं समाज को प्रभावित करनेवाले विभिन्न आन्दोलनों, परिवर्तनों और प्रयोगों के सम्बन्ध का भी विवेचन होता है। साहित्य के इतिहास में रचना और रचनाकार की सृजनात्मक क्षमता को वर्तमान की कसौटी पर कसा जाता है। विश्वम्भर मानव के शब्दों में, ‘किसी भाषा में उस साहित्य का इतिहास लिखा जाना उस साहित्य की समृद्धि का परिणाम है। साहित्य के इतिहास को वह भित्तिचित्र समझिए जिसमें साहित्यिकों के आकृति-चित्र नहीं होते, हृदय-चित्र और मस्तिष्क-चित्र ही होते हैं।’
—इसी पुस्तक से
Aadikaleen Aur Madhyakaleen kaviyon Ka Aalochanatmak Paath
- Author Name:
Hemant Kukreti
- Book Type:

-
Description:
भारतीय जनमानस में अगर धर्म के बाद किसी भावना को बहुत साफ़ ढंग से देखा जा सकता है, तो वह कविता-प्रेम है। यही कारण है कि भारत में साहित्य की अन्य विधाओं के सापेक्ष कविता की परम्परा न सिर्फ़ बहुत लम्बी, गहरी और व्यापक रही है, बल्कि उसने भारतीय समाज के विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक युगों को वाणी भी दी है। यही नहीं उसने एक सामाजिक शक्ति के रूप में अपनी निर्णायक भूमिका भी निभाई है।
इस पुस्तक में हिन्दी कविता के दो आरम्भिक और महत्त्वपूर्ण युगों का विवेचन किया गया है, एक आदिकाल और दूसरा मध्यकाल। अब तक उपलब्ध सामग्री के आधार पर कहा जा सकता है कि हिन्दी कविता का उद्भव सातवीं-आठवीं शताब्दी के आसपास हुआ जिसकी पृष्ठभूमि में पालि, प्राकृत और अपभ्रंश का बड़ा योगदान है। आदिकालीन काव्य में अपभ्रंश का बहुत रचनात्मक इस्तेमाल मिलता है। इस दौर की कविता की मूल संवेदना भक्ति, प्रेम, शौर्य, वैराग्य और नीति आदि से मिल-जुलकर बनी है।
आदिकालीन काव्य के बाद भक्तियुग में कबीर, सूर, तुलसी तथा जायसी जैसे महान कवियों की अगुआई में काव्य रचा गया। संवेदना और शील की दृष्टि से इस युग में भी कई काव्य-धाराएँ मौजूद थीं। सन्त कवियों की वाणी की व्याप्ति दूर-दूर तक थी। ये लोग अक्सर भ्रमणरत रहते थे, इसलिए इनकी भाषा में बहुत विविधता मिलती है।
इस पुस्तक में इन दोनों युगों की कविता की विस्तार से, तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में विवेचना की गई है। दोनों युगों के महत्त्वपूर्ण कवियों की रचनाओं, उनके जीवन-वृत्त और उनके युग की विशेषताओं की जानकारी से समृद्ध इस पुस्तक से छात्रों को निश्चय ही अत्यन्त लाभ होगा। हिन्दी साहित्य के विद्वान और महत्त्वपूर्ण कवि हेमंत कुकरेती ने अपने अध्यापन-अनुभव को समेटते हुए इस पुस्तक को छात्रों के लिए उपादेय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है ।
Aalochanatmak Yatharthvad Aur Premchand
- Author Name:
Satyakam
- Book Type:

