Pracheen Kavi
Author:
Vishvambhar 'Manav'Publisher:
Rajkamal Prakashan SamuhLanguage:
HindiCategory:
Language-linguistics0 Reviews
Price: ₹ 200
₹
250
Available
हिन्दी के विशाल वाङ्मय के अन्तर्गत ब्रज, अवधी और खड़ी बोली तीनों का काव्य आता है; पर खड़ी बोली के प्रति अत्यधिक मोह होने के कारण हमने अपने को एक गौरवशाली परम्परा से विच्छिन्न कर लिया है और इस प्रकार अपने उत्तराधिकार से स्वयं वंचित हो गए हैं। अतीत के काव्य का अपना एक महत्त्व है, एक स्थान है, एक सौन्दर्य है।</p>
<p>आलोचक के लिए साहित्य के सम्पूर्ण विकास की जानकारी अपेक्षित है, अत: आधुनिक काव्य को समझने के लिए भी प्राचीन काव्य का अध्ययन अनिवार्य रहेगा—अपनी परम्परा के परिचय के लिए भी और उसे उचित परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने के लिए भी। यदि हम साहित्य के किसी भी काल से अपरिचित हैं, तो हम उसके किसी अन्य काल के प्रति भी न्याय नहीं कर सकेंगे। हमें अपने साहित्य की सभी युगों की ऊँचाइयों से परिचित होना चाहिए। मेरा विश्वास है कि जो व्यक्ति ‘रामचरितमानस’, ‘पद्मावत’ और ‘सूरसागर’ की गरिमा को नहीं पहचानता, वह ‘साकेत’, ‘कामायनी’ और ‘प्रिय-प्रवास’ के सम्बन्ध में भी अतिरंजित ढंग की बातें करेगा।</p>
<p>रीतिकालीन-काव्य चिन्तन-प्रधान भी है। चिन्तन जीवन की सीमाओं के भीतर से उसकी ज्वलन्त समस्याओं को लेकर हुआ है। जीवन में केवल भावना से काम नहीं चलता, उसके पथ की बाधाओं को पार करने के लिए बुद्धि के सहयोग की भी अपेक्षा है। जीवन की कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के लिए जन-धारणाओं को अनुभवी लोगों के व्यावहारिक ज्ञान की आवश्यकता पड़ती ही है।</p>
<p>इस समीक्षा ग्रन्थ में चन्द बरदाई से लेकर दीनदयाल गिरि तक सत्रह प्रमुख प्राचीन कवियों के जीवन और काव्य का विवेचन इस रूप में किया गया है, जिससे बीसवीं शताब्दी के पूर्व के सम्पूर्ण ब्रज और अवधी काव्य का सौन्दर्य आज के प्रबुद्ध पाठक के सामने प्रत्यक्ष होकर, कबीर और जायसी, सूर और तुलसी, देव और बिहारी आदि में हमारी अनुरक्ति नए सिरे से जगा सके।
ISBN: 9788180312755
Pages: 180
Avg Reading Time: 6 hrs
Age: 18+
Country of Origin: India
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'आज की कविता’ आलोचना के नए दर खोलती है और समकालीन कविता के तज़ुर्बों को मुख़्तलिफ़ ढंग से विश्लेषित करती है। समकालीन कविता के लिए, जिस विनम्र और बाशऊर नज़रिए की ज़रूरत थी, वो यहाँ मौजूद है। पूरी किताब विनम्र लेकिन सचेत नज़रिए का प्रतिफल है। ...इस आलोचना-पुस्तक में कविता का होना, जीवन के होने जैसा है। विनय विश्वास इतने शालीन और एकाग्र ढंग से हिन्दी-उर्दू कविता को ज़िन्दगी के तत्त्वों से जोड़ते चलते हैं कि आलोचना-पुस्तक सिर्फ़ विनय की नहीं, बल्कि समकालीन हिन्दी के तमाम कवियों और उर्दू के शायरों की हो जाती है। ...आलोचना में जो उखाड़-पछाड़ (और गुटबाज़ी) चल रही है, यह आलोचना उससे कोसों दूर है। यहाँ मक़सद, बड़ी दयानतदारी के साथ समकालीन कविता को परखना है। उसकी सामाजिकता को पहचानना है। सच मायने में 'आज की कविता’ महज़ आलोचना का नहीं, बल्कि मौजूदा कविता का पर्यावरण रचती है। यही इस आलोचना की विशेषता है और मौलिकता भी। ...