Rashtrakavi Kuvempu
Author:
PrabhushankaraPublisher:
Sahitya AkademiLanguage:
EnglishCategory:
Language-linguistics1 Reviews
Price: ₹ 41.5
₹
50
Unavailable
English translation by H S Komalesha of Prabhushankara's Kannada monograph.
ISBN: 9788126043865
Pages: 112
Avg Reading Time: 4 hrs
Age : 18+
Country of Origin: India
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इस बात को जब-जब दोहराया जाता रहा है कि हिन्दी की आलोचना मुख्यत: काव्य केन्द्रित रही है। लेकिन स्वाधीनता के बाद कथा साहित्य में आए रचनात्मक विस्फोट के परिणामस्वरूप आलोचना के केन्द्र बिन्दु में भी बदलाव आना स्वाभाविक था। इसी दौर में कहानी की तरह उपन्यास में भी जिन कुछेक आलोचकों ने सक्रिय, निरन्तर और सार्थक हस्तक्षेप किया है, उनमें मधुरेश का उल्लेख विशेष सम्मान के साथ किया जाता है। अपनी आलोचनात्मक उपस्थिति से उन्होंने आलोचना के प्रति छीजते हुए विश्वास की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए गहरा और निर्णायक संघर्ष किया है।
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‘हिन्दी उपन्यास का विकास' लगभग एक सौ बीस वर्षों के हिन्दी उपन्यास को उसके सामाजिक सन्दर्भों में देखने और आकलित करने का एक उल्लेखनीय प्रयास है। आज जब उपन्यास में रूपवादी रुझान, निरुद्देश्यता और भाषाई खिलन्दड़ापन घुसपैठ कर रहे हैं, मधुरेश की ‘हिन्दी उपन्यास का विकास’ पुस्तक सामाजिक यथार्थ की ज़मीन पर उपन्यास को देखने-परखने का उपक्रम करने के कारण ही विशेष रूप से ध्यान आकृष्ट करती है। यहाँ मधुरेश एक व्यापक फलक पर उपन्यासकारों, विभिन्न प्रवृत्तियों और वैचारिक आन्दोलनों की वस्तुगत पड़ताल में गम्भीरता से प्रवृत्त दिखाई देते हैं। उनकी विश्वसनीय आलोचना-दृष्टि और साफ़-सुथरी भाषा में दिए गए मूल्य-निर्णय ‘हिन्दी उपन्यास का विकास’ को एक गम्भीर आलोचनात्मक हस्तक्षेप के रूप में स्थापित करते हैं—उपन्यास की मृत्यु और उसके भविष्य सम्बन्धी अनेक बहसों और विवादों को समेटते हुए।
Aadhunikta Aur Hindi Upanyas
- Author Name:
Indranath Madan
- Book Type:

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Description:
हिन्दी उपन्यास का इतिहास ज़्यादा लम्बा नहीं है लेकिन आधुनिकता के बोध से यह पर्याप्त रूप से सम्पन्न है। आधुनिकता क्या है? यह उपन्यास के बाहर भी हो सकती है और साहित्य के भी। दरअसल यह एक जीवन-बोध है, जिसमें सवालों की निरन्तरता है और जिसमें स्वीकृत मूल्य अस्वीकृति के साक्ष्य तो बनते हैं परन्तु फिर स्थापित होकर विस्थापित होते जाते हैं।
आधुनिकता का बोध सर्वप्रथम 'गोदान’ में प्रकट होता है। यह बोध हिन्दी उपन्यासों में निजी परिवेश और निजी स्तर पर समाहित दिखलाई पड़ता है। आलोचक इन्द्रनाथ मदान के मुताबिक़ : ''इसका साक्षात्कार हर उपन्यास में अपने-अपने स्तर पर हुआ है। ‘गोदान’ में यह एक स्तर पर है, ‘शेखर : एक जीवनी’ में दूसरे स्तर पर, ‘बलचनमा’ में तीसरे स्तर पर, ‘न आनेवाला कल’ में चौथे स्तर पर, ‘एक चूहे की मौत’ में पाँचवें स्तर पर, ‘सफ़ेद मेमने’ में छहे स्तर पर, ‘वे दिन’ में सातवें स्तर पर और ‘मुरदाघर’ में आठवें स्तर पर।’’
प्रसिद्ध आलोचक इन्द्रनाथ मदान ने इस पुस्तक में 1934-36 से 1997 तक की अवधि में आए हिन्दी उपन्यासों का मूल्यांकन आधुनिकता-बोध की कसौटी पर किया है।
Awadhi Muhavare Evam Lokoktiyan
- Author Name:
Dr. G. S. Srivastava
- Book Type:

- Description: प्रस्तुत पुस्तक अवधी भाषा के प्रचलित मुहावरे और लोकोक्तियों का संग्रह है। यह पुस्तक न तो सऌपूर्ण मुहावरों का वृहद्कोश है और न हम ऐसा दावा करते हैं। मुहावरे भाषा की जीवंतता को दरशाते हैं। किसी बात को सही तरीके से बताने के लिए मुहावरे और लोकोक्तियों का सहारा लिया जाता है। प्रायः किसी बात के मर्म को बताने के लिए लऌंबे विवरण के बजाय मुहावरे या लोकोक्तियों के द्वारा सुगमता से और शुद्ध रूप में बताया जा सकता है। मुहावरे समाज की स्थितियाँ भी बताते हैं। मुहावरे और लोकोक्तियों में भेद किया जा सकता है। मुहावरे छोटे और किसी विशेष बात के संदर्भ, दृष्टांत या निष्कर्ष से बने होते है और धीरे-धीरे प्रचलित हो जाते हैं, जिनका उपयोग भाषा में सऌंप्रेषण के साथ-साथ चुटीलापन भी प्रदान करता है। लोकोक्ति किसी पूर्व घटना की उपमा या दृष्टांत होने के साथ-साथ कुछ उपदेश या ज्ञान की बात भी बताती है। मुहावरे आज भी गढे़ जा रहे हैं, जो प्रायः मीडिया व फिल्म के माध्यम से लोगों तक पहुँचते हैं, पर वही मुहावरे जीवित रह पाते हैं, जो लोगों की जबान पर चढ़ जाते हैं। प्रस्तुत पुस्तक में ठेठ अवधी मुहावरों के साथ-साथ हिंदी-उर्दू में प्रचलित मुहावरों का भी समावेश किया गया है। पुस्तक के अंतिम अध्याय में इन सभी मुहावरों और लोकोक्तियों को अक्षरानुसार सूचीबद्ध किया गया है, जिससे किसी भी मुहावरे को ढूँढ़ने में आसानी रहे। यह पुस्तक सामान्य पाठकगण, भाषाविद् तथा भाषा के शोध छात्रों में समान रूप से उपयोगी सिद्ध होगी।
Premchand Aur Bhartiya Samaj
- Author Name:
Namvar Singh
- Book Type:

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Description:
प्रेमचन्द स्वाधीनता-संग्राम में साधारण भारतीय जनता की जीवंतता, प्रतिरोधी शक्ति और आकांक्षाओं-स्वप्नों के अमर गायक। उपन्यास और कहानी जैसी, हिन्द में प्रायः लड़खड़ाकर चलना सीखती, विधाओं को ‘स्वाधीनता’ के इस महास्वप्न से जोड़कर रचनात्मक ऊँचाइयों के चरम पर ले जानेवाले परिकल्पक। रचनाशीलता को जनता के ठोस नित-प्रति भौतिक जीवन और उसके अवचेतन में मौजूद उसकी साधारण और असाधारण इच्छाओं को संयुक्त कर एक पूर्ण जीवन का आख्यान बनानेवाले युगदर्शी कथाकार। ‘यथार्थ’ की ठोस पहचान और ‘यथास्थिति’ के पीछे कार्य कर रही कारक शक्तियों की प्रायः एक वैज्ञानिक की तरह पहचान करनेवाले भविष्यदर्शी विचारक और बुद्धिजीवी।
सम्भवतः इन्हीं कारणों से आधुनिक रचनाकारों में इकलौते प्रेमचन्द ही हैं जिनमें हिन्दी के शीर्ष स्थानीय मार्क्सवादी आलोचक प्रो. नामवर सिंह की दिलचस्पी निरन्तर बनी रही। प्रेमचन्द पर विभिन्न अवसरों पर दिए गए व्याख्यान एवं उन पर लिखे गए आलेख इस पुस्तक में एक साथ प्रस्तुत हैं।
यहाँ शामिल निबन्धों एवं व्याख्यानों में प्रेमचन्द के सभी पक्षों पर विस्तार से बातचीत की गई है। प्रेमचन्द की वैचारिकता, जीवन-विवेक और उनकी रचनाओं के सम्बन्ध में प्रगतिशील आलोचना का स्पष्ट नज़रिया यहाँ अभिव्यक्त हुआ है। विशिष्ट सामाजिक परिप्रेक्ष्य में प्रेमचन्द की कहानियों और उपन्यासों का विवेचन यहाँ है और भारतीय आख्यान परम्परा के सन्दर्भ में प्रेमचन्द के कथा-शिल्प की विशिष्टता और उसकी भारतीयता पर गम्भीर विचार भी। साम्प्रदायिकता, दलित प्रश्न जैसे विशिष्ट प्रसंगों के परिप्रेक्ष्य में प्रेमचन्द की रचनात्मकता और उनके विचारों का मूल्यांकन हो या स्वाधीनता-संग्राम के सन्दर्भ में उनकी ‘पोजीशन’ का विवेचन—इन निबन्धों में नामवर जी अपनी निर्भ्रान्त वैचारिकता, आलोचकीय प्रतिभा और लोक-संवेदी तर्क-प्रवणता और स्पष्ट जनपक्षधरता से प्रेमचन्द को उनकी सम्पूर्णता में उपस्थित करते हैं।
Pracheen Bharat Ke Kalatmak Vinod
- Author Name:
Hazariprasad Dwivedi
- Book Type:

- Description: “भारतवर्ष में एक समय ऐसा बीता है जब इस देश के निवासियों के प्रत्येक कण में जीवन था, पौरुष था, कौलीन्य गर्व था और सुन्दर के रक्षण-पोषण और सम्मान का सामर्थ्य था। उस समय के काव्य-नाटक, आख्यान, आख्यायिका, चित्र, मूर्ति, प्रासाद आदि को देखने से आज का अभागा भारतीय केवल विस्मय-विमुग्ध होकर देखता रह जाता है। उस युग की प्रत्येक वस्तु में छन्द है, राग है और रस है।’’ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की प्रस्तुत कृति उसी छन्द, उसी राग, उसी रस को उद्घाटित करने का एक प्रयास है। इसमें उन्होंने गुप्तकाल के कुछ सौ वर्ष पूर्व से लेकर कुछ सौ वर्ष बाद तक के साहित्य का अवगाहन करते हुए उस काल के भारतवासियों के उन कलात्मक विनोदों का वर्णन किया है जिन्हें जीने की कला कहा जा सकता है। काव्य, नाटक, संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला से लेकर शृंगार-प्रसाधन, द्यूत-क्रीड़ा, मल्लविद्या आदि नाना कलाओं का वर्णन इस पुस्तक में हुआ है जिससे उस काल के लोगों की ज़िन्दादिली और सुरुचि-सम्पन्नता का परिचय मिलता है।
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