-
Description:
डॉ० सत्यकाम की यह आलोचनात्मक पुस्तक प्रेमचन्द के उपन्यासों को नई दृष्टि से देखने का एक सार्थक प्रयास है। स्पष्ट है कि लेखक की यह दृष्टि आलोचनात्मक यथार्थवाद के सिद्धान्त से विकसित हुई है। आलोचनात्मकता यथार्थवाद की प्रमुख और अनिवार्य विशेषता है और आलोचनात्मक यथार्थवाद यथार्थ को व्यक्त करने की एक दृष्टि। इसमें यथार्थ को हू-ब-हू नहीं रख दिया जाता, बल्कि उसके कारणों की परत-दर-परत छानबीन की जाती है। इसमें समस्या का समाधान नहीं प्रस्तुत किया जाता, क्योंकि उपन्यास कोई 'केस-स्टडी' या 'नुस्खा' नहीं होता। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रेमचन्द के उपन्यासों पर यह बात और अधिक लागू होती है, क्योंकि वे भारतीय जीवन का महाकाव्य हैं। सच्चाई यह भी है कि प्रेमचन्द स्वयं जीवन-यथार्थ को आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हैं। उनकी दृष्टि वैज्ञानिक, तर्कसंगत और आधुनिक है। वे निरन्तर पराधीनता, भारतीय नारी, नीच-ऊँच, छुआछूत, आर्थिक असमानता और धर्म-सम्प्रदाय सम्बन्धी यथार्थ पर आलोचनात्मक दृष्टि से विचार करते हैं।
लेखक ने अपनी इस पुस्तक को पाँच अध्यायों में विभक्त किया है। पहले अध्याय में उसने यथार्थवाद सम्बन्धी अवधारणाओं और ख़ासकर आलोचनात्मक यथार्थवाद पर विस्तार से विचार किया है, और अन्य अध्यायों में इस अवधारणा के अनुसार प्रेमचन्द के यथार्थ विषयक दृष्टिकोण और उनके द्वारा विभिन्न समकालीन समस्याओं को उठाने पर विचार किया गया है ।
Soordas 'Harbans Lal Sharma'
- Author Name:
Harbans Lal Sharma
- Book Type:

-
Description:
यदि युग-सापेक्ष दृष्टि से तात्कालिक समाज को केन्द्र-बिन्दु बनाकर सूर-साहित्य का आकलन किया जाए तो स्पष्ट लक्षित होगा कि सूर ने बाह्य प्रपंच से मुक्त होकर अन्तर्लीन दशा में काव्य-सृष्टि की थी, किन्तु इसका यह अर्थ न समझ लिया जाए कि युग की सापेक्षता से सूर और उनका साहित्य सर्वथा बचा रहा। सूर ने भक्ति को माधुर्य-मंडित करके प्रस्तुत करने का ध्येय बनाया हुआ था। यही उस युग की सबसे बड़ी माँग थी।
चैतन्य के शिष्य रूप और सनातन गोस्वामी ने शास्त्रीय मर्यादा में देववाणी द्वारा भक्ति का माधुर्य पक्ष स्थिर किया था; किन्तु जनमानस से उसका सीधा लगाव न उस युग में हुआ और न बाद में ही वह सम्भव हो सका।
हिन्दी के आधिकारिक विद्वानों और आचार्यों ने समय-समय पर सूरदास के साहित्य और उनके साहित्येतर पहलुओं पर जो चिन्तन-मनन किया है, उसका एक प्रतिनिधि संकलन यहाँ पुस्तक के रूप में प्रस्तुत है। सूर-साहित्य के जिज्ञासुओं, पाठकों और हिन्दी साहित्य के सभी छात्रों के लिए विचार-कोश की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानेवाली पुस्तक।
Kedarnath Singh Ki Kavita
- Author Name:
A. Arvindakshan
- Book Type:

-
Description:
जीवनानुभव का विस्तार केदार जी की कविताओं की खासियत है। उनकी कविता हमारे भीतर उत्खनन का काम करती है और अपनी एक दुनिया भी सृजित करती है। उस दुनिया में हमारा प्रवेश तो आसानी से हो जाता है क्योंकि वह हमारी चिरपरिचित दुनिया है। प्रवेश के बाद की स्थिति सरल नहीं है। उनकी कविता के भीतर कई प्रतिध्वनियाँ होती हैं; ध्वनियों और प्रतिध्वनियों का वह एक जटिल संकुल है। उनमें एक समय नहीं बल्कि समय की बहुलता है।
साधारण अर्थ में यह सही है कि उनकी कविताएँ राजनीति के रंग-रूपों के अनुसरण में नहीं लिखी गई हैं। सम्भवतः यह उनका मकसद भी नहीं था। मनुष्य का जीवन, हमारा समय, समय की जटिलताएँ, हमारा स्वत्व, हमारा लोकजीवन, आदि-आदि उनकी कविता में विषय के रूप में आते हैं जिनमें प्रकटतः राजनीति का प्रवेश नहीं है। लेकिन इन्हीं प्रसंगों के अपने राजनीतिक आशय भी हैं। इस अर्थ में केदार जी की कविताएँ सूक्ष्मतम स्तर पर राजनीतिक हैं।
उनकी कविताओं का संस्कृति-पाठ ही दरअसल अनिवार्य रूप से होना है। समय-समय पर उनकी कविताएँ अपसंस्कृति के रूपकों को अवतरित करती रही हैं। अपसंस्कृति के रूपकों का यह अवतरण अपने-आप में कविता में प्रतिरोध का एक सुदृढ़ अन्तस्थल सृजित करता है। उनके यहाँ प्रतिरोध की मुखरता मुख्य नहीं है बल्कि प्रतिरोध की अन्तर्धाराएँ मुख्य हैं। यह पुस्तक उनकी कविताओं के ऐसे ही सूक्ष्म तन्तुओं को पकड़ने के प्रयास का फल है।
Videshon Ke Mahakavya
- Author Name:
Gopikrishna Gopesh
- Book Type:

-
Description:
इस पुस्तक में अंग्रेज़ी लेखिका एच.ए. गुएरकर की ‘द बुक ऑ़फ एपिक’ से चुनकर विभिन्न भाषाओं के महाकाव्यों में से आठ कथाओं का हिन्दी अनुवाद संकलित है।
किसी भी भाषा की रचनात्मक समृद्धि का पता सिर्फ़ इतने से नहीं चलता कि उसमें मौलिक रचनाएँ कितनी हुर्इं। देश-विदेश की अन्यान्य भाषाओं की कृतियों के अनुवाद से भी भाषा-विशेष समृद्ध होती है। अनुवाद से हमारी भाषा की ग्रहणशीलता का प्रमाण भी मिलता है और उसकी अभिव्यक्ति क्षमता की व्यापकता का भी।
इस दृष्टि से हिन्दी के सामर्थ्य को उजागर करने में अनुवादक के रूप में जो महत्त्वपूर्ण भूमिका गोपीकृष्ण गोपेश ने निभाई, वह अविस्मरणीय है। उन्होंने कई भाषाओं की क्लासिक कृतियों का हिन्दी में अनुवाद करके हिन्दी के प्रबुद्ध पाठकों और साहित्यानुरागियों को यह अवसर उपलब्ध कराया कि जिन भाषाओं में उनकी गति नहीं है, उन भाषाओं की भी कालजयी कृतियों का आस्वादन वे कर सके।
Sandesh Rasak
- Author Name:
Abdul Rehman
- Book Type:

-
Description:
‘संदेश-रासक’, रासक काव्यरूप की विशेषताओं से संयुक्त तीन प्रक्रमों में विभाजित दो सौ तेईस छन्दों का एक छोटा-सा विरह काव्य है, जिसमें कथावस्तु का कोई विशेष महत्त्व नहीं है। विरहिणी नायिका का पथिक के द्वारा अपने प्रिय के पास सन्देश भेजना भारतीय साहित्य में अति प्रचलित काव्य-रूढ़ि है। किन्तु ‘संदेश-रासक’ की विशेषता उसके कथानक में नहीं, उसकी अभिव्यक्ति और कथन-शैली में है। महाकाव्य या भारी-भरकम काव्य न होने के कारण अद्दहमाण को छोटी-छोटी बातों का विशद वर्णन करने का अवसर नहीं था, फिर भी जिस मार्मिकता, संयम और सहृदयता का परिचय कवि ने दिया है वह उसकी कवित्व शक्ति, पांडित्य, परम्परा-ज्ञान और लोकवादिता की पूर्ण प्रतिष्ठा पाठक के हृदय में कर देती है।
जिस प्रकार पात्र दुर्लभ होने पर लोग शतपत्रिका में ही आश्वस्त हो लेते हैं, उसी प्रकार जिन लोगों को प्राचीन कवियों की रचनाएँ रस नहीं दे पातीं उन सबको ‘संदेश-रासक’ का कवि काव्य-रस पान के लिए निमंत्रण देता है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थ की रचना करते समय अद्दहमाण का दृष्टिकोण लोकवादी था। उन्होंने ‘संदेश-रासक’ का प्रणयन, साधारण जनों को दृष्टि में रखकर, उनके आनन्द और विनोद के लिए किया था, पंडितों और विद्वानों के लिए नहीं। वे ‘संदेश-रासक’ के पाठक का हाथ पकड़कर कहते हैं कि जो लोग पंडित और मूर्ख में भेद करते हैं अर्थात् जो अपने को साधारण जनों की अपेक्षा अधिक विद्वान् समझते हैं, उनके सामने इसे मत पढ़ना।
Customer Reviews
0 out of 5
Book
Be the first to write a review...