इस आलोचना में लोकतांत्रिक छवियाँ हैं। कमज़र्फ़ आग्रह, फ़रेब और छल का नकार है। ...विनय विश्वास ने कविताओं को अपनी आलोचना-पुस्तक में 'भर’ नहीं दिया, उन्हें माकूल और मुस्तकिल स्थान दिया है। संवेदनशील आलोचक यही करते हैं। ...विनय विश्वास के सरोकार स्पष्ट हैं। वो आज की कविता में जीवन की लय तलाश करते हैं। यहाँ एक सादगी है। यही आलोचकीय शक्ति भी है। वो इसी शक्ति के सहारे, समकालीन कविता के जिस्म तक नहीं बल्कि उसकी आत्मा तक पहुँचते हैं।
—ज्ञान प्रकाश विवेक, ‘वागर्थ’, अक्तूबर, 2009
Devnagari Lipi Aur Hindi Sangharshon ki Etihasik Yatra
- Author Name:
Ram niranjan Parimalendu
- Book Type:

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संसार में सर्वाधिक वैज्ञानिक, सरल, सहज और सुगम होने के बावजूद देवनागरी लिपि सदियों से अपने अस्तित्व-संघर्ष में लीन रही है। भारत में मुग़ल और ब्रिटिश शासन के सुदीर्घ कालखंडों में विभिन्न दुर्भाग्यपूर्ण राजनीतिक कारणों से उसे न्यायालय, शासन और प्रशासन में समुचित स्थान से वंचित होना पड़ा। राष्ट्रीय एकता के लिए यह लिपि का गौरवपूर्ण स्थान ग्रहण करने की एकमात्र निर्विवाद अधिकारिणी है, जिसकी सार्वजनिक माँग 1882 से ही अक्सर उठती रही है। इस माँग की पूर्ति अद्यावधि नहीं हो सकी। प्रस्तुत ग्रन्थ में विद्वान लेखक डॉ. रामनिरंजन परिमलेन्दु ने भारत के मध्य काल से ब्रिटिश काल तक देवनागरी लिपि के निरन्तर संघर्षों का खोजपूर्ण मौलिक विवेचन सर्वथा अज्ञात, अल्पज्ञात, विलुप्तप्राय प्राथमिक ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर किया है। यह विवेचन बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक राष्ट्रलिपि की अवधारणा को भी समाहित कर लेता है। यद्यपि हिन्दी भारत की राजभाषा है तथापि इसे अपने अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए सर्वाधिक संघर्ष करने पड़े। संघर्षों की यह लम्बी यात्रा आज भी जारी है।
भारत की खंडित आज़ादी के आरम्भिक पचास वर्षों में हिन्दी भाषा की दशा और दिशा का अति प्रामाणिक विश्लेषण, विवेचन और अनुशीलन भी इसकी प्रारम्भिक पूर्व पीठिका के साथ यहाँ किया गया है। यह ग्रन्थ देवनागरी लिपि और हिन्दी के संघर्षों की ऐतिहासिक यात्रा का दस्तावेज़ है—संग्रहणीय, पठनीय और मननीय भी।
Hindu-Muslim Rishton Ke Bahane
- Author Name:
Rama Kant Roy
- Book Type:

- Description: ‘हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों के बहाने : राही के उपन्यास’ पुस्तक में न सिर्फ़ हिन्दू-मुसलमान सम्बन्ध को गहराई और व्यवस्थित तरीक़े से विवेचित किया गया है, अपितु हिन्दी उपन्यासों में आए ऐसे सम्बन्धों को बहुत सजगता से प्रस्तुत किया गया है। किताब साझी-संस्कृति के मुखर पैरोकार राही मासूम रज़ा के उपन्यासों पर आत्मिक तरीक़े से विवेचन करती है। राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘समय’ का दस्तावेज़ है। ‘समय’ के इस दस्तावेज़ में हिन्दू-मुसलमान सम्बन्ध सबसे ज्वलन्त पहलू है। रमाकांत राय की यह किताब राही मासूम रज़ा के व्यक्तित्व और कृतित्व पर सबसे प्रामाणिक किताब है।
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